शनिवार, 5 जून 2010

वन्‍य जनजातियों कोरकू और गोंड के अध्‍ययन के दौरान भी कतिपय वन ग्रामों में उनसे भेंट होती रही थी । चाहकर भी मैं उन पर गौर नहीं कर पाया । हालॉंकि मेरी एक कृति रायसल का नायक और  प्रमुख पात्र रायसाजी और धनाजी स्‍वयं गवली जाति के हैं । लंबे ,गौर वर्णी, लंबी नाक और छरहरी काया जो लगातार पैदल चलने के कारण होती है के मालिक गवली आज भी बैतूल ,खंडवा ,होशंगाबाद और हरदा के कुछ वन ग्रामों में निवास करते हैं । जनजातियों के बीच रहने वाले लोग विशुद्ध पशुपालक हैं । सौ दो सौ से लेकर हजारों की संख्‍या में भी इनके पास गाय बैल भैंस होते हैं । वनों में जब सरकारी सख्‍ती नहीं थी इनके पशु मजे से चरते थे । नदियों में पानी भी उपयोग भर मिल जाता था । अब हालत ऐसे नहीं है । गर्मी के दिनों में तो और भी खराब । यही गवली लोग अपने पशुओं को लेकर मैदानी गाँवों में आ जाते हैं । गेंहूँ के कटे हुए खेत में पशुओं का पेट भरता है तो कोई समझदार किसान गोबर या गौ सेवा के लोभ में अपने खले में इनको डेरा भी डाल लेने देता है । धोती कमीज कंधे पर कॉंवड जिसके दोनो सिरे पर कभी पीपे बंधे होते हैं साथ ही कंबल और कुछ जरुरी सामान । कभी कॉंवड के दोनों सिरो पर दौणी जिसमें दहीं भरा होता है । इनकी पहचान है । ये लोग संत सिंगाजी के भजन गाते हैं । जनजातियों के बीच रहकर भी अपेक्षकृत शार्प प्रकृति के । कुछ अक्षर ज्ञान के भी मालिक । मुझे इन्‍हें देखकर बचपन में पढी बाते याद आती है कि प्राचीन आर्य पशुपालक थे । क्‍या भारत में यही गवली लोग अब आर्यो के अंतिम अवशेष हैं । मन में यह विचार आता है । नहीं जानता कितना तर्क संगत है ।ये लोग सिंगाजी के भक्‍त हैं । गाय बैलों को कसाई को नहीं बेचते । कभी गाय बैल को बॉंधते भी नहीं । गायों को तो प्राय: दुहते भी नहीं । बडी ख्‍वाहिश है कि इन पर भी कुछ काम किया जाये । पर जिंदगी अब मोहल्‍लत कहॉं देती है । है कोई जो इनपर डूब कर काम करे । शायद काल किसी को मौका देगा ।