गुरुवार, 16 दिसंबर 2010

कोरकू जीवन राग

अपने द्वार पर कोरकू बालिका
खेल में मगन बालक

कोरकू बालिकाऍं ठापटी नृत्‍य की तैयार
कोरकू जनजाति की वाचिक परंपरा पर कार्य करते हुए मुझे एक दशक ही होने को आया ..  यात्रा हर बार नई शुरुआत लगती है। कोरकू संस्कार गीतों से प्रारंभ यह यात्रा कोरकू गाथा ढोला कुंवर, कोरकू देवलोक और गोंड देवलोक होते हुुए अब आ खड़ी हुई है - कोरकू जनजाति के जीवन राग से जुड़े पर्व, त्यौहार और उत्सव गीतों के नजदीक। ये गीत वर्षा की फुहारों में नहाये हुए, मलयानिल में हिलोरे लेते हुए दिखते हैं। बिल्कुल ताजे ,बिल्कुल निष्कलुष । जटिलतर जीवन की बातें यहॉं नहीं है। इन गीतों से गुजरते हुए लगता है हम किसी सागौन के पेड़ को देख रहें हैं! मानों किसी पहाड़ी पर खिले जंगली पुष्पों की सुगंध से सराबोर हो, या फिर  कर्ई तरह के पशु पक्षियों  की चहचहाहट सुन रहे हों ! मानों हम निसर्ग को अपने भीतर और निसर्ग के भीतर स्वयं को महसूस कर रहे हों! मुझे हमेशा ही ऐसा लगा है! कह नहीं सकता आपको कैसा लगेगा ? गये होगें लोग देश विदेश, उड़े होगें वे उडऩ खटोले पर, मुझे तो मेरे वन प्रान्तर मेरी कोरकू धरा बहुत आह्लïादित करती है। मेरा यह आनंद सचमुच अनिर्वचनीय है । क्या बताऊं कि क्या पाया है मैंने ? भौतिक संचय संग्रह सुख सुविधाओं की दौड़ में तो सब शमिल हैं ही । आखिर कहॉं तक है यह सफर कहॉं जाकर रुकेगेंं ? क्या कोई ओर छोर भी है इसका ? इस दौड़ा भागी में पता नहीं हमने अपनी कितनी निर्मल संपदा मिटा डाली । उसका तो कोई हिसाब नहीं ? और कमा क्या रहे हैं ? ..
        और भाषाओं के तथाकथित विद्वतजनों के विचारों का तो मुझे पता नहीं किन्तु हिन्दी भाषा और साहित्य के तथाकथित विविध अखाड़ों के उस्तादों और प_ïो की राय में इस तरह के कार्य 'सेकेंडरीÓ हैं । वे इसे 'क्रियेटिवÓ नहीं मानते  ?? क्या सचमुच ! दिल पर धरिए हाथ जरा ?? कोरकू भाषा की मृत्यु की घोषणा पाश्चातत्य विद्वानों ने सौ सवा सौ बरस पूर्व ही कर दी थी। वे बहुत ज्यादा गलत भी नहीं थे। इस भाषा और संस्कृति का बड़ा हिस्सा अब विलुप्त प्राय है। नई पीढ़ी स्वयं अपनी भाषा और संस्कृति की हीनता से ग्रस्त है । वे स्वयं इससे मुक्ति के लिए उतावले हैं। यह कैसा उतावलापन और कैसी मुक्ति है ? स्वयं को मारकर ? मुझे नहीं लगता वे  ऐसा करना ही चाहते हों ! दरअसल समय और समाज ने, अर्थ और भौतिकता ने, जीवन संघर्ष ने उनके सामने भीषण चुनौति खड़ी कर दी है। अपने को बचाना, अपने बच्चों के भविष्य को बचाने, पेट पालने की जद्दो जहद ने  इस भाषा और संस्कृति को अंतिम कोने में समेट दिया है। यह सब सोचना भी एक दर्द भरी यात्रा से गुजरना है। अभी कल ही एक लड़की मिली, इस समाज की। नाम है गोंदा धुर्वे । मैंने उससे पूछा  गोंदा तुम्हारा गोत्र धुर्वे कैसे हो गया ? दरअसल कोरकू जनजाति में धुर्वे गोत्र नहीं होता यह तो गोंड जनजाति का गोत्र है। उसने बताया - बस ऐसे ही !  मैंने देखा कि और भी  कई लड़के लड़कियों के गोत्र, शहरों और नगरों में, राजनीति और अर्थ जगत की सत्ता पर, समाज में किसी भी तरह की ताकत रखने वाले लोगों के गोत्रों में बदल चुके हैं । कोई 'पटेलÓ कोई  'सेठÓ तो कोई  'चावलाÓ कोई   'ठाकुरÓ तो कोई  और भी इसी तरह के गोत्र धारण कर चुके हैं ! सोचता हॅूू यह सब क्या है !  क्या निहितार्थ और भाष्य है इन पहेलियों का ?  गोंदा रोज कोशिश करती है कि उसके माथे पर मॉं बाप द्वारा बचपन में ही गुदवा दिया गया  'इपठिंजÓ किसी तरह मिट जाये। वह लड़की रोज अपने माथे को घिसती है। भरसक  कोशिश कर रही है कि उसके भाल पर मंडा कोरकू पहचान चिह्नï जल्दी से जल्दी मिट जाये। वह ही नहीं उसके जैसी तमाम लड़कियॉँ इसी प्रयास में लगी है। क्या यह नवयुवा पीढ़ी इस सबके मिटने और मिटाने के लिए जिम्मेदार हैं ? कहूंगा बिल्कुल भी नहीं ! दरअसल सबल समाज और भाषाएँ इस सबके लिए जिम्मेदार हैं। लोकतंत्र में इन भाषाओं के बचने,बढऩे के पूरे अवसर होना चाहिए थे। नहीं रहे। देश विदेश में कई कई जनजातियॉं है जिनके बस नाम भर शेष बचे हैं । भारिया और सहरिया दो नाम तो अपने आसपास के ही हैं। इन जनजातियों की भाषाएॅं  समय के किस क्षण में मौन हो गई, एकदम से घुप्प! क्या इसे किसी ने दर्ज किया? वर्षो से मैं यही सब दर्ज करने की चेष्टïा कर रहा हॅंू । 'सेकेंडरीÓ कार्य कहलाये जाने के बावजूद। बावजूद इसके कि बाजार में बिकने वाला यह काम नहीं है। मुझे लगता है आत्मीय रिश्ते और सरोकार बाजार में कभी मिले भी नहीं !

गुरुवार, 30 सितंबर 2010

30 सितम्‍बर 2010 का दिन

30 सितम्‍बर 2010 का दिन दहशत जिज्ञास और बोरियत से भरा दिन रहा । सुबह सब्‍जी लेने गया तो घंटाघर के पास पुरानी सब्‍जी मंडी में दो तीन दुकाने ही खुली थी मुझे लगा आज शायद सब्‍जी कम आई होगी । मैं नई सब्‍जी मंडी पहुंचा वहॉं भी पूरी मंडी में केवल दो तीन दुकाने खुली थी । सड़कों पर लगभग सन्‍नाटा था । आम दिनों में देर रात तक खुली रहने वाली पान दुकाने भी बंद थी । रास्‍ते में जो भी मिल रहा था अजीब सी दहशत चिंता और जिज्ञासा से भरा था । महेश पान वाले से रास्‍तें में मैंने पूछा क्‍या आज पान भी नहीं खिलाओगे । रीगल स्‍टूडियो वाले अशफाक के चाचा ने यह सुन लिया वे भी बोले पान तो खिलाना चाहिए । महेश ने बताया कि वह खाना खाने घर जा रहा है मैंने कहा तब रहने दो पर वह जिद पर अड़ गया नहीं आपके लिए तो दुकान खोलकर पान लगाऊंगा । मैंने बहुत समझाया पर वह अड़ गया कि आपने पहली बार तो ऐसे कहा है वह जिद करके दुकान पर ले गया । उसने कहा शाम का कोई ठिकाना नहीं दो चार बंधवा भी लो । इतने में खालिक जो मेरे खेड़ीपुरा के घर के सामने रहता था ने केवल मेरा बालसखा रहा उसके परिवार से तीन पीढि़यों के रिश्‍ते थे वह मेरी नानी के गॉंव बिछौला का रहने वाला था उसके पिता नूर मोहम्‍मद और चाचा मंगा को हम इसी कारण मामा कहते थे । अब तो खालिक के अब्‍बा नूरू मामा भी नहीं रहे । पर मेरी नानी के निधन के बाद वे भी नर्मदा किनारे हंडिया तक गये थे यह मुझे अच्‍छे से याद है । खालिक पता नहीं आज क्‍यों इतनी तेजी से निकल गया कि मुझे अचरज और अच्‍छा नहीं लगा । सुबह गांव से जहूर का फोन आया कि भैया सुना है हरदा में कफ़र्यू लग गया है मैंने पूछा कौन बेवकूफ ने कहा । वह वोला ऐसा सुना है । मैंने समझाया यह महज अफवाह है । उसने भी कहा भैया अपना ख काई लेनू देनू । सब फालतू की बात थी । यह जहूर वही है जिसके दादा भारत विभाजन के समय गॉंव छोड़कर जाना चाह रहे थे और मेरे दादा स्‍व0 रामशंकर पटेल ने उन्‍हें न केवल रोका छह माह तक अपने घर में भी रखा । शक सुबहे का माहौल पिछले कई दिनों से चल रहा था । शाम को मैं पलासनेर अजातशत्रु के गांव ज्ञानेश चौबे और नरेन्‍द्र शर्मा नेव्‍हर फैल के साथ चला गया । दो घंटे हम पलासनेर में ही रहे । अजातशत्रु ने हमें लता मंगेशकर का सोलह वर्ष की उम्र में फिल्‍म बिहारी के लिए गाया गीत सुनवाया । शहर में सन्‍नाटा कुछ कम हो रहा था । पर वह रौनक नहीं आ पाई थी । मुझे आज जितनी बेचैनी रही जीवन में कम ही आई । पिछले कुछ दिनों से अपना निशाचर स्‍वभाव भी छोड़ चुका हँू । बारह बजे तक सो ही जाता हँू । आज पुराने साथी और मेरे कॉलेज की जनभागीदारी समिति के अध्‍यक्ष राजेश वर्मा के साथ रात के एक बजे तक रेल्‍वे स्‍टेशन पर बैठा दुख सुख की बाते करता रहा । पूरी रेल्‍वे स्‍टेशन खाली थी जो रेल गई वह भी पूरी खाली थी । बहुत सारा सामान लेकर एक नव युवा आया वह अपने आपको पंजाब का सैनिक बता रहा था और नागपूर जाने के लिए कोई मदद मांगने लगा हमने उससे कहा नागपूर के लिए फिलहाल कोई गाडी नहीं है । आप कहीं रुक जाओ पर वह कहने लगा कितने भी पैसे लग जाये पर आज और अभी ही जाना है वह नशे में भी था उसको कोई कुली भी नहीं मिल रहा था न कोई मदद । आखिर एक आटो वाला उसको बाहर ले ही गया । मैंने हरदा रेल्‍वे स्‍टेशन को इतना सुनसान कभी नहीं देखा था । मेरे शहर मेरे शहर की सड़कें और लोगों को इतना बे रौनक और अनमना मैंने कभी नहीं देखा था । मैं अपने शहर को इस हाल में कभी नहीं देखना चाहता । रात के डेढ़ बज रहे हैं मुझे नींद नहीं आ रही अपने खजाने में कुछ पुराने फोटोग्राफ देख रहा हँू । एक फोटो कला गुरु विष्‍णु चिंचालकर के साथ का है जब वे हरदा आये थे एकलव्‍य संस्‍था के बुलावे पर । दूसरा फोटो बाबा नागार्जुन के साथ का है जब वे एकलव्‍य के केन्‍द्र निदेशक अनवर जाफरी से मिलने हरदा आये थ्‍ो और एकलव्‍य में दो तीन दिन रुके थे । यह समय संभवत: 1990 का है । बीस साल पहले का ।

शनिवार, 5 जून 2010

वन्‍य जनजातियों कोरकू और गोंड के अध्‍ययन के दौरान भी कतिपय वन ग्रामों में उनसे भेंट होती रही थी । चाहकर भी मैं उन पर गौर नहीं कर पाया । हालॉंकि मेरी एक कृति रायसल का नायक और  प्रमुख पात्र रायसाजी और धनाजी स्‍वयं गवली जाति के हैं । लंबे ,गौर वर्णी, लंबी नाक और छरहरी काया जो लगातार पैदल चलने के कारण होती है के मालिक गवली आज भी बैतूल ,खंडवा ,होशंगाबाद और हरदा के कुछ वन ग्रामों में निवास करते हैं । जनजातियों के बीच रहने वाले लोग विशुद्ध पशुपालक हैं । सौ दो सौ से लेकर हजारों की संख्‍या में भी इनके पास गाय बैल भैंस होते हैं । वनों में जब सरकारी सख्‍ती नहीं थी इनके पशु मजे से चरते थे । नदियों में पानी भी उपयोग भर मिल जाता था । अब हालत ऐसे नहीं है । गर्मी के दिनों में तो और भी खराब । यही गवली लोग अपने पशुओं को लेकर मैदानी गाँवों में आ जाते हैं । गेंहूँ के कटे हुए खेत में पशुओं का पेट भरता है तो कोई समझदार किसान गोबर या गौ सेवा के लोभ में अपने खले में इनको डेरा भी डाल लेने देता है । धोती कमीज कंधे पर कॉंवड जिसके दोनो सिरे पर कभी पीपे बंधे होते हैं साथ ही कंबल और कुछ जरुरी सामान । कभी कॉंवड के दोनों सिरो पर दौणी जिसमें दहीं भरा होता है । इनकी पहचान है । ये लोग संत सिंगाजी के भजन गाते हैं । जनजातियों के बीच रहकर भी अपेक्षकृत शार्प प्रकृति के । कुछ अक्षर ज्ञान के भी मालिक । मुझे इन्‍हें देखकर बचपन में पढी बाते याद आती है कि प्राचीन आर्य पशुपालक थे । क्‍या भारत में यही गवली लोग अब आर्यो के अंतिम अवशेष हैं । मन में यह विचार आता है । नहीं जानता कितना तर्क संगत है ।ये लोग सिंगाजी के भक्‍त हैं । गाय बैलों को कसाई को नहीं बेचते । कभी गाय बैल को बॉंधते भी नहीं । गायों को तो प्राय: दुहते भी नहीं । बडी ख्‍वाहिश है कि इन पर भी कुछ काम किया जाये । पर जिंदगी अब मोहल्‍लत कहॉं देती है । है कोई जो इनपर डूब कर काम करे । शायद काल किसी को मौका देगा ।

शुक्रवार, 28 मई 2010

यह कौन सा पक्षी है भाई

आज जब गांव पहुंचा लगभग साढ़े पॉंच बज रहे थे । खले में जहूर और गणेश तार फेंसिंग का काम कर रहे थे । रामनारायण उर्फ काका भी वहीं था । इधर उधर की बात के बाद मैंने काका से कैमरा लाकर देने का कहा । तीन दिन पहले यहीं भूल गया था । शायद मेरी बात कोई सुन रहा था । सू बबूल के ऊपर जैसे ही मेरी निगाह गई मैंने गणेश कोरकू से पूछा यह कौन सा पक्षी है । जहूर और गणेश नाम याद करने लगे । रामनारायण के हाथ से मैंने कैमरा लेकर उसक तीन फोटो निकाले और वह उड़ गया । गणेश, जहूर, और काका नाम खोज ही रहे थे कि अशोक गौर भी आ गया । वे सब बताने लगे कि यह पक्षी छोटी छोटी चिडि़याओं को झपट कर खा जाता है । उस पक्षी के शरीर में गोश्‍त बिल्‍कुल ही नहीं था । पर चोंच दरांती की तरह थी और बदन छरहरा था । कुछ भूरे काले रंग का । मैं जल्‍दी ही निकल पड़ा । आज नरवाई जलाने की बारी शायद मेरे ही गांव वालों की थी । दूलिया से निकलते ही मोहनपुर के पहले के खेतों में नरवाई जलना शुरु हो गई थी । मैं नरवाई जले हुए खेत देखकर निकलता जा रहा था । नरवाई से जले हुए लांगे और पेड़ दिख रहे थे । मुझे लग रहा था मानों किसानों ने स्‍वयं अपने ऊपर बम फेंकना शुरु कर दिया है ।खेत दर खेत के लांगे गोये तक जले पडे थे । गहाल की नहर के पास एक दुकान है । चाय पान की । मैंने पान खाने का मन बनाया इतने में एक नेवला दिखा  अंधेरा शुरु होने ही वाला था । मैंने बहुत कोशिश की पर नेवले की फोटो नहीं ले सका । मैंने दूर तक उसका पीछा किया । नेवला हर बार भाग जाता फिर मुडकर मुझे देखता । शायद मेरी असफलता पर हँसता था ।

सोमवार, 24 मई 2010

मरते हुए पंछी जलते हुए शजर

नौतपा कल से प्रारंभ होगा । मुकेश पान वाले की दुकान पर चर्चा थी कि आज का तापमान 46 डिग्री था । पत्रकार दीपक दीवान के अनुसार कल 46 डिग्री तापमान था । असलियत जो भी हो गर्मी असहनीय थी । दोपहर में जैसे ही घर से निकल रहा था , पोर्च में एक नीलकंठ आकर गिरा थोडी देर तड़पा फिर नीचे पड़े पानी से शायद उसे राहत मिली होगी वह संभल कर उड़ गया । रात को जब गांव से लौट रहा था , लल्‍लू सर के घर ओटले पर संतू भैया पंडित और पप्‍पू भैया बैठे हुए मिल गये , इधर उधर की बातों के बाद संतू भैया ने बताया कि उनके गांव रिजगांव में तोते मरे हुए मिल रहे हैं । यह तो होना ही है । कल शाम को जब गांव से लौट रहा था मोहनपुर में नहर से उत्‍तर दिशा के खेतों में नरवाई जल रही थी । दो कोस आगे गहाल और धुरगाड़ा के बीच में भी कुछ खेतों में नरवाई जल रही थी । एक तो प्रकृति का प्रकोप दूसरा जलती हुई नरवाई जिसमें इस बार नया  चलन डेढ़ सौ वर्ष तक पुराने पेड़ों को भी जलाना । आखिर ये बेचारे पंछी कहॉं जायें । कैसे बचें । श्राद्ध पक्ष में कौऐ नहीं मिलते और गांव के मृत जानवरों को खाने वाले गिद्ध नहीं दिखते । ऑंगन में फुदकने वाली चीड़ी बाई बहुत कम हो गई । क्‍या ऐसे ही । हम पूंजी की जिस हवस में भाग रहे हैं और प्रकृति का जैसा उपभोग याने विनाश कर रहे हैं वह हमारे अस्तित्‍व तक पहुंच रहा है । नरवत के गीतों में बच्चियॉं गाती है- अनसट कांटू वनसट काटूं, यो महुओ नी काटूं, यो महुओ म्‍हारा बीरा न लगायो । वीरा अर्थात भाई के लगाये महुए काटना तो छोडि़ए हम जला रहे हैं । मैं क्‍या कर सकता हँू यह सोचते हुए मैंने अपने खले में इक्‍कीस पेड लगाने की तैयारी की है । गांव में ग्‍यारसराम और जहूर को भी पौधे दूंगा वे भी पेड लगायेगें । दस बीस और लोगों से बात की है । राजनारायण ने भी आश्‍वासन दिया है । सोचता हूं मेरा गांव एक दिन हरा भरा होगा । मेरे आजा के आजा ताराचंद पटेल जिन्‍हें गांव में दाजी बाबा के नाम से जाना जाता है, ने भी गांव में पे ड लगाये थे । उनके लगाये पेड आज भी कुछ संख्‍या में बाकि हैं । गांव से लौटकर यह डायरी लिखने बैठ गया हँू । बहुत थक जाता हॅू । हरिमोहन और दिनेश यादव के मिस कॉल आ रहे हैं । वे गाली दे रहे हैं । अब उनसे कल ही मिलूंगा ।

बुधवार, 19 मई 2010

आज शाम को गांव जाने का तय तो नहीं था । फिर भी चला गया । शहर में पारा लगभग 45 या ऊपर ही रहा होगा । हरदा में तापमान बताने वाली कोई अधिकृत एजेसीं तो नहीं है आसपास के शहरों खंडवा, होशंगाबाद भोपाल से ही अनुमान होता है । बहरहाल, गांव गया । पेड़ लगाने के लिए जो गड़डे करवायें हैं वहॉं फेंसिंग करवाने के लिए जहूर से बात की । अनूपसिंह अर्थात अनोप ने उपयोगी सलाह दी । पता नहीं क्‍यों गांव से शहर लौटने का मन ही नहीं करता । आजीविका की जरुरत नहीं होती तो शायद कभी शहर नहीं लौटता । धीमी गति से मोटरसाईकल बढाई । पुरखों ने अपने परिवार के लिए एक मंदिर बनाया था । पुजारी वहॉं बैठा था चुपचाप । पता नहीं क्‍यों । उससे दुआ सलाम हुई आगे शिवपरसाद मिला । उसने भी कहा - भैया अब जल्‍दी निकलो रात हुई जायगी । मैं हरदा की तरफ बढा । कनारदा के पास आज भी नरवाई जल रही थी । इस बार किसानों ने एक नया काम किया है । नरवाई के साथ बूढे बडे बडे पेड़ों को भी जलाने का । एक दिन मैंने अपने गांव में ही जसवंत से पूछा था उसने बडी ही सहजता से उत्‍तर दिया कि अब - खान वाला गंज हुईगाज, आरु खेती थोडी थोडी । एका लेन लोग हुन झाड भी जलई रहयाच । मुझे समझ नहीं आता कि इतने उपयोगी पेडों को जलादेने से उनकी उत्‍पादकता कितनी बढ सकती है । क्‍या वाकई पेड हमारे जीवन के लिए ही खतरा बन गये हैं । बिल्‍कुल नहीं । ये किसान जिन्‍हें धरम की राजनीति करने वाले बडा सच्‍चा हिन्‍दू बताते हैं क्‍या सचमुच धरम करम जानते भी हैं । ये गौ माता के पूजक , ये आवला नवमी मनाने वाले , ये जल की पूजा करने वाले ये बरगद, आम ,पीपल ,लीम जामुन खाखरे को पूजने वाले और वृक्षों से ढेरों दवाई बनाने वाले कैसे होते जा रहे हैं । क्‍या इनका धरम पर से विश्‍वास घट रहा है । बचपन से ही मोहनपुर और गहाल के बीच एक इमली का पेड दिखता था । बचपन में सुनी कथाओं में इस पेड पर भूत रहते थे । रात में जब मैं बैलगाडी से यहॉं से निकलता था मारे डर के आंख मीच लेता था । आज वह पेड भी अधजला मिला । पता नहीं अब भूत कहॉं रहेगें । क्‍या गांव में ही आ जायेगें । क्‍या गांव में ही रहने लगेगें । फिर गांव वाले कहॉं जायेगें ।

सोमवार, 17 मई 2010

आज फिर गॉंव

कॉलेज से पॉंच बजे निकलना हुआ । बहुत तेज गर्मी थी । कल से भी ज्‍यादा । रोहिणी नक्षत्र लगने में तो अभी देरी है । पर ऐसी विकराल गर्मी संभवत: मैंने भी पहली बार देखी है । ज्ञानेश चौबे से कल ही बात हो गई थी कि यदि मेरा दूलिया जाना हुआ तो आप भी चले चलना । दरअसल ज्ञानेश चौबे प्रसिद्ध गांधीवादी सर्वोदयी दादाभाई नाईक अर्थात दत्‍तात्रय भीखाजी नाईक पर पुस्‍तक लिखना चाह रहे हैं । वे मोहनपुर के थे । मोहनपुर और मेरा गांव दूलिया बिल्‍कुल सटे हुए हैं । दादाभाई नाईक के विषय में जब भी सोचता हँू तो लगता है हरदा की पद प्रतिष्‍ठा और धन लोलुपता की राजनीति में यह विलक्षण आदमी अनचीह्ना ही रह गया । जब गांधी सत्‍ता की राजनीति को समझ गये थे और उन्‍होंने रचनात्‍मक कार्यो की ओर तवस्‍वी कार्यकर्ताओं को मोडना शुरु किया था दादाभाई नाईक उन लोगों में थे जिन्‍होंने चुनावी राजनीति को त्‍याग दिया । वे बाद में जीवन पर्यंत रचनात्‍मक कार्यो से जुडे रहे । अपने जमाने में वे बहुत लोकप्रिय थे । आजादी के पहले के चुनावों में वे भारी बहुमत से जीतते रहे । बाद में सर्वोदय और भूदान से जुडे रहे । इंदौर का विसर्जन आश्रम उनके कार्यों का एक उदाहरण है । सोचता हूं ज्ञानेश चौबे को यह क्‍या सूझी आज का कोई चालू तिकडमी लेखक होता तो लिखने के लिए ऐसे किसी राजनीतिज्ञ को चुनता जिससे लाभ ही लाभ मिल जाते । कम से कम अच्‍छी जगह पोस्टिंग, कहीं दुकान ,मकान या प्‍लाट या रुतबा तो मिल ही जाता ।परलोक का तो नहीं पता पर यह लोक तो सुधर ही जाता । अब दादाभाई को हरदा में बहुत कम लोग जानते हैं । उनको याद करने से किसी को भला क्‍या मिलना है । न चुनाव में टिकट न पद । दादाभाई नाईक किसी को लाभ पहुंचाने की दशा में नहीं है । उनका कोई पु्त्र या पुत्री भी राजनीति में नहीं है । पर ज्ञानेशजी ठहरे । मोहनपुर उनकी यह दूसरी यात्रा थी । पहली में वे सबसे पहले दादाभाई के प्रिय ग्रामवासियों से मिले । वे सब दलित थे । आज भी कुछ बुजुर्ग हैं जिन्‍होंने दादाभाई की प्रेरणा से वर्षो तक चरखे पर सूत काता । वस्‍त्र बुने । दुर्गाशंकर धार्मिक के पिताजी ने बहुत सी जानकारी दी । मोहनपुर में अभी बीस साल पहले तक भी चरखे चलते रहे । अब चरखे मौन हो चुके हैं । कुछ घरों में टूटे फूटे चरखे पडे हैं । आज दादाभाई का पैतृक घर देखा । उनके जिराती से मुलाकात हुई । गॉंव के और भी लोग आ जुटे । दादाभाई ने सत्‍तर एकड जमीन भूदान में दी थी । उनके हाथों लगे पेड देखे । दादाभाई हरदा जिले में संभवत पहले राजनैतिक कार्यकर्ता थे जिन्‍होंने हरिजनों के लिए कुओं से पानी लेना प्रारंभ करवाया । पहले के सामंती सोच में यह कहॉं संभव था । दादाभाई ने अपने आसपास के लोगों को खूब बाग बगीचे लगाने को प्रेरित किया । मेरी खुद की जाम बाडी उनकी प्रेरणा से ही दादाजीश्री रामशंकर पटेल  ने लगाई थी । दादाभाई ने गांव में स्‍कूल भी खुलवाया था । ज्ञानेश चौबे उनके घर के प्रांगण में खडे होकर ध्‍यानस्‍थ हो गये । मैंने जब पूछा तो बताने लगे यहॉं आकर कुछ अलग ही अनुभूति हो रही है । लगता है वे दादाभाई के रचनात्‍मक कार्यो उनकी गांधीयन दृष्टि के देश काल में पहुंच गये । दादाभाई का जीवन त्‍याग का जीवन था । उन्‍होंने अपनी एम बी बी एस की पढाई बंबई में अधूरी ही छोड दी थी । देश को उनकी  जरुरत थी । हरदा आ गये । जब राजनीति धन और कदाचार की करवट लेने लगी । लोग मलाई खाने लगे । दादाभाई ने फिर त्‍याग किया । चुनावी राजनीति ही त्‍याग दी । आज कितने विधायक मंत्री और नेता है जो अपने पद को छोडकर रचनात्‍मक और सेवा कार्यो में लगने के लिए तैयार हैं । प्रश्‍न गहरा है । देखते हैं ज्ञानेश चौबे अपनी पुस्‍तक में क्‍या उत्‍तर देते हैं । अंधेरा हो चुका था । हम दूलिया गये । घर गया । वैसा ही वीरान था । रामनारायण काका ने आज भी पेडो में पानी नहीं डाला था । गाय बैल तो बता भी नहीं सकते थ्‍ो कि उन्‍होंने पानी पीया भी या नहीं । मैंने रामनारायण से पुन: आग्रह किया कि कम से कम एक घंटे तो इस घर में काम कर ही सकते हो । उसने अपने लिए नये मोबाईल की मांग की । मैंने पुन: उससे पानी और साफ सफाई का आग्रह किया । न करता तो भी शायद एक ही बात थी । हे ईश्‍वर उन्‍हें क्षमा करना जो नहीं जानते वे क्‍या कर रहे हैं । बस इसी दुआ को दोहराता हरदा की ओर चल पडा ।

शनिवार, 8 मई 2010

बस कुछ कुछ यूं ही

कॉलेज में इन दिनों परीक्षा चल रही है । इन दिनों क्‍या ज्‍यादातर दिनों से परीक्षा ही चल रही है । नये साल की शुरुआत सेमेस्‍टर परीक्षा से और अब स्‍वाध्‍यायी वार्षिक पद्धति वाले विद्यार्थियों की । सुबह छह साढ़े छह के बीच कॉलेज जाता हॅू । साढे दस ग्‍यारह तक घर लौटता हॅू । फिर साढे बारह एक बजे से कक्षाऍं लेकर तीन बजे से परीक्षा में जुट जाता हॅू दूसरी पारी की । घर तक आते आते सात बज जाते हैं । थककर निढाल । आठ नौ बजे से दोस्‍तों से चर्चा बातचीत और बीती रात को पढी गई जानकारियों का आदान प्रदान । यह चलता है ग्‍यारह बजे तक । फिर अपना कम्‍प्‍यूटर इंटरनेट । संग्रहित ढेरों सामग्री जिनमें कोरकू, मराठी, उर्दू ,फारसी और अँग्रेजी के हजारों पृष्‍ठों की सामग्री संचयित है, में से किसी एक पर थोडा बहुत काम । मुझे नहीं लगता मेरे पास के इन हजारों पृष्‍ठों , कैसेट ,फोटो आदि का समूचा उपयोग कर पाऊंगा । यह जीवन अब थोडा लगने लगा है । अच्‍छा संदर्भ पुस्‍तकालय भी मेरे लिए सुलभ नहीं है । न शरीर दो बजे रात तक अब काम करने की इजाजत देता है । क्‍या होगा इस सामग्री का ।यह चिंता कभी कभी बेचैन करती है । मेरे पास कोरकू जनजाति और स्‍वतंत्रता आंदोलन , आंचलिक इतिहास ,लोक संस्‍कृति संबंधी ढेरों सामग्री है । इन्‍हें प्रकाशन योग्‍य कब बना सकूंगा स्‍वयं ही नही जानता । इस बीच दो चार और कामों में पांव फंसा रखा है । ज्ञानेश से बडी मुश्किल से हरदा संबंधी संस्‍मरणों की किताब और अर्चना भैंसारे से लोक कलाकारों के जीवन और शैली पर भी काम में सहयोग कर रहा हँू । किस हद तक यह तो ये लोग ही स्‍वयं दर्ज करेगें । अभी मेरी बडी ख्‍वाहिश है कि गांधीजी के रचनात्‍मक कामों के अभिन्‍न साथी सर्वोदयी दादा भाई नाईक अर्थात दत्‍तात्रय भीकाजी नाईक पर भी हरदा से एक पुस्‍तक प्रकाशित हो । यह अच्‍छी बात है कि ज्ञानेश चौबे की इसमें रुचि बढी है । अर्चना ने भोपाओं पर कुछ काम किया है और लखेरों - शीशगर पर भी कुछ कर रही है । पर सचमुच थका हुआ हँू । कुछ हताश भी । आज कॉलेज से छु‍टटी लेकर फिर गॉंव गया था । वक्‍त रहा तो कल उसपर--------

गुरुवार, 6 मई 2010

गांव के घर की याद

बाहेती कॉलोनी के घर में आये हुए अब चार साल पूरे हो जायेगें। जन्‍म मेरा जरुर हरदा में खेडीपुरा वाले मकान में हुआ हो बचपन के तीन चार वर्ष अपने गांव दूलिया में ही बीते । और जब तक एम ए किया प्रत्‍येक वर्ष गर्मी के दो माह और दीपावली के आसपस का एक माह दूलिया में ही बीता । 1988 से मेरा जाना लगातार कम होता गया । कम से कमतर मॉं के नहीं रहने के बाद 2005 से  तो अक्‍सर ऐसा ही हुआ कि कभी गांव गया भी तो घर का ताला भी नहीं खोला । खले और खेत में घूमकर ही चला आया । घर में कपोली ,कबरबिज्‍जू, गोयरा ,कोबरा, ,नेवलों ,चूहों, उदबिलाव ,कबूतर,होलगी न जाने किसकिस ने अपना आवास बना लिया । किसी का ठिकाना पुराना तलघर तो किसी ने तिजोरी में अपनी जगह बनाई । कुछ आखिरी मंजिल पर निर्द्वन्‍द रहने लगे । छिपकलियॉं दीवारों में गड़े घड़ों में रहने लगी । कपोलियों को अंधेरा और ठंडा घर खूब रास आया । कई बार मेरा मन भी होता कि घर खोलकर साफ सफाई करवाऊं । एकाधिक बार ऐसा किया भी । पर लंबे अंतराल तक फिर घर बंद रहा । धीरे धीरे मुझे भी लगा कि मैं जरुरत न होने पर भी इन जीवजंतुओं के जीवन में खलल डालता हँू। इस घर से मेरी स्‍मृतियॉं बहुत गहरी जुड़ी हुई हैं । अब भी जब मुझे सपने आते हैं सपनों  में या तो मैं खेडीपुरा हरदा के घर में होता हँू या दूलिया गॉंव के इस पैतृक घर में । ऐसा क्‍या है कि मैं चलता फिरता बोलता हँसता दूसरे भूगोल में हँू और मेरे विचारों मेरी स्‍मृतियों मेरी कसकती रुह में ये घर इनका वातावरण यहॉं बिताये हर्ष विषाद के क्षण पिघलते रहते हैं । अभी पिछले दिनों दूलिया गया था । अब घर में दूसरा आदमी रामनारायण काका रख दिया गया है । पर रहता वह भी नहीं । पीछे ऑंगन में दरो दीवार पर सब्‍जा ऊंग आया है । मॉं के हाथों लगे पेड पौधे सूख रहे हैं । बैल कसाई के घर न जाये इस ख्‍याल के चलते पिताजी ने बैलों को जोखीलाल शिवपरसाद गाडरी को दान कर दिये ,मजे की बात है कि अब वो बैल उसने भी शायद लालच में किसी को बेच दिये । गायों को तो मैं खुद दो बार गौशाला में छोड आया था । अब शायद एक गाय और एक भैंस बची है । इसलिए कि इन्‍हें बेचा तो ये कसाई के घर चली जायेगी । जो भी आदमी इनकी देखभाल के लिए रखा जाता है वह लापरवाही और कामचोरी के चलते इनकी देखभाल नहीं करता । पिछला वाला कमल तो गजब का था । तीन कोठियों में भरा दाना उसने पशुओं को नहीं खिलाया । कभी पानी पिलाया और कभी नहीं । कुछ मर गये कुछ बीमार हो गये । कोठी में रखा दाना सड़ गया । नौ टाली भूसा घर में भरा जाता है जिसमें कुछ जानवर भी नहीं पल पाते । चोरों ने घटटी के पाट , ऊखल, मूसल और रंई चुरा ले गये । किसी ने पीतल के बांट तो किसी ने टापुर ढोनी घुंघरमाल निकाल लिया । किसी को गाडी का आखा पसंद आया तो वह ले गया । किसी के घर में गड़गड़ी की कमी थी पूरी कर ली । अडोसी पडौसियों भाई बंदों को अपने हिस्‍से की जमीन कम लगती है तो वे बागुड हाथ दो हाथ सरका लेते हैं । कोई चाहता है कि हमारे पैत़ृक आम वह कब्‍चा कर ले । सोचता हँू कि क्‍या यह लोक कहावत सचमुच सही है कि जर जमीन जोर की नहीं तो किसी और की । जब तक गांव में पुरखों का रोब दाब था सब कुछ ठीक था । सामंती समय था । काफी शक्तियॉं हाथ मे थी ऐसा सुना है । घर पर कचहरी थी उसी में न्‍याय होता था । क्‍या हम लोग सचमुच आतंक से ही अनुशासित होते हैं । क्‍या नैतिकता का कोई अनुशासन नहीं होता । खैर गांव का घर अब भी सपनों में बहुत आता है । अब मैंने घर से लगे ऑंगन और खले में आम नीबू कटहल के पौधे लगाने का सोचा है । ये वृक्ष सबको ही सुख देगें । मेरे नहीं रहने के बाद भी । इस धरा को भी । इस दुनिया को भी । मेरे घर में विचरण करने वाले जीव जन्‍तुओं को भी । मेरे घर से सामान चुराने वाले मेरे गांव वालों को भी । ईश्‍वर सबको छांव दे । सबको खुश रखे । गांव के घ्‍ार की कुछ फोटो जोड रहा हँू । 

शनिवार, 2 जनवरी 2010

हर बार नये साल की तरह

हर बार नये साल की तरह
 लंबा समय हुआ कविता नहीं लिखी । दो कविताऍं डायरी में बची थी ।

(एक)
लौैटकर आना चाहता हूं
बार बार इसी धरती पर
इन्हीं इन्हीं लोगों के बीच
इन्हीं गांवों इन्हीं मैदानों
इन्हीं दुख सुख मित्रता शत्रुता
रिष्तों नातों के बीच

अबके जाऊॅंगा तो जाऊंगा
जाता रहा हॅंू सदियों से यूं ही
आना चाहता हॅंू मैं तो यहीं यहीं
घूमा हॅंूूं दिग दिगन्तर
अंत अनन्तर
पर मेरे भीतर
भीतर
भीतर
बस
यही यही भीतर ।

यहीं कहीं तो छुपा है मेरा प्यार
यहीं तो रहे सब मेरे यार
अतृप्त असंतुष्ट यहीं कहीं छूटी है मेरी
जवानी
यही रहा है मेरा लीलांगन
यहीं होती रही है शेष मेरी
जिंदगी ।

हर बार यहीं लौटना चाहता हॅंू
पूरी ताकत से
जैसे दौड़ता था मैं बचपन में माॅं के
पास ।

जैसे तमाम जंगल के सफाये के बाद

किसी साल सालों बाद
बारिष में
अंकुरित हो जाता है
किसी बागुड़
किसी लांगे
किसी गोये
किसी गढ़वाट
किसी मेड़ पर
कोई पुराना पेड़

मैं लौटता रहूंगा

हर बार नये साल की तरह ।

धर्मेन्द्र पारे
(20/9/09)




( दो )

यहीं कहीं
बिखरे हैं मेरे पुरखे
पुरखों के भी पुरखे
यहीं कहीं हैं मेरी माताएॅं
सती
उनकी अस्थियाॅं ही
ऊर्जा है इस धरा की ।

लौटूंगा एक दिन
बहुत दूर
देष दूर
समय दूर
काल दूर से
लौटंूगा एक दिन
देखंूगा एक दिन
देखूंगा अब मेरे पुरखों के घर मंें
कैसे रहता हॅंू मैं
मेरी माॅं जिन जगहों पर रोपती थी
हर साल
फलदार पौधे, गिलकी लौकी बल्हर
कद्दू मेथी पालक
उन जगहों पर क्या है अब ।

बंधती थी जिस जगह गाय केड़ा केड़ी
अब क्या है वहाॅं
चुपके से देख जाऊंगा
किसी तारों भरी रात किसी भूतड़ी अमावस पर
आऊंगा जरुर आऊंगा

सब कुछ भी..त..र...
तक भर लिया है मैंने
अपने प्यारे संसार को
मूर्त न सही अमूर्त ही
यह नहीं होगा विनष्ट
दरअसल यही है जो
होता नहीं विनष्ट

किसी दिन आऊंगा
देषी आम की कैरी बनकर
किसी सदी में हो सकता है
आऊॅं
रंभाती गाय बनकर
चिड़िया का घोंसला बन सकता हॅंू
किसी सुबह नाथ महाराज का गीत बनकर
बच्चों के भौरों की शक्ल
भी हो सकती है मेरी
आऊंगा जरुर आऊंगा
मेरा आना कोई
नहीं रोक सकेगा !

धर्मेन्द्र पारे
(20/9/09)