शुक्रवार, 18 दिसंबर 2009

चिलौरी

चिलौरी



इरकोना इरको इकरो येन डो जामुनी पाला
इरको येन डो जामुनी पाला इरको येन
आचारा रेसे डे डो जोंदोरा बीडे माडो जोंदोरो बीडे
पुलुमा लीजा कपड़े लीजे जोरियान कूडो डूगूवा
डो जोरियान कूडो डूगूवा
गांव- मुरलीखेड़ा स्रोत व्यक्ति- लक्ष्मण
कुवारी लड़की जामुन की पत्ती जैसी सुन्दर हो । अब तुम बड़ी हो रही हो ।अब तुम लुगड़े (साड़ी) का पल्ला खोंसकर ज्वार बोने लग जाओ । वह भी सफेद रंग की साड़ी पहन कर जिसमें 'जोरियानÓ नामक चिडिय़ा तथा अन्य रंग बिरंगी चिडिय़ों की तस्वीर बनी हो ।
धर्मेन्‍द्र पारे

गुरुवार, 17 दिसंबर 2009

अपने बचपन की स्‍मतियॉं मुझे न जाने किस किस संसार में ले जाती रही हैं । उनपर लिखने का क्रम अभी कुछ दिनों तक रुका रहेगा । इन दिनों मैं पुन: कोरकू जनजाति के पर्व उत्‍सव त्‍यौहार अर्थात उनके जीवन के पूरे राग पर के‍न्द्रित गीतों को लिप्‍यां‍तरित कर समझने की कोशिश कर रहा हूं । अद़भुत गीत हैं ये बिल्‍कुल ताजे पत्‍तों और फूलों की तरह । बिल्‍कुल निष्‍कलुष बेदाग । विस्‍मित करते गीतों के संसार से गुजर रहा पुन: गुजर रहा हूं गूगे के गुड को महसूस कर रहा हूं क्‍या व्‍याख्‍या सचमुच कर सकता हूं उत्‍तर आता है शायद नहीं । एक गीत का आनंद नहीं निहित विचारों की अनुगूंज भी सुनिए -
झूड़ी सिरिंज


गिरबो कोन गिटिजकेन जा किरसाना कोन जाग लाकेन जा

गिरबो के किरिजकेन जा किरसाना कोन माय माये वा

गिरबो कोन रागेजका पेरावा किरसाना कोन आटा आटा वा

गिरबो आन्टे धड़की ओलेन जा

सिंगरुप ढाका ढिढोम आनुयेवा

गांव- टेमलाबाड़ी स्रोत व्यक्ति- देवकी बैठे
एक बुढिय़ा बच्चों को झोली में सुलाते हुए गा रही है - गरीब का बच्चा तो सोया हुआ है और किसान अर्थात अमीर का बेटा रो रहा है । गरीब का बच्चा चुपचाप है किन्तु किसान का बेटा मॉं मॉं कहकर पुकार रहा है । गरीब का बच्चा भूखा ही पड़ा है और किसान का बच्चा रोटी रोटी कहकर पुकार रहा है । गरीब मॉं धाड़की करने गई है वह शाम को लौटकर ही अपने बच्चे को दूध पिलाती है किन्तु अमीर किसान का बेटा....
धर्मेन्‍द्र पारे

शनिवार, 12 दिसंबर 2009

शटल्ली के कुत्ते और उसका समाजवाद

शटल्ली के कुत्ते और उसका समाजवाद

शटल्ली, रामकिशन के मोहल्ले का रहने वाला था। जब भी वह शिकार पर जाता उसके साथ सबसे ज्यादा कुत्ते होते थे एक दो कुत्तों को वह बूच की रस्सी से बांधकर भी ले जाता था । बाकि कुत्ते हुजूम के रुप में उसके साथ स्वतः ही होते थे। वैसे उसका पालतू कुत्ता कोई नहीं था। ताज्जुब इसी बात का था। बावजूद उसके पास शहर के सबसे ज्यादा कुत्ते होते थे। दरअसल उस व्यक्ति का अपना कुत्ता प्रबंधन था। आज के मैनेजमेंट गुरुओं को भी मात कर देने वाला ! वह रोज शाम को भिखारियों के डेरों पर जाता वहां से औने पौने दामों पर उनकी रोटियॉं खरीद लेता। उन रोटियों को रात में वह शहर भर के कुत्तों में बांटता चलता। इस प्रकार उन कुत्तों का वह उदर पोषण भी करता । सारे कुत्ते उसके प्रति गहरी कृतज्ञता और करुणा से ओत प्रोत रहते थे। उसको कुत्ते इसी कारण पहचानते भी थे और समय आने पर वह जब भी शिकार के लिए उन्हें बुलाता वे निष्ठा पूर्वक उसके साथ चलते। शिकार के बाद भी वह सारे कुत्तों के अलावा उस कुत्ते को गोश्‍त का बड़ा हिस्सा देता जो सबसे पहले सूअर पर हमला करता था। जो कुत्ता इस हमले में घायल हो जाता था उसको भी बड़ा हिस्सा मिलता था। कभी कभी वह अपने मोहल्ले के लोगों के कुत्ते भी किराये पर ले जाता था। यदि किराये के कुत्ते ने शिकार के समय सबसे पहले हमला किया तो उसके मालिक को भी शटल्‍ली पुरस्‍कार स्‍वरुप ज्‍यादा गोश्‍त देता था । जब तक मैं खेडीपुरा स्‍कूल में पढा शिकार और शिकारियों की दुनिया के बारें में जानता रहा । बाद में यह अनुभव नहीं बढ सका । क्‍योंकि मैं एक तथाकथित सुसभ्‍य दुनिया , लोगों, स्‍कूलों के बीच अपने विस्‍थापन की जद़दोजहद करने लगा । वह दुनिया कत्रिमतर थी । यह दुनिया नकली थी । बहुत दुराव छुपाव और छल कपट से भरी थी । इसी दुनिया में मुझे पास होना था । इसी दुनिया से मुझे मेरे होने की पुष्टि करवाना था । इसी दुनिया के चोचलों और मानको पर मुझे खरा उतरना था । उतरा भी । हारा भी । लडखडाया भी । मायूस भी हुआ । सोचता हूं मेरे कई साथी जो खेडीपुरा स्‍कूल से निकले तो पर वापस उसी दुनिया में लौट गये। क्‍या एक तथाकथित सभ्‍यता से उन्‍हें पराजित कर वापस भेज दिया था ? क्‍या सभ्‍यता कही जाने वाली सभ्‍यताएं हमेशा ऐसा ही किरदार निभाती हैं ? सिर्फ संस्‍कतिकरण का नाम ही क्‍या सभ्‍यता है ? क्‍या स्‍वतंत्रता , निर्मलता, स्‍वायत्‍तता का नाम सभ्‍यता नहीं हो सकता ? क्‍या मेरे खेडीपुरा स्‍कूल के दोस्‍त , क्‍या मेरे गांव की बोली ,क्‍या मेरे बचपन के खेल और रुचियॉं सचमुच इतने असभ्‍य थे ? देर रात गये बहुत दूर तक अंधेरे में ये सवाल आज भी मेरे सामने मौजूद रहते हैं ? कोई काबा जाना चाहता है कोई काशी । किसी को  मंदिर चाहिए किसी को मस्‍जिद । धन दौलत पूंजी हिंसा घ़णा की दौड में सब शामिल हैं । भाग रहें हैं बेतहाशा । मुझे कुछ नहीं चाहिए सिवा उस निर्मल संसार के -----------

गुरुवार, 10 दिसंबर 2009

कुत्ती के पिल्ले छोटली और मैं



कुत्ती के पिल्ले छोटली और मैं

छोटली नाम से ही सब उसको जानते थे। पर हरणे पंडीजी की हाजिरी में पुकारा जाता सुरेन्द्र कुमार रामेश्‍वर जाति ब्राह्मण। हरणे पंडीजी जाति का उच्‍चारण खूब जोर से करते थे । जैसे वह किसी कागज पर किसी इबारत को हाईलाईट कर रहे हों । छोटली मेरा दूर का रिश्‍तेदार भी था। राजा, नवा, शंकर, डिबरु, सुनील के अलावा मेरी दोस्ती का क्षेत्र ज्यादा व्यापक था। मेरे मुद्दे आधारित दोस्त भी थे। मुझे ठंड के दिनों में यह पता होता था कि आसपास की गली मोहल्लों टूटे पड़े मकानों, कोनो कचरों, आड़ ओट, सेंदरी गली में कौन सी कुत्ती ने बच्चे दिये हैं। वे अब कितने दिन के हो गये हैं। उनकी आंख खुली है या नहीं उसमें कितने कुत्ते और कितनी कुतिया है। बीस नख का है कि कम नख का। बड़े होने पर उसके कान खड़े रहेगें या नहीं। मैं और छोटली इसके विशेषज्ञ माने जाते थे। पिल्लों की मां खाने की तलाश में कब निकलती है इसपर हमारी पैनी निगाह लगी रहती। शुरु शुरु में वह गुर्राती भी थी । धीरे धीरे हम उससे दोस्ती कर लेते। अपने घरों से चुपके से दो रोटी जेब में रख लाते और उसको खिलाते। कभी कभी दूध भी चुरा लाते थे। दरअसल छोटली और मेरे घर हरदा में भी दुधारु गाय भैंस रहती थी। पिल्लों की मां धूप का आनंद लेती रहती हम उसके पिल्लों से खेलते रहते। उन्हें दूध पिलाने और रोटी खिलाने का अभ्यास करते रहते। जब पिल्ले हमारे आदेश मानने लगते , हमारे इशारों पर दौड़ने लगते , छू कहते  ही उछल कर हमारे निर्देशित लक्ष्य की ओर लपकते। हम कहते - पंजा दे ! तो वे हमारी हथेली पर पंजे रख देते। हम कहते स्याबास !! शेरु !! कबू ! भूरु। हमारे लिए वे दिन बड़ी बेचैनी , उदासी और दुख के होते जब नगरपालिका के सफाई कामगार आते और किसी कुतिया को जहर दे जाते। हम कातर निगाहों से देखते रह जाते । हम लोग भगवान से दुआ करते कि काश जहर देने वाले कर्मचारी की निगाह में आने से यह कुतिया बच जाये ! हम धीरे धीरे तिउ...तिउ की आवाज निकाल कर उसे दूसरी ओर भगाने की कोशिश भी करते । कभी कभार ही सफल हो पाते थे । हम कुत्ते कुत्तियों को मेरे घर के पीछे बनी कोठरियों मे छुपाने की भरसक कोशिश भी करते पर नगरपालिका के नियमित अभियान से हम शायद ही उन्हें बचा पाते। अगले दिन नगरपालिका की ट्राली आती और कुत्तों की मृत देह उठाकर ले जाती। उन ट्रालियों में ढेरों कुत्ते पड़े होते। हम उनमें से अपने शेरु , कबू, भूरु को पहचानने और आखिरी विदा देने चुपचाप खड़े रहते। ट्राली में मृत कुत्तो के ढेर में उन्हें पहचानने और निहारने के लिए गर्दन उचका उचका कर ऐड़ी पंजों के बल खड़े होकर देखने की कोशिश करते। ऐसे समय हम अपने क्षोभ गुस्से और घृणा का इजहार तो नहीं कर पाते पर उस दिन बहुत तेज दौड़ लगाते कभी दौड़ते दौड़ते डाक्टर कुंजीलाल के ओटले पर चढ़ जाते कभी छलांग लगाते और बात बात मे कहते - यार ! दिमाग मत खराब कर। छोटली कहता - मेने अब्बी देखी थी शेरु की आंख खुल्ली थी । मानो वह हमें दिलाशा देने की कोशिश कर रहा हो कि हमारा प्रिय कुत्‍ता मरा नहीं बल्कि जिंदा है और जिंदा रहेगा । राजेश कहता हां वो जिंदी हे । हम उम्मीद करते कि एक दिन हमारी प्रिय कुतिया और कुत्ते जीवित लौट आयेगें ! हम कुछ दिनों तक उनकी बहादुरी और वफादारी के किस्से सुनाते । इस बीच किसी कुत्ते के हड़काये हो जाने की खबर आती । हड़काये कुत्ते से हम भी डरते थे । हमने सुन रखा था कि हड़काये कुत्ते की पूंछ सीधी हो जाती है । हड़काये कुत्तों को हमने स्कूल के पास बड़ी निर्ममता पूर्वक लाठियों से खत्म करते देखा था । मैं अपने कुत्‍तों को बडा छुपाकर रखता था । यदि सिराली वाली मावसी को दिख जाता तो वे कहती - बाल ओख .... अदडी आ कंई न्‍हई हगज मूतज....... (जारी)

धर्मेन्द्र पारे

शनिवार, 5 दिसंबर 2009

धापू मावसी ,चंपतिया,बिलबिल भाभी......

हमारे घर में कई किरायेदार रहते थे एक में रामोतर शर्मा जिनकी लड़की मधु थी। दूसरे में कानूनगो । आखिरी में धापू मावसी रहती थी। एक तरफ पंडु रहता था। छोटी छोटी खोलियों में कुछ और भी लोग आते जाते रहते थे। एक बड़ा हिस्सा निर्माणाधीन था। वहां काम चल रहा था। मोलल्ले में लड़कों के अलावा मधु, रंजना, ममता और नन्नी जीजी की लड़कियां भी ऐसी थी जिनके साथ मैं खेलता था। मधु मेरे ठीक पड़ोस में रहती थी। उसकी दादी मुझे हर अमावस और पूनम को जिमाती थी। और बात बात में राकुड़्या ....... राकुड़्या कहकर गाली देती थी। रामोतार शर्मा हाजी लोहार की दुकान पर मुनीम थे। गर्मी के दिन थे। पूरे शहर में चंपतिया का बड़ा जोर था। रोज रात में खटिया पर बैठकर लोग चंपतिया की बात करते थे। चंपतिया को किसी ने नहीं देखा था। पर रहस्य रोमांच कल्पना भय की जैसी सृष्टि चंपतिया के नाम से हुई थी वह बिल्कुल पहला पहला अनुभव था। बच्चे खूब डरते थे और खटिया से उतर कर बिल्कुल सटकर पेशाब करते थे। नाली तक कोई नहीं जाता था। रोज खबर आती कल रात को नरसिंग मंदिर के पास चंपतिया दिखा था। कभी खबर आती की आधी रात को आधा नर और आधा शेर का रुप रखकर चंपतिया निकलता है और जो भी दिख जाता है उसको उठा ले जाता है। मैंने अपनी खटिया सबके बीच में लगा ली थी। देशी आमन गांव से आई थी। बाल कैरी के बाद जाली पड़ने लगी थी । मेरे बगल वाली खाट पर मधु खूब बड़ा मुंह खोलकर सो रही थी । मुझे पता नहीं क्या सूझा मैंने चुपचाप उसक खुले मुंह में गुंईया सरका दी। मधु ने रात में बिस्तर गीला कर दिया था । सुबह उसकी दादी ने जब उसके मुंह में गुईयां फंसी हुई देखी तो राकुड़या..... राकुड़्या कहकर खूब गालियां दी। आस पास के कुछ लोगों ने कहा कि हो सकता है रात में चंपतिया आया हो ! सारे लोग अपने अपने आंगन में खटिया पंलग बिछा कर सोते थे। मुझे ध्यान नहीं आता कि कोई भी व्यक्ति उन दिनों घर के भीतर सोता था। बस सल्ला की बाई जिन्हें मैं मामी कहता था, मोहल्ले में केवल वह ही थी जो घर के भीतर सोती थी। जब हम पूछते मामी तुम भीतर क्यों सोती हो गर्मी नहीं होती ? तो बह बताती थी मखऽ बद्दल को डर लगऽ हऽ। म्हारा खऽ लगऽ कि म्हारा उप्पर बद्दल गिर जायऽगो। मेरे घर के दूसरे हिस्से में कानूनगो नाम का किरायेदार था। उनके दो बेटे और एक बेटी थी। सब विवाहित थे। उनकी लड़की का नाम नन्नी जीजी था। नन्नी जीजी की दो बेटियां थी। मैंने पहली बार उनसे ही सुना कि मां को मम्मी और पिता को पापा भी कहते हैं। नानी एक नया मकान बनवा रही थी। उसको हम नया घर कहते थे। नानी ने लकड़ी के काम के लिए बिछौला से मयाराम खाती को बुलाया था। उसकी बड़ी बड़ी मूंछे थी और वह बड़ा बातूनी था। नन्नी जीजी की लड़कियां मुझसे बड़ी थी। वे दोपहर में मुझे नये घर के धावे पर ले जाती और वहां पर मम्मी पापा का खेल और डाक्टर डाक्टर का खेल खिलाती। ये सब खेल मेरे लिए नये थे। इनकी पारिभाषिकता ,आशय और आनंद का मुझे अनुभव नहीं था। इसमें मैं अक्रिय रुप से उपस्थित होता था। जो कुछ करना होता नन्नी जीजी की लड़कियां ही करती। एक दिन मयाराम खाती हमारे ऊपर खूब चिल्लाया .......ममता ने भी सबसे शिकायत की कि - जे कोन जानऽ काई काई खेलऽ हऽ...हमारी चाल के सिरे पर धापू मावसी रहती थी। उनको मेरी मां ने गुरु बैण बनाया था। उनके घर हमेशा मेहमानों की भीड़ लगी रहती। ज्यादातर निकम्मे लोग। सब के सब टुक्कड़खोर । काम केवल एक आदमी करता था उसको हम रामरज भैया या बूद़या भैया कहते थे। वह दर्जी था। और अपने परिचय में बताता था कि मिसन चलता है। इसके अलावा धापू मावसी के दो और लड़के थे। बड़ा हर्या और सबसे छोटा मक्खन। बूद्या बीच का था। धापू मावसी के पति का नाम रद्दूजी था। वे कुवड़े थे। वे हकलाते थे। उनको लोग अदबया भी कहते थे । उनका बड़ा बेटा हर्या भी हकलाता था। शायद हर्या के बच्चे भी। हर्या की शादी हो गई थी उसकी चार पांच लड़कियां और दो लड़के थे। हर्या की पत्नी को हम सब बैरी भाभी के नाम से जानते थे। धापू मावसी और उनकी हम उम्र सखी सहेलियां तो उनको निक्खर बैरी ही कहती थी। बैरी भाभी का असली नाम मालती था। उनको एक बार विसम का बुखार हुआ जिससे वे बहरी हो गई थी। हर्या को भी खूब मोटा चश्‍मा लगता था। हर्या को कभी कभी बूद्या भैया गुस्से में बाबूजी भी कहता था और सामने की थाली खीच लेता था। खीजकर चिल्लाकर कहता - म्हारा माथा पऽ क्यों साको करऽ हऽ यार तू ..! कुछ काम धाम क्यों नी करतो ?अबकी तो मऽ बी घर छोड़ खऽ पिंड छुड़ऊंगो तू सऽ। यह कलह कई बार होता पर याद नहीं आता हर्या ने कभी कोई काम किया हो! हरया नवम्बर से मार्च के महिने तक कोट पहनता था। नीचे पजामा। गले में मफलर ।बहुत मोटे लैंस का चश्‍मा और हकलाते हुए ह...का उच्चारण उसके व्यक्तित्व को मुकम्मल करता था। वह हतई का भी एक नम्बर का उस्ताद था। पूरे मोहल्ले की औरतों और अपने रिश्‍तेदारों के घर जाकर वह रोज खूब स्यानी स्यानी बातें करता था। पर काम धाम कुछ नहीं। धापू मावसी के घर कई मेहमान हमेशा बने रहते थे कई तो महीनों के लिए। मसलन मंगू जी, इंदरराज, बिलबिल भाभी,रुकमणी बैण, सुनील, न जाने कौन कौन । इसके अलावा दो तीन दिन के लिए आने वाले मेहमान अलग थे । मंगूजी हमेशा चड्डी और बंडी पहने रहते। वे भी कभी कभार मिसन चला लेते थे। पर ज्यादातर नहीं। बिलबिल भाभी मंगूजी की पुत्रवधु थी उनका एक लड़का रजेश था। बिलबिल का पति रेलवे केंटिन भुसावल में काम करता था। रजेश मुझसे साल दो साल छोटा था। विगत पच्चीस तीस साल पहले ही वे हरदा से भुसावल चले गये थे। कुछ दिनों पहले ही पता चला कि मंगूजी तो काफी पहले ही पर उनके पुत्र , बिलबिल भाभी और सबसे त्रासद खबर यह कि उनका पुत्र रजेश जो मुझसे भी दो साल छोटा था इस संसार से चले गये। रजेश को बताते हैं कि एड्स हो गई थी। धापू मावसी की पच्चीस एकड़ जमीन कड़ौला गांव में थी पर विश्‍नोईयों के द्वारा तरह तरह से दिक्कत देनें पर वे गांव छोड़कर हरदा आ गई थी। रिश्‍ते निबाहने में उन जैसे कम लोग ही मुझे देखने में आये । दूर दूर तक के , जाति तो जाति दूसरी जातियों के भी लोग उनके घर आकर रहते ठहरते थे। उनके घर जब मेहमान बढ़ जाते तो बैरी भाभी एक लोटा पानी सब्जियों में बढ़ा देती थी। बैरी भाभी को हर साल दो साल में संतान प्राप्ति हो जाति थी । उनकी एक लड़की का नाम चीटी था । वह हरताली तीज के दिन पैदा हुई थी । उस दिन अजनाल में इतनी पूर थी कि हमारे पूरे मोहल्ले में पानी भर गया था। नदी का पानी धापू मावसी की घर में भराने को ही था। पर मुझे नहीं याद कि वे इससे भी जरा विचलित हुई हो। व्यग्रता को उन्होंने जाना तक नहीं था। गुस्सा मन में ही रखती। वह कहती भी थी कि लड्या सऽ टल्याऽ भला

धर्मेन्द्र पारे



एक थी दुल्ली बुआ... आगे कभी..................

बुधवार, 2 दिसंबर 2009

गुडडु के आतंक से मुक्ति , मोहल्ले का कुआ ,काब्जे, और सुनील के जलवे

गुडडु के आतंक से मुक्ति , मोहल्ले का कुआ ,काब्जे, और सुनील के जलवे

पांचवी कक्षा में आते ही मैंने भी पटवा बाजार से प्लास्टिक का नारंगी रंग का तीन धारी वाला कमर पट्टा खरीद लिया था । लड़ाई झगड़े में पत्थरों और गालियों के बाद वही मुख्य हथियार हुआ करता था। गुड्डु धोबी मुझे रोज मारता था। उसकी हिम्मत यहां तक बढ़ गई थी कि जब मैं अपने घर के कोट पर चढ़ा होता तब भी मारकर भाग जाता। दरअसल स्कूल और मोहल्ले में यदि किसी की चलती थी तो पहले नम्बर पर रामकिशन और उसके रिश्‍तेदारों की जिनका नाम ही काफी हुआ करता था। स्कूल परिसर के बाहर भी इनका ही रंग हुआ करता था। सारे बच्चे इनकी बोली वाणी पहनावा लहजा चाल ढाल का अनुसरण करना चाहते थे । मानों वे मानक हो मानों वे आदर्श हों। स्कूल परिसर में मास्टरों के लड़कों की भी अच्छी चलती थी। संजय तिवारी हेडमास्टर का लड़का था, सतीश कुरेशिया पंडीजी का और रतनदीप चंद्रवंशी गुरुजी का। स्कूल के बाहर कहार मोहल्ले में ब्रह्मा विष्णु महेश की भी अच्‍छी धाक बन रही थी। पर बस उसी धानी फुटाने वाली गली में उनका नाम ज्यादा था। शेष मोहल्ले के किंग तो दूसरे ही हुआ करते थे। दरअसल गुड्डु ,ब्रह्मा विष्णु महेश की गली में रहने आ गया था । उसको संरक्षण की गलतफहमी हो गई थी। एक दिन गुड्डु ने नेड़गुड़ की बड़ी बड़ी सोंटी लगभग लट्ठ नुमा लेकर मुझे तिगड्डे पर मिलाया और मारने दौड़ा। पता नहीं साथ देने या दर्शक के रुप में दो चार और भी लड़के साथ में थे । मुझे लगा मौत साक्षात सामने है त्वरित मेधा से मैंने पहले धूल उठाया गुड्डु की ओर फेंका । निशाना सही लगा युद्ध का नायक परास्त होने जा रहा था वह भी अपनी ही गली में । अपने ही सरदारों के साथ -सामने। गुड्डु की आंख में कचरा जा चुका था। मौके का फायदा पूरा उठाया गया ! गुड्डु से सोंटी छीन ली गई । उसी सोंटी से उसको भयानक रौद्र रुप में सूता गया। बिल्कल उधेड़ दिया । गुड्डु रो रहा था। गुड्डु के सरदार मेरी तरफ हो चुके थे वही जो कुछ देर पहले गुड्डु को उकसा रहे थे! रण जीत लिया था। मैं रामकिशन, उत्तम ,लल्लू और मानसिंग की तरह सीना तान कर चल रहा था। घर पहुंचा गुडडु की बाई झगड़ा करने आई मैंने उनको भी गालियां ठननाई। गुड्डु के काका सुरेश को न जाने मैं क्यों मैं अपने एरिया का सबसे बड़ा दादा मानता था। सुरेश लंगोट लेकर रोज चौकी अखाड़े जाता था शायद इसलिए। पर सुरेश सेहत से बहुत कमजोर छोटा सा और दुबला पतला था । सुरेश उन दिनों शाम को कुए की पाली पर बैठता था। कुआ गली में, तेलियों के मकान जो अब राठौर धर्मशाला में बदल गये है के पास था। वह गुलाबी चौड़ी वेल वाटम पहनता था बालों को सिनेमा के हीरो की तरह घुमाता था। उसकी जेब में हमेशा एक कंघी रहती थी। जब तब जिससे वह बाल संवारता रहता था। शाम को उसके पास सप्पु पहलवान भी आकर बैठता था। सुरेश स्कूल तो नहीं जाता था पर दिन भर सिनेमा के गाने जोर जोर से गाता था और चौकी अखाड़े के पहलवानों की स्टाइल में चलने की एक्‍शन करता था। उन दिनों मुझसे बड़े कुछ लड़कों की जेब में बटन वाला चाकू भी हुआ करता था। मैंने बटन वाला पीतल और लोहे का चाकू पहली बाद पदम पहलवान के पास देखा था। राजा मुझसे अक्सर कहता था कि जब भी गोलापुरा वालों से झगड़ा होगा मैं तो हीरु भैया के घर से चाकू ले आऊंगा। नवा कहता था उसके घर तो पहले से ही है। शंकर अपने रिश्‍ते सीधे सीधे चंदू खलीफा से बताता था। मुझे अपनी असहायता पर बहुत दुख होता था। ऐसे मौको पर मुझसे कुछ बोलते नहीं बनता था। बोलने की कोशिश करता तो खिसिया कर रह जाता। मुझे लगता मैं बहुत दरिद्र हूं। ऐसे समय मुझसे पढ़ने और खेल कूद में बहुत कमजोर और पीछे रहने वाले राजा और नवा के चेहरे पूरे खिले होते। हालांकि कंचे खेलने में मेरा निशाना गजब का था। खूब सारे कंचे जीतकर मैं उन्हें हीरा सांई के टप पर सस्ते में बेच भी आता था। यह मेरी कभी कभार की आय का जरिया भी था। भौरा मैं ऐसे घुमाता था कि जमीन पर गिराये बिना सीधे हथेली पर ले लेता था । पर सोचता इससे क्या होता है ? आखिर मेरे पास बटन वाला चाकू तो उपलब्ध नहीं है ?शंकर सुतार, डिबरु पंडित, खालिक,दयाल, कमल आदि रहते तो हमारे घर के आसपास पर ये लोग राजा नवा और मुझसे अपने को इसलिए बेहतर मानते थे क्योंकि ये खेड़ीपुरा स्कूल जैसी थर्ड क्लास स्कूल में नहीं पढ़ते थे। उन दिनों ये लोग अन्नापुरा, मानपुरा, शुक्रवारा स्कूल में पढ़ने जाते थे। इनके घर परिवार के लोग कहते भी थे कि खेड़ीपुरा स्कूल में पढ़ने से बच्चे बिगड़ जाते हैं।


कुए में दो बड़े बड़े काब्जे थे। मस्जिद के पास रहने वाले लड़के जब तब समूह में आते और अपने गल से उन्हें पकड़ने की कोशिश्‍ करते थे । मुझे ऐसे समय बहुत बुरा लगता था और मैं सोचता था कि गुड्डु का काका सुरेश ऐसे बुरे समय में जरुर आयेगा और इन लड़कों को भगा देगा । पर कुछ दिनों बाद मेरा इस विश्‍वास से मोहभंग हुआ जब उन लड़कों ने सुरेश को मेरे सामने ही घर जाकर चमका दिया । सुरेश मेरी निगाह में अब छोटा हो चुका था । मानों उसकी पोल खुल कई । पॉलिश उतर गया । जब नल नहीं आते थे तो पूरे मोहल्ले की औरते कुए पर ही कपड़े धोती थी। और जिन लड़कों को तैरना आता था वे ऊपर से कूदकर नहाते थे। सुरेश धोबी और सुनील नाई का नम्बर उसमें सबसे ऊपर था। मुझे उस कुए में नहाने की कतई इजाजत नहीं थी। हांलाकि मैं अपने गांव की नदी में सुतार घाट पर उससे भी कहीं ज्यादा ऊंचाई से कूदकर नहाता था। एक दिन रात को राजा की नई वाली बाई ने उसमें छलांग लगा दी। दरअसल राजा कि मां बचपन में ही नहीं रही थी। उसके पिताजी जिन्हें हम लच्छू मामा कहते थे की यह तीसरी शादी थी। राजा की नई बाई का कुए में कूदना था कि पूरे मोहल्ले की भीड़ वहां लग गई। कोई रस्सी लेकर दौड़ा तो कोई दिया लेकर। तेलन माय ने चिमनी को उल्टा ही कर दिया उजाला तो नहीं हुआ पर चिमनी भभक गई और उनको चटका लग गया। उन्होंने चिमनी कुए में ही टपका दी। पर जितनी देर भी उजाला हुआ उतने में सबने देख लिया कि राजा की बाई सकुशल है। वे कुए में आड़े लगे एक डंडे पर खड़ी हो चुकी थी। नायन माय ने बाद में बताया कि वह तो नर्मदा की तैराक रही है। दूसरी औरतों ने इसके पहले भी इस कुए में कूदने वाली औरतों के बारे में जिक्र किया और बताया कि पर देव बाबा का कुछ ऐसा परताप है कि इसमें कोई मरता नहीं है। कुए के प्रति मेरे मन में बड़ी श्रद्धा उत्पन्न हो गई। पर पूरे मोहल्ले में यह माना जाता है कि गढ़ीपुरा में घुसने के लिए मोरे के पास जो सेंदरी है उसमें भूत है । रात में वहीं से ढोलक और घुंघरु की आवाज आती है। बावजूद इसके ठंड के दिनों में नवा, राजा,शंकर और नवा का भाई माणक आदि हमलोग मिलकर रात में कहीं न कहीं से साइकिल के टायर, लकड़ी के छिलपे और कभी कभी कहीं से कंडे भी चुराकर आग जलाते और तापते हुए बहुत देर तक भूत की बात करते पर उस सेंदरी की तरफ देखते भी नहीं। सुनील आता तो विद्रोही भाषा में बात करता। तब तक वह घर से दो तीन बार भाग भी चुका था। यूं कई लड़के उन दिनों घर से भाग जाते थे। पर सुनील की बात कुछ और थी। वह कई कई दिनों और महीनों बाद आता था। वह बताता था कि इस बार वह बंबई जेल में बद रहा तो कभी बताता कि वह नाशिक जेल में बंद रहा। हकीकत में उसकी भुआ के लड़के मनोहर भैया उसको एक बार तो इंदौर से पकड़कर लाये थे। वह अपने काकाजी की पहलवानी के किस्से सुनाता था और बताता था कि वे जवानी के दिनों में जब रियाज करते थे तो जब वे एक पांव पर खड़े होते थे तो धरती एक तरफ झुक जाती थी । पर सुनील की उसके काकाजी से पटती नहीं थी। ऐसे और भी लड़के थे जिनकी अपने बापों से नहीं पटती थी। वे मुझे घर से बुलाते और कहते जरा हमारे घर देखकर आओ वो मेरा मादर....बाबू तो नहीं आ गया ? दरअसल उस बेचारे की मां कैंसर से मर चुकी थी और बाबू ने अपनी शिष्‍या को ब्याह लाये थे। मुझे नहीं याद है कि आठवीं कक्षा तक हम दोस्तों ने कभी घर पर किसी प्रकार का होमवर्क किया हो। बस्ता स्कूल में ही खुलता था। बाकि समय घर की खूंटी पर मौन टंगा आराम कर रहा होता। घर में खूटियों और आलों की कोई कमी नहीं थी। कुछ आले चिमनी जलने के कारण काले पड़ चुके थे। घर कच्चा था। मिट्टी से छबा हुआ। कभी कभी उसके पोपड़े निकलते थे। जो कुछ पढ़ना वह स्कूल में ही। बाहर तो बस खेल ही खेल। रात में इंदरराज दाजी से कहानी सुनना।(सतत जारी ;;;;)

धर्मेन्द्र पारे

मंगलवार, 1 दिसंबर 2009

मोजू बाबा पड़िहार की बैठक और मेरा इलाज

मोजू बाबा पड़िहार की बैठक और मेरा इलाज

जब हम दीपावली की छुट्टी में गांव गये तो गांव भर की कई बूढ़ी औरतें जो मुझे जरुरत से ज्यादा ही लाड़ करती थी देखने आई और सबने मिलकर मोजू बाबा की धाम में ले जाने का निश्‍चय किया। मोजू जाति का तो मेहतर था पर उन दिनों उसकी यश प्रतिष्ठा का कोई मुकाबला नहीं था। आस पास के दस बीस गांवों में वह सबसे बड़ा पड़िहार था। उसपर गांव बालों को बड़ा भरोसा रहता था। जो व्यक्ति चंपालाल पंडित तक नहीं पहुंच पाता था वह सीधे मोजू के पास ही जाकर ठहरता था । वह कई भूत प्रेतो को भगा चुका था। यूं गांव में मोजू के अलावा भी कई पड़िहार थे । गेंद़या गाडरी, सुक्का बसोढ़,गुलाब कोरकू,गुट्टू गाडरी,लक्खू बलाही जागेसर गाडरी, बिहारी कहार समेत कई लोगों को तरह तरह के देव आते थे। ऐसी कोई बाखल बाकि नहीं थी जहां पड़िहार न हो जहां देवों की धाम न लगती हो जहां मथवाड़ न गूंजती हो मेरे गांव में नई नवेली अधिकांश बहुओं को जिन्न,भूत, प्रेत, चुड़ैल, दाना बाबा लग जाते थे। समाज में कैसी भी क्रूर जाति प्रथा रही हो भूत प्रेत बाहरबाधा की घड़ी अर्थात आपातकाल में लोग सब भूल जाते थे। अच्छे अच्छे राजपूत, कुड़मी बामन, बनिये मोजू बाबा के ओटले तक जाते थे। मोजू की उन दिनों हमारे परिवार से बातचीत नहीं थी। कारण हमारे पिताजी के चचेरे भाई ने मालगुजारी दौर में कभी उसकी टापरी जला दी थी और गोली भी चलाई थी।यूं मोजू बाबा का लडका कैलाश मेरे प्रिय मित्रों में था । वह गांव भर में सबसे अच्‍छी पंतग बनाना जानता था । मैं पॉंच दस पैसों में उससे पतंग खरीदता भी था । मोजू बाबा के ओटले पर अच्छी खासी भीड़ थी। उसका रजाल्या पास में ही बैठा था। मोजू पड़िहार सेली से बाहरबाधा ग्रस्त लोगों की पिटाई कर रहा था। मेरा नम्बर आया पर मोजू बाबा ने बस दानमान देखे और कुछ बाहर बाधा बताई । शायद मुझे सेली मारने की उसकी हिम्मत नहीं थी। शायद मेरी सामाजिक आर्थिक पृष्ठभूमि के प्रेत बड़े भयावह थे जो उसके देवों पर भी भारी पड़ सकते थे। मैंने दशहरे के दिन भी देखा कि जब पड़िहारों के शरीर में देव आता था और वे लाल लाल पजामें पहनकर, चाकू या तलवार पर नीबू लगाकर एक विशिष्‍ट शैली में नृत्य करते हुए नीर (जिसे देव कूदना भी कहते हैं ) लेने नदी पर घर के सामने से निकलते थे, वे देव भी दादाजी के पांव पड़ते थे। मुझे यह समझ नहीं आता था कि देव तो भगवान होते हैं वे तो अच्छे अच्छे भूत से भी नहीं डरते फिर दादाजी के पांव क्यों पड़ते हैं ?क्या दादाजी भूत से भी ज्यादा ताकतवर हैं ? दादाजी अर्थात पिताजी के बड़े भैया। बड़ा रौब दाब रहा उनका गांव में। उनके जैसा जोर जोर से चिल्लाने वाला और गाली बककर गांव गर्जा देने वाला मर्द मैंने नहीं देखा। कभी कभी वे अच्छे मूड में होते तो बताते थे कि पहले जब गांव में महिलाएं गड़व्या खेलती थी तो कई बार भूतड़ी और चुड़ैल गड़ब्या उठाकर भाग जाती थी और फिर खैड़ी पर गड़व्या रखकर नाचती थी। यूं गांव में भूत प्रेत के किस्से खूब चलते थे । हम बच्चे भी मानते थे कि सुतार घाट पर रात में भूत नाचते हैं। बच्चों में यह भी प्रचलित था कि गांव में लुकमान पिंजारे का भाई जब नार लेकर सुस्तया वाले खेत में गया था तो एक बार उसने भूत से कुश्‍ती लड़ी थी। भूत ने पहले उससे बीड़ी मंगी थी। उसने गलती यह की थी कि भूत की बात का उत्तर दे दिया था। पर जब उसने उसके उल्टे पांव देखे तो डर गया। फिर उसने सोचा डरने से क्या फायदा। दोनों में खूब कुश्‍ती हुई। उसने भूत की चोटी अपनी कुल्हाड़ी से काट ली। भूत ने फिर खूब हाथ पांव जोड़े फिर भूत ने उसको जलेबी और गुलाब जामुन खिलाई। दरअसल उन दिनों गरीबो के लिए गुलाब जामुन और जलेबी खाना दिवास्वप्न ही था । अच्छे अच्छे किसानों के यहां गोरस और पूरी की ही पंगत होती थी । कभी गांव में खुदा न खाश्‍ता कढ़ाय हो जाये तो उस दिन पारक्या ढोर नहीं छोड़ते थे। सब खाकरे के पत्ते ले लेकर तैनात खड़े रहते थे। कल्लू और शिवजी नाई की ऐसे समय खास भूमिका होती थी। गांव भर की भीड़ इकट्ठी होती थी । जिनकी आपस में तनातनी या तड़बंदी होती वे भी वहां मौजूद रहते थे ।
                          हमारे घर में बहुत पर्दा प्रथा थी। काकी और बड़ी बाई हमेशा छत पर्दे लगी गाड़ी से ही बाहर निकलती थी। वो भी घर के आगे से नहीं पीछे खले में गाड़ी जाती थी वहां सिर पर घूंघट डाल कर पहले गाड़ी के पांव पड़ती फिर गाड़ी में बैठती थी। गाड़ी गेरने वाला हमेशा पटली पर बैठता था। उसको गादी पर बैठने की इजाजत नहीं होती थी। हमारे घर से महिलाएं गांव में कभी भी दूसरों के घर नहीं जाती थी। न शादी में न मृत्यु में। न जन्म में न तीज त्यौहार में। फिर भी अधिकांश घरों से महिलाएं हमारे घर आती जाती थी।

धर्मेन्द्र पारे