गुरुवार, 16 दिसंबर 2010

कोरकू जीवन राग

अपने द्वार पर कोरकू बालिका
खेल में मगन बालक

कोरकू बालिकाऍं ठापटी नृत्‍य की तैयार
कोरकू जनजाति की वाचिक परंपरा पर कार्य करते हुए मुझे एक दशक ही होने को आया ..  यात्रा हर बार नई शुरुआत लगती है। कोरकू संस्कार गीतों से प्रारंभ यह यात्रा कोरकू गाथा ढोला कुंवर, कोरकू देवलोक और गोंड देवलोक होते हुुए अब आ खड़ी हुई है - कोरकू जनजाति के जीवन राग से जुड़े पर्व, त्यौहार और उत्सव गीतों के नजदीक। ये गीत वर्षा की फुहारों में नहाये हुए, मलयानिल में हिलोरे लेते हुए दिखते हैं। बिल्कुल ताजे ,बिल्कुल निष्कलुष । जटिलतर जीवन की बातें यहॉं नहीं है। इन गीतों से गुजरते हुए लगता है हम किसी सागौन के पेड़ को देख रहें हैं! मानों किसी पहाड़ी पर खिले जंगली पुष्पों की सुगंध से सराबोर हो, या फिर  कर्ई तरह के पशु पक्षियों  की चहचहाहट सुन रहे हों ! मानों हम निसर्ग को अपने भीतर और निसर्ग के भीतर स्वयं को महसूस कर रहे हों! मुझे हमेशा ही ऐसा लगा है! कह नहीं सकता आपको कैसा लगेगा ? गये होगें लोग देश विदेश, उड़े होगें वे उडऩ खटोले पर, मुझे तो मेरे वन प्रान्तर मेरी कोरकू धरा बहुत आह्लïादित करती है। मेरा यह आनंद सचमुच अनिर्वचनीय है । क्या बताऊं कि क्या पाया है मैंने ? भौतिक संचय संग्रह सुख सुविधाओं की दौड़ में तो सब शमिल हैं ही । आखिर कहॉं तक है यह सफर कहॉं जाकर रुकेगेंं ? क्या कोई ओर छोर भी है इसका ? इस दौड़ा भागी में पता नहीं हमने अपनी कितनी निर्मल संपदा मिटा डाली । उसका तो कोई हिसाब नहीं ? और कमा क्या रहे हैं ? ..
        और भाषाओं के तथाकथित विद्वतजनों के विचारों का तो मुझे पता नहीं किन्तु हिन्दी भाषा और साहित्य के तथाकथित विविध अखाड़ों के उस्तादों और प_ïो की राय में इस तरह के कार्य 'सेकेंडरीÓ हैं । वे इसे 'क्रियेटिवÓ नहीं मानते  ?? क्या सचमुच ! दिल पर धरिए हाथ जरा ?? कोरकू भाषा की मृत्यु की घोषणा पाश्चातत्य विद्वानों ने सौ सवा सौ बरस पूर्व ही कर दी थी। वे बहुत ज्यादा गलत भी नहीं थे। इस भाषा और संस्कृति का बड़ा हिस्सा अब विलुप्त प्राय है। नई पीढ़ी स्वयं अपनी भाषा और संस्कृति की हीनता से ग्रस्त है । वे स्वयं इससे मुक्ति के लिए उतावले हैं। यह कैसा उतावलापन और कैसी मुक्ति है ? स्वयं को मारकर ? मुझे नहीं लगता वे  ऐसा करना ही चाहते हों ! दरअसल समय और समाज ने, अर्थ और भौतिकता ने, जीवन संघर्ष ने उनके सामने भीषण चुनौति खड़ी कर दी है। अपने को बचाना, अपने बच्चों के भविष्य को बचाने, पेट पालने की जद्दो जहद ने  इस भाषा और संस्कृति को अंतिम कोने में समेट दिया है। यह सब सोचना भी एक दर्द भरी यात्रा से गुजरना है। अभी कल ही एक लड़की मिली, इस समाज की। नाम है गोंदा धुर्वे । मैंने उससे पूछा  गोंदा तुम्हारा गोत्र धुर्वे कैसे हो गया ? दरअसल कोरकू जनजाति में धुर्वे गोत्र नहीं होता यह तो गोंड जनजाति का गोत्र है। उसने बताया - बस ऐसे ही !  मैंने देखा कि और भी  कई लड़के लड़कियों के गोत्र, शहरों और नगरों में, राजनीति और अर्थ जगत की सत्ता पर, समाज में किसी भी तरह की ताकत रखने वाले लोगों के गोत्रों में बदल चुके हैं । कोई 'पटेलÓ कोई  'सेठÓ तो कोई  'चावलाÓ कोई   'ठाकुरÓ तो कोई  और भी इसी तरह के गोत्र धारण कर चुके हैं ! सोचता हॅूू यह सब क्या है !  क्या निहितार्थ और भाष्य है इन पहेलियों का ?  गोंदा रोज कोशिश करती है कि उसके माथे पर मॉं बाप द्वारा बचपन में ही गुदवा दिया गया  'इपठिंजÓ किसी तरह मिट जाये। वह लड़की रोज अपने माथे को घिसती है। भरसक  कोशिश कर रही है कि उसके भाल पर मंडा कोरकू पहचान चिह्नï जल्दी से जल्दी मिट जाये। वह ही नहीं उसके जैसी तमाम लड़कियॉँ इसी प्रयास में लगी है। क्या यह नवयुवा पीढ़ी इस सबके मिटने और मिटाने के लिए जिम्मेदार हैं ? कहूंगा बिल्कुल भी नहीं ! दरअसल सबल समाज और भाषाएँ इस सबके लिए जिम्मेदार हैं। लोकतंत्र में इन भाषाओं के बचने,बढऩे के पूरे अवसर होना चाहिए थे। नहीं रहे। देश विदेश में कई कई जनजातियॉं है जिनके बस नाम भर शेष बचे हैं । भारिया और सहरिया दो नाम तो अपने आसपास के ही हैं। इन जनजातियों की भाषाएॅं  समय के किस क्षण में मौन हो गई, एकदम से घुप्प! क्या इसे किसी ने दर्ज किया? वर्षो से मैं यही सब दर्ज करने की चेष्टïा कर रहा हॅंू । 'सेकेंडरीÓ कार्य कहलाये जाने के बावजूद। बावजूद इसके कि बाजार में बिकने वाला यह काम नहीं है। मुझे लगता है आत्मीय रिश्ते और सरोकार बाजार में कभी मिले भी नहीं !