जनजातीय भाषाओं ज्ञान विज्ञान
हमारे देश में प्राय: मातृभाषाओं में
शिक्षा प्रशिक्षा की बात होती है। जब हम मातृभाषाओं की बात करते हैं तो हिन्दी या
प्रांतीय भाषाओं लोकभाषाओं की सीमा तक
जाकर हमारी वैचारिकता ठहरने लगती है। अक्सर जानजातीय भाषाऍं हमारी चिंता और
विवेचना के केन्द्र में नहीं होती । जबकि भारत के लोकतांत्रिक स्वरुप के लिए यह
होना बहुत आवश्यक है। आज जनजातीय अंचलों में अलगाव सबके लिए चिंतनीय है। क्या कभी
यह सोचा गया है कि जब भी जनजातीय अंचलों में बाह्य परिवेश और विचार लेकर लोग आये
उन्होंने किस भाषा में उनसे संपर्क किया ? जी हॉं
जनजातीय भाषाओं में ही । अपनी भाषा हमेशा जोडऩे का काम करती है। चाहे मिशिनरीज हों
चाहे नक्सलवादी उन्होंने जनजातीय भाषाओं के महत्व को समझते हुए ही अपने कार्यों
में सफलता प्राप्त की है। इस छोटी सी किन्तु महत्वपूर्ण बात को गहराई से समझे जाने
की आवश्यकता है। पूरे देश में केवल मध्यप्रदेश ही ऐसा राज्य है जहॉं इस दिशा में
पहल हुई है । यह पहल रेडियो स्टेशन, पोथियों से आगे जाकर पाठशालाओं ,विश्वविद्यालयों और स्थानीय शासन प्रशासन तक
जाना चाहिए। ऐसा हो सकने पर हम कई अज्ञात ज्ञान विज्ञान से रुबरु हो सकेंगे।
प्रदेश में एक जनजातीय विश्वविद्यालय केन्द्र सरकार ने प्रारंभ किया लेकिन खेद है
कि उसमें जनजातियों और उनकी भाषा संस्कृति ज्ञान परंपरा पर कुछ नहीं किया
जाता सिवाय इस बात के कि कुछ जनजातीय
बच्चों को प्रवेश दे दिया जाता है। यह तो पूरे देश के विश्वविद्यालय कर रहे हैं । ६
जून २०१३ को ही ‘मोहल्ला लाईव’ नामक ब्लॉग पर चर्चित कथाकार उदय प्रकाश ने
हिन्दी के विषय में बात करते हुए इसी
जनजातीय विश्वविद्यालय के बारे में लिखा कि उन्हें लगता था कि इस जनजातीय विश्वविद्यालय द्वारा उसके
कार्यक्षेत्र की हाशिये पर धकेल दी गई
भाषा को संरक्षित करने और उसमें श्क्षिा देने का काम किया जा सकता था
किन्तु यह विश्वविद्यालय भी उन्हें अन्य विश्वविद्यालयों की तरह ही लगा।
जनजातियों की
वाचिकता में निहित हजारों गीतों, सैकड़ों
कथाओं-पहेलियों, कहावतों-मुहावरों
के संकलन सर्वेक्षण तथा पर्वो-त्योहारों, पूजा-अनुष्ठानों
को कई गांवों में लंबे समय तक देखने समझने के बाद निष्कर्षात्मक रुप से कहा जा
सकता है कि यदि जनजातियों को ठीक ठीक अर्थो में समझा जाना है तो इसकी वाचिकता के
अलावा कोई और आधार नहीं हो सकता क्योंकि काल प्रवाह में इन्होंने अपनी संस्कृति, अपनी पहचान कहीं बचाकर रखी है तो वह वाचिकता
ही है। जनजातियो के विषय में आपको प्राय:
(गढ़ा मंडला के गोंड अपवाद छोडक़र)कोई शिलालेख नहीं मिलेंगे, कोई ताम्रपत्र और ताड़पत्र नहीं मिलेगें, कोई विरुदावली कोई सनद और अभिलेख नहीं
मिलेंगे। रची हुई कोई पुस्तक नहीं मिलेगी। अधिकांश जनजातीय मनुजों को यह ज्ञात
नहीं है कि उनके प्रपितामह और प्रपितामही का क्या नाम था? एक दो पीढ़ी पूर्व उनका निवास स्थान क्या था? जीवन स्थितियॉं उन्हें सतत रुप से श्रमरम
रखती है । ऐसे में भौतिक संग्रह और संचयन उनके जीवन में कहॉं ? कहॉं सुख और वैभव? किन्तु पूरे वाचिक साहित्य के संकलन
सर्वेक्षण और मंथन से एक बात स्पष्ट होती है जनजातियों में यह कभी अभिप्सा भी नहीं
रही । वह तो प्रकृति जन्मा है प्रकृति पूजक है प्रकृति में रची बसी है। पेड़ पौधे
वनस्पति नदी पर्वत मछली और पंछी पखेरु उसके कुल गोत्र के हैं, उसके सहोदर हैं। वह इन सबका सगा नातेदार है।
जनजातीय मनुष्य इतना सरल है जाति पॉंति के झगड़ों में कभी नहीं पड़ा उससे जब किसी
ने पूछा कि वह किस जाति का है तो उसने अपनी जाति ‘मनुष्य’ ही बताई।
कई जनजातियों की
दुनिया में केवल एक से लेकर दस तक ही अंक है उससे आगे बहुत जरुरी हुआ तो उसने ‘बीस’ का अंक ही
अपनाया। अर्थ का और ज्यादा दबाव आया तो फिर ‘सौ’ का पर्याय गढ़ा । इससे ज्यादा नहीं । कोरकू
जनजाति में तो एक अक्षर से ही कुछ शब्द बन जाते हैं। ‘डा’(पानी)‘बो’(चलो), ‘टी’(हाथ) ‘ऊ’(भाभी), ‘मू’(महुआ), ‘बा’(पिता), ‘कीं’(छछूंदर), ‘फा’(लकड़ी का
टुकड़ा), ‘बा’(उठना)। कोरकू भाषा में सबसे ज्यादा शब्द दो
अक्षरों से बने है । तीन अक्षर वाले शब्द भी खूब उपयोग हुये हैं किन्तु चार
अक्षरों से बने शब्द कम है और पॉंच अक्षरों के तो बहुत ही कम। सामासिकता और
संधिपरकता खोजने पर भी नहीं मिलती। सब कुछ
जीवन की तरह सादगी से भरा। हिन्दी भाषा के जो लोग यह स्वीकारते हैं कि कठोर वर्णो
यथा ट,ठ,ढ,ण,ड़, ढ़ आदि का शब्दों में कम उपयोग होता है
उन्हें एक बार कोरकू तथा अन्य जनजातीय भाषाओं के संसार को अवश्य ही जानना परखना चाहिए। जनजातीय भाषाओं
में निहित ज्ञान विज्ञान की उपेक्षा करने
और महत्व न देने की भूल करना
ऐतिहासिक भूल भी हो सकती है। हमें अवसर मिला है इसे संज्ञान में लिया जाना
चाहिए ।