गुरुवार, 17 अक्तूबर 2013

हरदा की यात्रा लोकजीवन की यात्रा
साल सवा साल से भोपाल में हूँ । दशहरे का अवकाश मिला तो हरदा जाना हो गया । हरदा गया तो फिर अपने गॉंव दूलिया भी जाना हो गया । इस बार बारिश दशहरे के एक दिन पहले तक होती रही । मुझे अपने गॉंव जाने के लिए सिराली होकर जाना पडा । पहले तो मन में कोफ़्त थी पर कमताडा गांव आते आते मन आह्लाद से भर उठा । कुछ बालकाऍ ' नरवत ' विर्सजन के लिए जा रही थी । बच्चियों का परिधान तो पूरा बदल चुका था किंतु परंपरा बहुत हद तक शेष दिख रही थी । बहुत आग्रह करने पर उन्‍होंने पचास रुपये की मांग करते हुए दो गीत सुनाये । अब नरवत के गीतों में भी परिवर्तन हो रहा है । नरवत अर्थात नर के लिए व्रत नर अर्थात शिव । आप दोनों गीत संलग्‍न वीडियो में देख सुन सकते हैं ।

 गांव पहुंचा तो जहूर ने बताया सलिता डोकरी याद कर रही है । सलिता बाई से बीस साल पहले मैंने बहुत हलूर सुनी थी । बाडी बखरने की व्‍यस्‍तता के चलते सलिता बाई से मिलना रह ही गया । हॉं गाय की पायगा के पीछे सॉंप की केचुली देखने को मिली । शहर में अब ये नजारे कहॉं ? जब हरदा लौटा तो रास्‍ते में जगह जगह देव को निशान चढाने वाले मिले । एक जगह तो बहुत ही मधुर स्‍वर में गीत गाते हुए कुछ लोग मिल गये । लगे हाथ उनकी भी एक वीडियो क्लिप बना ली । इस बार की यात्रा में इतना ही मिला । मेरा मन ऐसा ही कुछ तलाशता रहता है । शहर में यही खाली पन बन जाता है । 

गुरुवार, 10 अक्तूबर 2013

लोक साहि‍त्‍य- धर्मेन्‍द्र पारे: जनजातीय भाषाओं ज्ञान विज्ञान

लोक साहि‍त्‍य- धर्मेन्‍द्र पारे: जनजातीय भाषाओं ज्ञान विज्ञान: जनजातीय भाषाओं ज्ञान विज्ञान हमारे देश में प्राय: मातृभाषाओं में शिक्षा प्रशिक्षा की बात होती है। जब हम मातृभाषाओं की बात करते हैं त...

जनजातीय भाषाओं ज्ञान विज्ञान

जनजातीय भाषाओं ज्ञान विज्ञान

हमारे देश में प्राय: मातृभाषाओं में शिक्षा प्रशिक्षा की बात होती है। जब हम मातृभाषाओं की बात करते हैं तो हिन्दी या प्रांतीय भाषाओं लोकभाषाओं  की सीमा तक जाकर हमारी वैचारिकता ठहरने लगती है। अक्सर जानजातीय भाषाऍं हमारी चिंता और विवेचना के केन्द्र में नहीं होती । जबकि भारत के लोकतांत्रिक स्वरुप के लिए यह होना बहुत आवश्यक है। आज जनजातीय अंचलों में अलगाव सबके लिए चिंतनीय है। क्या कभी यह सोचा गया है कि जब भी जनजातीय अंचलों में बाह्य परिवेश और विचार लेकर लोग आये उन्होंने किस भाषा में उनसे संपर्क किया ? जी हॉं जनजातीय भाषाओं में ही । अपनी भाषा हमेशा जोडऩे का काम करती है। चाहे मिशिनरीज हों चाहे नक्सलवादी उन्होंने जनजातीय भाषाओं के महत्व को समझते हुए ही अपने कार्यों में सफलता प्राप्त की है। इस छोटी सी किन्तु महत्वपूर्ण बात को गहराई से समझे जाने की आवश्यकता है। पूरे देश में केवल मध्यप्रदेश ही ऐसा राज्य है जहॉं इस दिशा में पहल  हुई है । यह पहल रेडियो स्टेशन, पोथियों से आगे जाकर पाठशालाओं ,विश्वविद्यालयों और स्थानीय शासन प्रशासन तक जाना चाहिए। ऐसा हो सकने पर हम कई अज्ञात ज्ञान विज्ञान से रुबरु हो सकेंगे। प्रदेश में एक जनजातीय विश्वविद्यालय केन्द्र सरकार ने प्रारंभ किया लेकिन खेद है कि उसमें जनजातियों और उनकी भाषा संस्कृति ज्ञान परंपरा पर कुछ नहीं किया जाता  सिवाय इस बात के कि कुछ जनजातीय बच्चों को प्रवेश दे दिया जाता है। यह तो पूरे देश के विश्वविद्यालय कर रहे हैं । ६ जून २०१३ को ही मोहल्ला लाईवनामक ब्लॉग पर चर्चित कथाकार उदय प्रकाश ने हिन्दी  के विषय में बात करते हुए इसी जनजातीय विश्वविद्यालय के बारे में लिखा कि उन्हें लगता  था कि इस जनजातीय विश्वविद्यालय द्वारा उसके कार्यक्षेत्र की हाशिये पर धकेल दी गई  भाषा को संरक्षित करने और उसमें श्क्षिा देने का काम किया जा सकता था किन्तु यह विश्वविद्यालय भी उन्हें अन्य विश्वविद्यालयों की तरह ही लगा।
            जनजातियों की वाचिकता में निहित हजारों गीतों, सैकड़ों कथाओं-पहेलियों, कहावतों-मुहावरों के संकलन सर्वेक्षण तथा पर्वो-त्योहारों, पूजा-अनुष्ठानों को कई गांवों में लंबे समय तक देखने समझने के बाद निष्कर्षात्मक रुप से कहा जा सकता है कि यदि जनजातियों को ठीक ठीक अर्थो में समझा जाना है तो इसकी वाचिकता के अलावा कोई और आधार नहीं हो सकता क्योंकि काल प्रवाह में इन्होंने अपनी संस्कृति, अपनी पहचान कहीं बचाकर रखी है तो वह वाचिकता ही है।  जनजातियो के विषय में आपको प्राय: (गढ़ा मंडला के गोंड अपवाद छोडक़र)कोई शिलालेख नहीं मिलेंगे, कोई ताम्रपत्र और ताड़पत्र नहीं मिलेगें, कोई विरुदावली कोई सनद और अभिलेख नहीं मिलेंगे। रची हुई कोई पुस्तक नहीं मिलेगी। अधिकांश जनजातीय मनुजों को यह ज्ञात नहीं है कि उनके प्रपितामह और प्रपितामही का क्या नाम था? एक दो पीढ़ी पूर्व उनका निवास स्थान क्या था? जीवन स्थितियॉं उन्हें सतत रुप से श्रमरम रखती है । ऐसे में भौतिक संग्रह और संचयन उनके जीवन में कहॉं ? कहॉं सुख और वैभव? किन्तु पूरे वाचिक साहित्य के संकलन सर्वेक्षण और मंथन से एक बात स्पष्ट होती है जनजातियों में यह कभी अभिप्सा भी नहीं रही । वह तो प्रकृति जन्मा है प्रकृति पूजक है प्रकृति में रची बसी है। पेड़ पौधे वनस्पति नदी पर्वत मछली और पंछी पखेरु उसके कुल गोत्र के हैं, उसके सहोदर हैं। वह इन सबका सगा नातेदार है। जनजातीय मनुष्य इतना सरल है जाति पॉंति के झगड़ों में कभी नहीं पड़ा उससे जब किसी ने पूछा कि वह किस जाति का है तो उसने अपनी जाति मनुष्यही बताई।

                        कई जनजातियों की दुनिया में केवल एक से लेकर दस तक ही अंक है उससे आगे बहुत जरुरी हुआ तो उसने बीसका अंक ही अपनाया। अर्थ का और ज्यादा दबाव आया तो फिर सौका पर्याय गढ़ा । इससे ज्यादा नहीं । कोरकू जनजाति में तो एक अक्षर से ही कुछ शब्द बन जाते हैं। डा’(पानी)बो’(चलो), ‘टी’(हाथ) ’(भाभी), ‘मू’(महुआ), ‘बा’(पिता), ‘कीं’(छछूंदर), ‘फा’(लकड़ी का टुकड़ा), ‘बा’(उठना)। कोरकू भाषा में सबसे ज्यादा शब्द दो अक्षरों से बने है । तीन अक्षर वाले शब्द भी खूब उपयोग हुये हैं किन्तु चार अक्षरों से बने शब्द कम है और पॉंच अक्षरों के तो बहुत ही कम। सामासिकता और संधिपरकता  खोजने पर भी नहीं मिलती। सब कुछ जीवन की तरह सादगी से भरा। हिन्दी भाषा के जो लोग यह स्वीकारते हैं कि कठोर वर्णो यथा ट,,,,ड़, ढ़ आदि का शब्दों में कम उपयोग होता है उन्हें एक बार कोरकू तथा अन्य जनजातीय भाषाओं के संसार को  अवश्य ही जानना परखना चाहिए। जनजातीय भाषाओं में निहित ज्ञान विज्ञान की उपेक्षा करने  और महत्व न देने की भूल करना  ऐतिहासिक भूल भी हो सकती है। हमें अवसर मिला है इसे संज्ञान में लिया जाना चाहिए । 

मंगलवार, 8 अक्तूबर 2013

श्री सीताचरण दीक्षित

श्री सीताचरण दीक्षित 
श्री सीताचरण महावीरप्रसाद दीक्षित, हरदा
हरदा की उस शिक्षकीय पीढ़ी के प्रतिनिधि पुरुष श्री दीक्षित ने विद्यार्थियों को आजादी के संघर्ष का वह पाठ पढ़ाया कि आज तक हरदा के शिक्षा जगत में उनका नाम बहुत आदर से याद किया जाता है।  बावजूद इसके उनके विषय में हरदा और हरदा से जाने के बाद की सेवाओं की जानकारी लगभग नहीं के बराबर उपलब्ध है ।  श्री दीक्षित झंडा सत्याग्रह में जाने वाले बहुत कम उम्र के व्यक्ति थे । आपका जन्म 23 अगस्त 1906 को गणेश चतुर्थी के दिन  हुआ। आपकी मॉं का नाम अन्नपूर्णा देवी और पिता का नाम महावीर प्रसाद दीक्षित था । श्री सीताचरण दीक्षित मूलत: कानपुर के पास नरवल नामक गॉंव रहने वाले थे । श्री सीताचरण दीक्षित ज्यादातर अपने  बड़े भाई श्री बलवीर प्रसाद दीक्षित के साथ ही रहे । श्री बलवीर प्रसाद दीक्षित  एक्साइज विभाग में काम करते थे  हरदा में श्री सीताचरण दीक्षित के मामा सुंदरलाल दुबे जो कि अपने समय में दद्दा  के नाम से जाने जाते थे, यहॉं मिडिल स्कूल में हेडमास्टर थे । पं. बेनीमाधव अवस्थी आपके मौसाजी थे । इसी रिश्तेदारी के चलते आपके परिजनों का हरदा आना हुआ ।
            श्री दीक्षित को जीवन में बहुत दुखों का सामना करना पड़ा। उनका पहला विवाह श्रीमती विजया के साथ हुआ जिनके मायके का नाम रामवती था । श्रीमती विजया का सन 1939 में निधन हो गया । उनसे उनकी दो संतान हुई थी । श्री सतीष चंद्र दीक्षित एवं श्रीमती कुसुमलता त्रिपाठी । श्रीमती कुसुमलता त्रिपाठी का निधन अभी दो माह पूर्व ही भोपाल में हो गया । श्री दीक्षित का दूसरा विवाह श्रीमती दयावती के साथ हुआ जिनसे एक बेटी श्रीमती कुमुद ग्रोवर हैं । श्रीमती दयावती के निधन के पश्चात दीक्षित जी ने अपने जीवन साथी के रुप में श्रीमती रत्नमयी देवी को चुना । श्री दीक्षित जब वर्धा में गांधीजी के आश्रम में विद्या मंदिर ट्रेनिंग स्कीम में पढाते थे तब श्रीमती रत्नमयी देवी से उनका संपर्क हुआ था । श्रीमती रत्नमयी देवी की तीन संताने थी । बेटे श्री  जे एन.दीक्षित ने बाद में भारत के विदेश सचिव बन कर नाम रोशन किया । दूसरे बेटे का नाम नरेन्द्रनाथ था । बेटी शारदा मणी देवी वयोवृद्घ हैं और अभी दिल्ली में निवास कर रही हैं । श्री दीक्षित की जीवनसाथी श्रीमती रत्नमयी देवी स्वयं भी मलयालम की बहुत अच्छी रचनाकार रही हैं ।
      स्वयं श्री सीताचरण दीक्षित  जीवन पर्यत लेखन पत्रकारिता और रचनात्मक कार्यो से जुड़े रहे । हरदा से जाने के पश्चात उन्होंने कानपुर में प्रसिद्घ समाचार पत्र 'प्रताप में श्री गणेश शंकर विद्यार्थी और श्री बालकृष्ण शर्मा नवीन के साथ कार्य किया । श्री दीक्षित ने नागपुर टाइम्स में कई वर्ष कार्य किया । उन्होंने कलकत्ता से निकलने वाले 'एडवांस तथा अहमदाबाद से प्रकाशित 'हरिजन सेवक में भी कार्य किया । सन 1934-35 में पं. रविशंकर शुक्ल के संरक्षण में नागपुर से 'महाकौशल नामक समाचार पत्र प्रकाशित हुआ था,उसमें श्री दीक्षित ने संचालन संपादन का कार्य किया था । आप गोवा से निकलने वाले मराठी पत्र 'राष्टदूत के संवाददाता भी रहे । श्री दीक्षित सात भाषाओं के ज्ञाता थे । आपने अपने लेखकीय जीवन का सबसे विराट और ऐतिहासिक अवदान 'संपूर्ण गांधी वांग्मय को प्रकाशित संपादित कर दिया । श्री दीक्षितजी 1954 में भारतीय सांस्कृतिक परिषद की ओर से एक वर्ष के लिए ट्रिनीडाड भी गये थे । आप दिल्ली से प्रकाशित दैनिक हिन्दुस्तान में अनेकर वर्षो तक पत्रकारिता के विविध अंगों में कार्य करते रहे । इनमें समाचार संकलन , हिन्दी अनुवाद, पृष्ठï निर्माण्ण ,फीचर लेखन सब कुछ शामिल था । हिन्दुस्तान का लोकप्रिय स्तंभ 'यत्र तत्र सर्वत्र  के आप जन्मदाता रहे रहे हैं । आप कई वर्षो तक कादम्बिनी पत्रिका में शब्द सामर्थ्‍य  बढ़ाइये स्तंभ विशालाक्ष के नाम से लिखते रहे । पत्रकारिता के अलावा आपने चक्रवर्ती राजगोपालाचारी की पुस्तकों यथा- वेदांत- भारत की मूल संस्कृति, भगवतगीता, उपनिषद - जनसाधारण के लिए, का हिन्दी अनुवाद भी किया । 'समाज के स्तंभ (इब्सन के -पिलर्स ऑफ सोसायटी का अनुवाद) भी आपने 1955 में आत्माराम एंड संस , नई दिल्ली से प्रकाशित करवाया था । श्री दीक्षित स्वयं द्वारा भी कई पुस्तकों का सृजन किया गया जिसमें - आनंद का राजपथ(नाटक,1957,आत्माराम एंड संस)नई दिल्ली से प्रकाशित हुआ । ह्दय मंथन   नामक कृति भी इसी प्रकाशन से 1951 में प्रकाशित हुई थी ।'    भारत एक है   राजपाल एंड संस प्रकाशन से 1967 में प्रकाशित हुई थी । 

                        आप सन् 1919 से हरदा क्षेत्र में कांग्रेस  एवं राष्ट्रीय गतिविधियां प्रारंभ करने वाले व्यक्तियों में एक  प्रमुख स्तंभ थे। 8 मई 1923 में आपने झंडा सत्याग्रह में भाग लिया और गिरफ्तार होकर 4 माह की सजा नागपुर जेल में काटी। पर महीने भर बाद ही सरकार का आदेश न मानने के आरोप में प्रिजनर्स एक्ट की धारा 52 के अंतर्गत नौ माह का अतिरिक्त कारावासा भोगा और बाद में 24 जून को रिहा हुए । सन् 1926 में मैट्रिक पास करके हरदा में मिडिल स्कूल शिक्षक हुए। सन् 1929 में राष्ट्रोन्नायक युवक संघ की स्थापना की। सन् 1930 में शिक्षकीय पद से इस्तीफा देकर सविनय अवज्ञा आंदोलन में भाग लिया। सन् 1930 के जंगल सत्याग्रह में भाग लेकर गिरफ्तार हुए। 7 माह की सजा तथा 100 रूपये जुर्माना हुआ। सन 1931 में रिहा हुए । बाद में कानपुर में प्रताप में सह संपादक हुए। सन् 1937में वर्धा में बुनियादी शिक्षा प्रशिक्षण केन्द्र व महिला आश्रम में शिक्षक हो गए। सन् 1942 के आंदोलन में भाग लेने के कारण 22 अगस्त 1942 को गिरफ्तार हुए और 1944 के मध्य में लगभगर 2 वर्ष के बाद रिहा हुए । इस गिरफ्तारी के समय आप महिला आश्रम वर्धा में अध्यापक थे । श्री दीक्षित गांधी जी के साथ लगभग दस वर्षो तक कार्य करते रहे । श्री दीक्षित का सत्तर वर्ष की आयु में  1 जनवरी 1976 को नई दिल्ली में निधन हुआ ।
आंनद का राजपथ - सीताचरण दीक्षित की पुस्‍तक का आवरण

शनिवार, 5 अक्तूबर 2013

हरदा में राजनैतिक चेतना जगाने वाले श्री महादेव शिवराम गोले





                        हरदा की यह खासियत रही है कि अपने दौर की हर राजनैतिक और सामाजिक चेतना से यह जुड़ा रहा है । 1905 में बंग भंग की घटना से देश में एक नई बयार चली थी । उस समय भी हरदा ने अपनी सक्रियता का परिचय दिया था । हरदा के पास एक गॉंव पिडग़ॉंव है । वहॉं पर पूना से एक व्यक्ति आकर बस गया था नाम था प्रोफेसर महादेव शिवराम गोले । महादेव शिवराम गोले लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के साथी थे । पूना जैसी राजनैतिक चेतना सम्पन्न जगह से हरदा आये थे । स्वाभाविक था कि वे हरदा में उसका प्रसार करते । हरदा में उनके साथी थे पं. आत्माराम शास्त्री लोकरे, श्री बालाजी अग्रिहोत्री एवं चंद्रगोपाल मिश्र आदि । मैंने अपने बहुत आग्रह पर स्व. महेशदत्त मिश्र से नगरपालिका हरदा की स्मारिका 'साक्षी' में एक लेख लिखवाया था 'मेरी यादों में हरदा' उस लेख से ही मुझे तीन चार  लोगों के विषय में बहुत जिज्ञासा उत्पन्न हुई थी । इनके विषय में मात्र संकेतात्मक सूचना भर मिली थी । श्री आत्माराम शास्त्री लोकरे, प्रो. गोले, श्री मामराज (वस्तुत: यह नाम मामराज जाट है )एवं हरदा से प्रकाशित मराठी हिन्दी समाचार पत्र 'न्यायसुधा' संपादक श्री सदाशिव रामचंद्र पटवर्धन,तथा श्री सीताचरण दीक्षित । इन व्यक्तियों पर जानकारी हासिल करने के लिए मैंने अनथक परिश्रम किया । सबकी तो नहीं पर कुछेक की संतोषजनक जानकारी मिल सकी ।

                        श्री महादेव शिवराम गोले का जन्म सन 1859 के मध्य महाराष्ट के  सतारा जिला में मर्दे गॉंव के ईनामदार परिवार में हुआ था । आपके पिताजी को आजीविका के सिलसिले में गॉंव गॉंव जाना पड़ता था  इसलिए इनकी शिक्षा अपनी मॉं के पास पुणे में ही हुई । आपकी प्राथमिक शिक्षा घर पर ही हुई । छह वर्ष की आयु में आपको पाठशाला में प्रवेश दिलाया गया । श्री गोले ने 1877 में मैट्रिक की परीक्षा पास करने के बाद डेक्कन कॉलेज में प्रवेश लिया और वहॉं से संस्कृत तथा तत्वज्ञान विषय लेकर पदपी प्राप्त की । वहॉं उन्हें दक्षिण फैलोशिप भी मिली थी । डेक्कन कॉलेज में वे श्री आगरकर के संपर्क में आये । श्री आगरकर की सूचना पर उन्होंने 1883 में 'न्यू इंग्लिश स्कूल' में प्रवेश लिया ।  जब उन्हें पता चला कि 'संभाव्य कॉलेज' में शास्त्र विषय के अध्यापक की जरुरत है ,उन्होंने नैसर्गिक शास्त्र विषय लेकर  1884 में एम.ए. की उपाधि प्राप्त की । डेक्कन एजूकेशन सोसायटी की स्थापना होने  पर उसके सात आजीवन सदस्यों में से श्री गोले भी एक थे । वे फर्ग्‍यूसन  कॉलेज पुणे में भौतिकशास्त्र पढ़ाते थे । 1895 में श्री आगरकर का निधन होने के पश्चात श्री महादेव शिवराम गोले को फर्ग्‍यूसन कॉलेज का प्राचार्य बनाया गया । 1901 तक प्राचार्य रहने के बाद उन्होंने आराम करने के लिए कुछ समय के लिए पद से त्यागपत्र भी दिया था । 18 साल की सेवा पूर्ण करने के बाद उन्होंने अवकाश ग्रहण कर लिया और हरदा के पास पिडग़ॉंव में खेती करने के लिए स्थायी रुप से बस गये । सन 1906 में वे हवा बदलने के लिए नाशिक गये और वहीं 8 दिसम्बर 1906 को दमे के कारण उनका निधन हो गया । श्री महादेव शिवराम गोले स्वतंत्र विचारों के व्यक्ति थे । वे अपने विचार अपने ही तरीके से व्यक्त करते थे।   ' हिंदु धर्म आणि सुधारण '  नामक पुस्तक में उन्होंने अपने सामाजिक सुधार सम्बन्धी विचार व्यक्त किये हैं ।  परंपरावादी सनातनधर्मी  लोगों के मत विरोधी उस समय के सुधारकों ने इन्हीं विचारों के कारण आपकी प्रशंसा की   'ब्राह्मïण आणि त्यांची विद्या'  नामक पुस्तक में आपने शिक्षण के उद्देश्य और शिक्षा पद्घति पर अपने विचार व्यक्त किये । 'न्यू इंग्लिश स्कूल ' में विद्यार्थियों के लिए होस्टल होना चाहिए ,यह उन्हीं की मूल कल्पना थी , और यह कल्पना साकार हुई । 1887 में ,1890 तथा 1894 के वर्षो में वे न्यू इंग्लिश स्कूल में सुपरिन्डेन्ट के पद पर भी रहे । श्री गोले फर्ग्‍यूसन कॉलेज के शास्त्र विभाग के मूल शिल्पकार के रुप में जाने जाते हैं। श्री गोले बीच बीच में लोकमान्य तिलक के प्रसिद्घ अखबार 'केसरी'  में भी लिखते थे  अपने विनोदपूर्ण लेखन के लिए वे लोकप्रिय थे। डेक्कन सोसायटी में आजीवन सदस्य बनते समय बीस वर्ष की सेवा का वचन देने होता था । बीस वर्ष सेवा करने वाले वे पहले आजीवन सदस्य थे ।

बुधवार, 2 अक्तूबर 2013

मालती परुलकर के बहाने हरदा का साहित्‍य इतिहास

हरदा का साहित्यिक इतिहास लिखने की कतिपय चेष्‍टाऍं हुई है । यूं हरदा अंचल की प्रारंभिक रचनाऍं संतो के पदों के रुप में मिलती है । संत रंकनाथ, निबलदास, हरिदास, दीनदास, कान्‍हा बाबा, जैता बाबा, कालूबाबा ,आत्‍माराम बाबा आदि संतो की रचनाऍं प्रारंभिक इतिहास में गिनी जायेगीं । फिर कुछ विदेशी लोग विशेषकर मिशिनरियों ने यहॉं रचनाकर्म किया। इसके बाद हरदा में हिन्‍दी के युग प्रवर्तक साहित्‍यकार पंडित महावीरप्रसाद द्विवेदी रहे । पंडित माखनलाल चतुर्वेदी भी प्रारंभ में यहीं रहे। छिदगांव भादूगांव और मसनगॉव उनके बचपन के गांव हैं। श्री हरिशंकर परसाई की यादों में टिमरनी, रहटगांव और टिमरनी का राधास्‍वामी स्‍कूल अंत तक बसा रहा। श्री अजातशत्रु तो हरदा और मुम्‍बई में समान रुप से सृजन सक्रिय हैं ही। हरदा में कवि और कथाकार लाल्‍टू भी वर्ष भर से ज्‍यादा रहे । रंगकर्म से भी उनका गहरा नाता रहा । हरदा के पास सिवनी मालवा है । इसी तहसील के मूलत: जमानी बैगनिया गांव  के निवासी प्रसिद्ध कवि श्री प्रेमशंकर रघुवंशी पिछले पच्‍चीस सालों से हरदा में सृजनरत हैं। उनके कई संग्रह बहुचर्चित और प्रशंसित पुरस्‍क़ृत हुए हैं। आज भी वे जितने सक्रिय हैं वह युवाओं के लिए प्रेरणास्‍पद है ।  सुप्रसिद्ध ललित निबंधकार नर्मदाप्रसाद उपाध्‍याय तो हरदा के हैं ही। ललित निबंध और नवगीतकार, आलोचक श्री श्रीराम परिहार हरदा में वर्ष भर रहे हैं । माखनलालजी के पश्‍श्‍चात हरदा से सन 1930 के लगभग विदा होने वाले श्री सीताचरण दीक्षित दिल्‍ली जाकर जो कार्य किया वह युगों तक याद किया जायेगा । उनकी कई कृतियॉं प्रतिष्ठित प्रकाशनों से प्रकाशित हुई हैं ।बेहद संभावना से भरे श्री शरद बिल्‍लौरे असमय ही दुनिया से चले गये ।  उनकी कृतियॉं उनके संसार से जाने के बाद प्रकाशित हुई ।' तय तो यही हुआ था' उनका बहुचर्चित काव्‍य संग्रह है । समीक्षा और कथा में बहुचर्चित श्री कैलाश मंडलेकर मूलत: हरदा के पास नीमसराय गांव के निवासी हैं । 'साथ- साथ' जैसी   फिल्‍म जिस कथाकार की रचना पर बनी है वे नरेन्‍द्र मौर्य हरदा के ही हैं । श्री माणिक वर्मा जन्‍मे अवश्‍य खंडवा में पर उनका कृतिकाल हरदा का ही है । ख्‍यात पत्रकार मदनमोहन जोशी हरदा के ही हैं । श्री राजेन्‍द्र जोशी हरदा के पास छिदगांव के रहने वाले हैं और वर्तमान में भोपाल में रचनारत हैं ।  श्रीमती विनीता रघुवंशी कथा और समीक्षा के क्षेत्र में सक्रिय रही हैं।  कथाकार नीहारिका रश्मि और युवतम कवियत्रि प्रियंका पंडित तथा अर्चना भैसारे हरदा की हैं ।इन दिनों बेहद चर्चा में रहने वाली अर्चना भैसारे को तो इस वर्ष साहित्‍य अकादमी का युवाओं को दिया जाने वाला सम्‍मान भी प्राप्‍त हुआ है।  और इस कडी में सबसे नया नाम सोनू उपाध्‍याय का है। सोनू संपादित पुस्‍तक शीघ्र ही आ रही है । छपने के पूर्व ही यह चर्चा में आ चुकी है । श्री मदन व्‍यास ने भी अपना एक गजल संग्रह प्रकाशित करवाया है । कभी हरदा में रहकर श्री मनमोहन चौरे उर्फ संतोष ने भी लेखन कार्य किया था । दुर्गेशनंदन शर्मा एक समय में अखबारों  में  गीतों  के कारण चर्चा  में रहे । गजल के क्षेत्र में विकट परिश्रम करने वाले सुनील राठौर अब इस दुनिया में नहीं रहे । विगत 22 जुलाई 2012 को भोपाल में उनका निधन हो गया ।  सुनील ने संभवत: 46 वर्ष की आयु ही पाई । छपने को लेकर उसमें एक विरक्ति थी । केवल एक बार उसकी दो गजले श्री रामविलास शर्मा ने दैनिक भास्‍कर के रविवारीय अंक में इंदौर से प्रकाशित की थी । सुनील की गजले उसकी डायरियों में ही खो रही हैं । उसकी पत्‍नी वापस गुजरात चली गई और भाई अपनी जीवन संघर्ष में रत हैं । श्री ज्ञानेश चौबे अपनी संपादित कृति ' हमारी यादे : हमारा हरदा '  से जितनी प्रतिष्‍ठा और यश अर्जित कर सके वह अनुपम है । इस पुस्‍तक को हाथों हाथ लिया गया और यह पुस्‍तक आज की तारीख में आउट ऑफ स्‍टॉक है । इस अंचल में मराठी, और उर्दू में भी रचनाऍं खूब हुई है । जल्‍दबाजी में लिखे इस ब्‍लॉग में निश्‍िचित ही  कुछ नाम छूट रहे हैं । हरदा से नरेन्‍द्र मौर्य ने आदमी नाम की पत्रिका प्रकाशित की थी ।  अजातशत्रुजी के सहयोग से कभी जीवितराम सेतपाल ने अपनी पत्रिका 'प्रोत्‍साहन ' का हरदा अंक निकाला था । हरदा से 1881 के लगभग मराठी और अंग्रेजी का समाचार पत्र न्‍याय सुधा का प्रकाशन सदाशिव पटवर्धन ने किया था । 
            जो लोग इस दिशा में सक्रिय हैं उनके लिए उपर्युक्‍त सूचनात्‍मक जानकारियों की कडी में एक महत्‍वपूर्ण नाम  है श्रीमती मालती परुलकर  का । वे हरदा के प्रसिद्ध परुलकर परिवार की बेटी हैं । आजादी के पूर्व उनका जन्‍म हुआ।  उनके  कई कथा संग्रह प्रकाशित हुए हैं। उनका पहला कथा संग्रह  सन 1958  में राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुआ था । कीमत थी ढाई रुपये । मालती परुलकर की और भी कई कृतियॉं प्रकाशित हुई । 'जहॉं पौ फटने वाली है ' इन्‍नी  तथा मुक्‍ता उनकी  चर्चित पुस्‍तक है । उनकी पुस्‍तकों को मैंने बहुत तलाशा यहॉं तक कि उनके पुत्र  बेटे और प्रकाशक से भी बात की किन्‍तु पुस्‍तकें पढने को नहीं मिल सकी। शायद  इनमें से बहुत कम ही पुस्‍तकें अब उपलब्‍ध हैं । हरदा में एक समय में एकलव्‍य पुस्‍तकालय में मालती परुलकर के कुछ कथासंग्रह  थे। दुर्भाग्‍यवश अब यह पुस्‍तकालय कर्ताधर्ताओं की प्राथमिकता में न होने से  ठीक स्थिति में नहीं है। हरदा के ही नहीं भारत भर के पुस्‍तकालयों की हालत दयनीय होती जा रही है ! बहरहाल पुस्‍तक प्रेमियों और हरदा के साहित्यिक इतिहास में रुच‍ि रखने वालों के लिए मालती परुलकर के कथा संग्रह का आवरण संलग्‍न है ।