शटल्ली के कुत्ते और उसका समाजवाद
शटल्ली, रामकिशन के मोहल्ले का रहने वाला था। जब भी वह शिकार पर जाता उसके साथ सबसे ज्यादा कुत्ते होते थे एक दो कुत्तों को वह बूच की रस्सी से बांधकर भी ले जाता था । बाकि कुत्ते हुजूम के रुप में उसके साथ स्वतः ही होते थे। वैसे उसका पालतू कुत्ता कोई नहीं था। ताज्जुब इसी बात का था। बावजूद उसके पास शहर के सबसे ज्यादा कुत्ते होते थे। दरअसल उस व्यक्ति का अपना कुत्ता प्रबंधन था। आज के मैनेजमेंट गुरुओं को भी मात कर देने वाला ! वह रोज शाम को भिखारियों के डेरों पर जाता वहां से औने पौने दामों पर उनकी रोटियॉं खरीद लेता। उन रोटियों को रात में वह शहर भर के कुत्तों में बांटता चलता। इस प्रकार उन कुत्तों का वह उदर पोषण भी करता । सारे कुत्ते उसके प्रति गहरी कृतज्ञता और करुणा से ओत प्रोत रहते थे। उसको कुत्ते इसी कारण पहचानते भी थे और समय आने पर वह जब भी शिकार के लिए उन्हें बुलाता वे निष्ठा पूर्वक उसके साथ चलते। शिकार के बाद भी वह सारे कुत्तों के अलावा उस कुत्ते को गोश्त का बड़ा हिस्सा देता जो सबसे पहले सूअर पर हमला करता था। जो कुत्ता इस हमले में घायल हो जाता था उसको भी बड़ा हिस्सा मिलता था। कभी कभी वह अपने मोहल्ले के लोगों के कुत्ते भी किराये पर ले जाता था। यदि किराये के कुत्ते ने शिकार के समय सबसे पहले हमला किया तो उसके मालिक को भी शटल्ली पुरस्कार स्वरुप ज्यादा गोश्त देता था । जब तक मैं खेडीपुरा स्कूल में पढा शिकार और शिकारियों की दुनिया के बारें में जानता रहा । बाद में यह अनुभव नहीं बढ सका । क्योंकि मैं एक तथाकथित सुसभ्य दुनिया , लोगों, स्कूलों के बीच अपने विस्थापन की जद़दोजहद करने लगा । वह दुनिया कत्रिमतर थी । यह दुनिया नकली थी । बहुत दुराव छुपाव और छल कपट से भरी थी । इसी दुनिया में मुझे पास होना था । इसी दुनिया से मुझे मेरे होने की पुष्टि करवाना था । इसी दुनिया के चोचलों और मानको पर मुझे खरा उतरना था । उतरा भी । हारा भी । लडखडाया भी । मायूस भी हुआ । सोचता हूं मेरे कई साथी जो खेडीपुरा स्कूल से निकले तो पर वापस उसी दुनिया में लौट गये। क्या एक तथाकथित सभ्यता से उन्हें पराजित कर वापस भेज दिया था ? क्या सभ्यता कही जाने वाली सभ्यताएं हमेशा ऐसा ही किरदार निभाती हैं ? सिर्फ संस्कतिकरण का नाम ही क्या सभ्यता है ? क्या स्वतंत्रता , निर्मलता, स्वायत्तता का नाम सभ्यता नहीं हो सकता ? क्या मेरे खेडीपुरा स्कूल के दोस्त , क्या मेरे गांव की बोली ,क्या मेरे बचपन के खेल और रुचियॉं सचमुच इतने असभ्य थे ? देर रात गये बहुत दूर तक अंधेरे में ये सवाल आज भी मेरे सामने मौजूद रहते हैं ? कोई काबा जाना चाहता है कोई काशी । किसी को मंदिर चाहिए किसी को मस्जिद । धन दौलत पूंजी हिंसा घ़णा की दौड में सब शामिल हैं । भाग रहें हैं बेतहाशा । मुझे कुछ नहीं चाहिए सिवा उस निर्मल संसार के -----------