हर बार नये साल की तरह
लंबा समय हुआ कविता नहीं लिखी । दो कविताऍं डायरी में बची थी । (एक)
लौैटकर आना चाहता हूं
बार बार इसी धरती पर
इन्हीं इन्हीं लोगों के बीच
इन्हीं गांवों इन्हीं मैदानों
इन्हीं दुख सुख मित्रता शत्रुता
रिष्तों नातों के बीच
अबके जाऊॅंगा तो जाऊंगा
जाता रहा हॅंू सदियों से यूं ही
आना चाहता हॅंू मैं तो यहीं यहीं
घूमा हॅंूूं दिग दिगन्तर
अंत अनन्तर
पर मेरे भीतर
भीतर
भीतर
बस
यही यही भीतर ।
यहीं कहीं तो छुपा है मेरा प्यार
यहीं तो रहे सब मेरे यार
अतृप्त असंतुष्ट यहीं कहीं छूटी है मेरी
जवानी
यही रहा है मेरा लीलांगन
यहीं होती रही है शेष मेरी
जिंदगी ।
हर बार यहीं लौटना चाहता हॅंू
पूरी ताकत से
जैसे दौड़ता था मैं बचपन में माॅं के
पास ।
जैसे तमाम जंगल के सफाये के बाद
किसी साल सालों बाद
बारिष में
अंकुरित हो जाता है
किसी बागुड़
किसी लांगे
किसी गोये
किसी गढ़वाट
किसी मेड़ पर
कोई पुराना पेड़
मैं लौटता रहूंगा
हर बार नये साल की तरह ।
धर्मेन्द्र पारे
(20/9/09)
( दो )
यहीं कहीं
बिखरे हैं मेरे पुरखे
पुरखों के भी पुरखे
यहीं कहीं हैं मेरी माताएॅं
सती
उनकी अस्थियाॅं ही
ऊर्जा है इस धरा की ।
लौटूंगा एक दिन
बहुत दूर
देष दूर
समय दूर
काल दूर से
लौटंूगा एक दिन
देखंूगा एक दिन
देखूंगा अब मेरे पुरखों के घर मंें
कैसे रहता हॅंू मैं
मेरी माॅं जिन जगहों पर रोपती थी
हर साल
फलदार पौधे, गिलकी लौकी बल्हर
कद्दू मेथी पालक
उन जगहों पर क्या है अब ।
बंधती थी जिस जगह गाय केड़ा केड़ी
अब क्या है वहाॅं
चुपके से देख जाऊंगा
किसी तारों भरी रात किसी भूतड़ी अमावस पर
आऊंगा जरुर आऊंगा
सब कुछ भी..त..र...
तक भर लिया है मैंने
अपने प्यारे संसार को
मूर्त न सही अमूर्त ही
यह नहीं होगा विनष्ट
दरअसल यही है जो
होता नहीं विनष्ट
किसी दिन आऊंगा
देषी आम की कैरी बनकर
किसी सदी में हो सकता है
आऊॅं
रंभाती गाय बनकर
चिड़िया का घोंसला बन सकता हॅंू
किसी सुबह नाथ महाराज का गीत बनकर
बच्चों के भौरों की शक्ल
भी हो सकती है मेरी
आऊंगा जरुर आऊंगा
मेरा आना कोई
नहीं रोक सकेगा !
धर्मेन्द्र पारे
(20/9/09)