शुक्रवार, 18 दिसंबर 2009

चिलौरी

चिलौरी



इरकोना इरको इकरो येन डो जामुनी पाला
इरको येन डो जामुनी पाला इरको येन
आचारा रेसे डे डो जोंदोरा बीडे माडो जोंदोरो बीडे
पुलुमा लीजा कपड़े लीजे जोरियान कूडो डूगूवा
डो जोरियान कूडो डूगूवा
गांव- मुरलीखेड़ा स्रोत व्यक्ति- लक्ष्मण
कुवारी लड़की जामुन की पत्ती जैसी सुन्दर हो । अब तुम बड़ी हो रही हो ।अब तुम लुगड़े (साड़ी) का पल्ला खोंसकर ज्वार बोने लग जाओ । वह भी सफेद रंग की साड़ी पहन कर जिसमें 'जोरियानÓ नामक चिडिय़ा तथा अन्य रंग बिरंगी चिडिय़ों की तस्वीर बनी हो ।
धर्मेन्‍द्र पारे

गुरुवार, 17 दिसंबर 2009

अपने बचपन की स्‍मतियॉं मुझे न जाने किस किस संसार में ले जाती रही हैं । उनपर लिखने का क्रम अभी कुछ दिनों तक रुका रहेगा । इन दिनों मैं पुन: कोरकू जनजाति के पर्व उत्‍सव त्‍यौहार अर्थात उनके जीवन के पूरे राग पर के‍न्द्रित गीतों को लिप्‍यां‍तरित कर समझने की कोशिश कर रहा हूं । अद़भुत गीत हैं ये बिल्‍कुल ताजे पत्‍तों और फूलों की तरह । बिल्‍कुल निष्‍कलुष बेदाग । विस्‍मित करते गीतों के संसार से गुजर रहा पुन: गुजर रहा हूं गूगे के गुड को महसूस कर रहा हूं क्‍या व्‍याख्‍या सचमुच कर सकता हूं उत्‍तर आता है शायद नहीं । एक गीत का आनंद नहीं निहित विचारों की अनुगूंज भी सुनिए -
झूड़ी सिरिंज


गिरबो कोन गिटिजकेन जा किरसाना कोन जाग लाकेन जा

गिरबो के किरिजकेन जा किरसाना कोन माय माये वा

गिरबो कोन रागेजका पेरावा किरसाना कोन आटा आटा वा

गिरबो आन्टे धड़की ओलेन जा

सिंगरुप ढाका ढिढोम आनुयेवा

गांव- टेमलाबाड़ी स्रोत व्यक्ति- देवकी बैठे
एक बुढिय़ा बच्चों को झोली में सुलाते हुए गा रही है - गरीब का बच्चा तो सोया हुआ है और किसान अर्थात अमीर का बेटा रो रहा है । गरीब का बच्चा चुपचाप है किन्तु किसान का बेटा मॉं मॉं कहकर पुकार रहा है । गरीब का बच्चा भूखा ही पड़ा है और किसान का बच्चा रोटी रोटी कहकर पुकार रहा है । गरीब मॉं धाड़की करने गई है वह शाम को लौटकर ही अपने बच्चे को दूध पिलाती है किन्तु अमीर किसान का बेटा....
धर्मेन्‍द्र पारे

शनिवार, 12 दिसंबर 2009

शटल्ली के कुत्ते और उसका समाजवाद

शटल्ली के कुत्ते और उसका समाजवाद

शटल्ली, रामकिशन के मोहल्ले का रहने वाला था। जब भी वह शिकार पर जाता उसके साथ सबसे ज्यादा कुत्ते होते थे एक दो कुत्तों को वह बूच की रस्सी से बांधकर भी ले जाता था । बाकि कुत्ते हुजूम के रुप में उसके साथ स्वतः ही होते थे। वैसे उसका पालतू कुत्ता कोई नहीं था। ताज्जुब इसी बात का था। बावजूद उसके पास शहर के सबसे ज्यादा कुत्ते होते थे। दरअसल उस व्यक्ति का अपना कुत्ता प्रबंधन था। आज के मैनेजमेंट गुरुओं को भी मात कर देने वाला ! वह रोज शाम को भिखारियों के डेरों पर जाता वहां से औने पौने दामों पर उनकी रोटियॉं खरीद लेता। उन रोटियों को रात में वह शहर भर के कुत्तों में बांटता चलता। इस प्रकार उन कुत्तों का वह उदर पोषण भी करता । सारे कुत्ते उसके प्रति गहरी कृतज्ञता और करुणा से ओत प्रोत रहते थे। उसको कुत्ते इसी कारण पहचानते भी थे और समय आने पर वह जब भी शिकार के लिए उन्हें बुलाता वे निष्ठा पूर्वक उसके साथ चलते। शिकार के बाद भी वह सारे कुत्तों के अलावा उस कुत्ते को गोश्‍त का बड़ा हिस्सा देता जो सबसे पहले सूअर पर हमला करता था। जो कुत्ता इस हमले में घायल हो जाता था उसको भी बड़ा हिस्सा मिलता था। कभी कभी वह अपने मोहल्ले के लोगों के कुत्ते भी किराये पर ले जाता था। यदि किराये के कुत्ते ने शिकार के समय सबसे पहले हमला किया तो उसके मालिक को भी शटल्‍ली पुरस्‍कार स्‍वरुप ज्‍यादा गोश्‍त देता था । जब तक मैं खेडीपुरा स्‍कूल में पढा शिकार और शिकारियों की दुनिया के बारें में जानता रहा । बाद में यह अनुभव नहीं बढ सका । क्‍योंकि मैं एक तथाकथित सुसभ्‍य दुनिया , लोगों, स्‍कूलों के बीच अपने विस्‍थापन की जद़दोजहद करने लगा । वह दुनिया कत्रिमतर थी । यह दुनिया नकली थी । बहुत दुराव छुपाव और छल कपट से भरी थी । इसी दुनिया में मुझे पास होना था । इसी दुनिया से मुझे मेरे होने की पुष्टि करवाना था । इसी दुनिया के चोचलों और मानको पर मुझे खरा उतरना था । उतरा भी । हारा भी । लडखडाया भी । मायूस भी हुआ । सोचता हूं मेरे कई साथी जो खेडीपुरा स्‍कूल से निकले तो पर वापस उसी दुनिया में लौट गये। क्‍या एक तथाकथित सभ्‍यता से उन्‍हें पराजित कर वापस भेज दिया था ? क्‍या सभ्‍यता कही जाने वाली सभ्‍यताएं हमेशा ऐसा ही किरदार निभाती हैं ? सिर्फ संस्‍कतिकरण का नाम ही क्‍या सभ्‍यता है ? क्‍या स्‍वतंत्रता , निर्मलता, स्‍वायत्‍तता का नाम सभ्‍यता नहीं हो सकता ? क्‍या मेरे खेडीपुरा स्‍कूल के दोस्‍त , क्‍या मेरे गांव की बोली ,क्‍या मेरे बचपन के खेल और रुचियॉं सचमुच इतने असभ्‍य थे ? देर रात गये बहुत दूर तक अंधेरे में ये सवाल आज भी मेरे सामने मौजूद रहते हैं ? कोई काबा जाना चाहता है कोई काशी । किसी को  मंदिर चाहिए किसी को मस्‍जिद । धन दौलत पूंजी हिंसा घ़णा की दौड में सब शामिल हैं । भाग रहें हैं बेतहाशा । मुझे कुछ नहीं चाहिए सिवा उस निर्मल संसार के -----------

गुरुवार, 10 दिसंबर 2009

कुत्ती के पिल्ले छोटली और मैं



कुत्ती के पिल्ले छोटली और मैं

छोटली नाम से ही सब उसको जानते थे। पर हरणे पंडीजी की हाजिरी में पुकारा जाता सुरेन्द्र कुमार रामेश्‍वर जाति ब्राह्मण। हरणे पंडीजी जाति का उच्‍चारण खूब जोर से करते थे । जैसे वह किसी कागज पर किसी इबारत को हाईलाईट कर रहे हों । छोटली मेरा दूर का रिश्‍तेदार भी था। राजा, नवा, शंकर, डिबरु, सुनील के अलावा मेरी दोस्ती का क्षेत्र ज्यादा व्यापक था। मेरे मुद्दे आधारित दोस्त भी थे। मुझे ठंड के दिनों में यह पता होता था कि आसपास की गली मोहल्लों टूटे पड़े मकानों, कोनो कचरों, आड़ ओट, सेंदरी गली में कौन सी कुत्ती ने बच्चे दिये हैं। वे अब कितने दिन के हो गये हैं। उनकी आंख खुली है या नहीं उसमें कितने कुत्ते और कितनी कुतिया है। बीस नख का है कि कम नख का। बड़े होने पर उसके कान खड़े रहेगें या नहीं। मैं और छोटली इसके विशेषज्ञ माने जाते थे। पिल्लों की मां खाने की तलाश में कब निकलती है इसपर हमारी पैनी निगाह लगी रहती। शुरु शुरु में वह गुर्राती भी थी । धीरे धीरे हम उससे दोस्ती कर लेते। अपने घरों से चुपके से दो रोटी जेब में रख लाते और उसको खिलाते। कभी कभी दूध भी चुरा लाते थे। दरअसल छोटली और मेरे घर हरदा में भी दुधारु गाय भैंस रहती थी। पिल्लों की मां धूप का आनंद लेती रहती हम उसके पिल्लों से खेलते रहते। उन्हें दूध पिलाने और रोटी खिलाने का अभ्यास करते रहते। जब पिल्ले हमारे आदेश मानने लगते , हमारे इशारों पर दौड़ने लगते , छू कहते  ही उछल कर हमारे निर्देशित लक्ष्य की ओर लपकते। हम कहते - पंजा दे ! तो वे हमारी हथेली पर पंजे रख देते। हम कहते स्याबास !! शेरु !! कबू ! भूरु। हमारे लिए वे दिन बड़ी बेचैनी , उदासी और दुख के होते जब नगरपालिका के सफाई कामगार आते और किसी कुतिया को जहर दे जाते। हम कातर निगाहों से देखते रह जाते । हम लोग भगवान से दुआ करते कि काश जहर देने वाले कर्मचारी की निगाह में आने से यह कुतिया बच जाये ! हम धीरे धीरे तिउ...तिउ की आवाज निकाल कर उसे दूसरी ओर भगाने की कोशिश भी करते । कभी कभार ही सफल हो पाते थे । हम कुत्ते कुत्तियों को मेरे घर के पीछे बनी कोठरियों मे छुपाने की भरसक कोशिश भी करते पर नगरपालिका के नियमित अभियान से हम शायद ही उन्हें बचा पाते। अगले दिन नगरपालिका की ट्राली आती और कुत्तों की मृत देह उठाकर ले जाती। उन ट्रालियों में ढेरों कुत्ते पड़े होते। हम उनमें से अपने शेरु , कबू, भूरु को पहचानने और आखिरी विदा देने चुपचाप खड़े रहते। ट्राली में मृत कुत्तो के ढेर में उन्हें पहचानने और निहारने के लिए गर्दन उचका उचका कर ऐड़ी पंजों के बल खड़े होकर देखने की कोशिश करते। ऐसे समय हम अपने क्षोभ गुस्से और घृणा का इजहार तो नहीं कर पाते पर उस दिन बहुत तेज दौड़ लगाते कभी दौड़ते दौड़ते डाक्टर कुंजीलाल के ओटले पर चढ़ जाते कभी छलांग लगाते और बात बात मे कहते - यार ! दिमाग मत खराब कर। छोटली कहता - मेने अब्बी देखी थी शेरु की आंख खुल्ली थी । मानो वह हमें दिलाशा देने की कोशिश कर रहा हो कि हमारा प्रिय कुत्‍ता मरा नहीं बल्कि जिंदा है और जिंदा रहेगा । राजेश कहता हां वो जिंदी हे । हम उम्मीद करते कि एक दिन हमारी प्रिय कुतिया और कुत्ते जीवित लौट आयेगें ! हम कुछ दिनों तक उनकी बहादुरी और वफादारी के किस्से सुनाते । इस बीच किसी कुत्ते के हड़काये हो जाने की खबर आती । हड़काये कुत्ते से हम भी डरते थे । हमने सुन रखा था कि हड़काये कुत्ते की पूंछ सीधी हो जाती है । हड़काये कुत्तों को हमने स्कूल के पास बड़ी निर्ममता पूर्वक लाठियों से खत्म करते देखा था । मैं अपने कुत्‍तों को बडा छुपाकर रखता था । यदि सिराली वाली मावसी को दिख जाता तो वे कहती - बाल ओख .... अदडी आ कंई न्‍हई हगज मूतज....... (जारी)

धर्मेन्द्र पारे

शनिवार, 5 दिसंबर 2009

धापू मावसी ,चंपतिया,बिलबिल भाभी......

हमारे घर में कई किरायेदार रहते थे एक में रामोतर शर्मा जिनकी लड़की मधु थी। दूसरे में कानूनगो । आखिरी में धापू मावसी रहती थी। एक तरफ पंडु रहता था। छोटी छोटी खोलियों में कुछ और भी लोग आते जाते रहते थे। एक बड़ा हिस्सा निर्माणाधीन था। वहां काम चल रहा था। मोलल्ले में लड़कों के अलावा मधु, रंजना, ममता और नन्नी जीजी की लड़कियां भी ऐसी थी जिनके साथ मैं खेलता था। मधु मेरे ठीक पड़ोस में रहती थी। उसकी दादी मुझे हर अमावस और पूनम को जिमाती थी। और बात बात में राकुड़्या ....... राकुड़्या कहकर गाली देती थी। रामोतार शर्मा हाजी लोहार की दुकान पर मुनीम थे। गर्मी के दिन थे। पूरे शहर में चंपतिया का बड़ा जोर था। रोज रात में खटिया पर बैठकर लोग चंपतिया की बात करते थे। चंपतिया को किसी ने नहीं देखा था। पर रहस्य रोमांच कल्पना भय की जैसी सृष्टि चंपतिया के नाम से हुई थी वह बिल्कुल पहला पहला अनुभव था। बच्चे खूब डरते थे और खटिया से उतर कर बिल्कुल सटकर पेशाब करते थे। नाली तक कोई नहीं जाता था। रोज खबर आती कल रात को नरसिंग मंदिर के पास चंपतिया दिखा था। कभी खबर आती की आधी रात को आधा नर और आधा शेर का रुप रखकर चंपतिया निकलता है और जो भी दिख जाता है उसको उठा ले जाता है। मैंने अपनी खटिया सबके बीच में लगा ली थी। देशी आमन गांव से आई थी। बाल कैरी के बाद जाली पड़ने लगी थी । मेरे बगल वाली खाट पर मधु खूब बड़ा मुंह खोलकर सो रही थी । मुझे पता नहीं क्या सूझा मैंने चुपचाप उसक खुले मुंह में गुंईया सरका दी। मधु ने रात में बिस्तर गीला कर दिया था । सुबह उसकी दादी ने जब उसके मुंह में गुईयां फंसी हुई देखी तो राकुड़या..... राकुड़्या कहकर खूब गालियां दी। आस पास के कुछ लोगों ने कहा कि हो सकता है रात में चंपतिया आया हो ! सारे लोग अपने अपने आंगन में खटिया पंलग बिछा कर सोते थे। मुझे ध्यान नहीं आता कि कोई भी व्यक्ति उन दिनों घर के भीतर सोता था। बस सल्ला की बाई जिन्हें मैं मामी कहता था, मोहल्ले में केवल वह ही थी जो घर के भीतर सोती थी। जब हम पूछते मामी तुम भीतर क्यों सोती हो गर्मी नहीं होती ? तो बह बताती थी मखऽ बद्दल को डर लगऽ हऽ। म्हारा खऽ लगऽ कि म्हारा उप्पर बद्दल गिर जायऽगो। मेरे घर के दूसरे हिस्से में कानूनगो नाम का किरायेदार था। उनके दो बेटे और एक बेटी थी। सब विवाहित थे। उनकी लड़की का नाम नन्नी जीजी था। नन्नी जीजी की दो बेटियां थी। मैंने पहली बार उनसे ही सुना कि मां को मम्मी और पिता को पापा भी कहते हैं। नानी एक नया मकान बनवा रही थी। उसको हम नया घर कहते थे। नानी ने लकड़ी के काम के लिए बिछौला से मयाराम खाती को बुलाया था। उसकी बड़ी बड़ी मूंछे थी और वह बड़ा बातूनी था। नन्नी जीजी की लड़कियां मुझसे बड़ी थी। वे दोपहर में मुझे नये घर के धावे पर ले जाती और वहां पर मम्मी पापा का खेल और डाक्टर डाक्टर का खेल खिलाती। ये सब खेल मेरे लिए नये थे। इनकी पारिभाषिकता ,आशय और आनंद का मुझे अनुभव नहीं था। इसमें मैं अक्रिय रुप से उपस्थित होता था। जो कुछ करना होता नन्नी जीजी की लड़कियां ही करती। एक दिन मयाराम खाती हमारे ऊपर खूब चिल्लाया .......ममता ने भी सबसे शिकायत की कि - जे कोन जानऽ काई काई खेलऽ हऽ...हमारी चाल के सिरे पर धापू मावसी रहती थी। उनको मेरी मां ने गुरु बैण बनाया था। उनके घर हमेशा मेहमानों की भीड़ लगी रहती। ज्यादातर निकम्मे लोग। सब के सब टुक्कड़खोर । काम केवल एक आदमी करता था उसको हम रामरज भैया या बूद़या भैया कहते थे। वह दर्जी था। और अपने परिचय में बताता था कि मिसन चलता है। इसके अलावा धापू मावसी के दो और लड़के थे। बड़ा हर्या और सबसे छोटा मक्खन। बूद्या बीच का था। धापू मावसी के पति का नाम रद्दूजी था। वे कुवड़े थे। वे हकलाते थे। उनको लोग अदबया भी कहते थे । उनका बड़ा बेटा हर्या भी हकलाता था। शायद हर्या के बच्चे भी। हर्या की शादी हो गई थी उसकी चार पांच लड़कियां और दो लड़के थे। हर्या की पत्नी को हम सब बैरी भाभी के नाम से जानते थे। धापू मावसी और उनकी हम उम्र सखी सहेलियां तो उनको निक्खर बैरी ही कहती थी। बैरी भाभी का असली नाम मालती था। उनको एक बार विसम का बुखार हुआ जिससे वे बहरी हो गई थी। हर्या को भी खूब मोटा चश्‍मा लगता था। हर्या को कभी कभी बूद्या भैया गुस्से में बाबूजी भी कहता था और सामने की थाली खीच लेता था। खीजकर चिल्लाकर कहता - म्हारा माथा पऽ क्यों साको करऽ हऽ यार तू ..! कुछ काम धाम क्यों नी करतो ?अबकी तो मऽ बी घर छोड़ खऽ पिंड छुड़ऊंगो तू सऽ। यह कलह कई बार होता पर याद नहीं आता हर्या ने कभी कोई काम किया हो! हरया नवम्बर से मार्च के महिने तक कोट पहनता था। नीचे पजामा। गले में मफलर ।बहुत मोटे लैंस का चश्‍मा और हकलाते हुए ह...का उच्चारण उसके व्यक्तित्व को मुकम्मल करता था। वह हतई का भी एक नम्बर का उस्ताद था। पूरे मोहल्ले की औरतों और अपने रिश्‍तेदारों के घर जाकर वह रोज खूब स्यानी स्यानी बातें करता था। पर काम धाम कुछ नहीं। धापू मावसी के घर कई मेहमान हमेशा बने रहते थे कई तो महीनों के लिए। मसलन मंगू जी, इंदरराज, बिलबिल भाभी,रुकमणी बैण, सुनील, न जाने कौन कौन । इसके अलावा दो तीन दिन के लिए आने वाले मेहमान अलग थे । मंगूजी हमेशा चड्डी और बंडी पहने रहते। वे भी कभी कभार मिसन चला लेते थे। पर ज्यादातर नहीं। बिलबिल भाभी मंगूजी की पुत्रवधु थी उनका एक लड़का रजेश था। बिलबिल का पति रेलवे केंटिन भुसावल में काम करता था। रजेश मुझसे साल दो साल छोटा था। विगत पच्चीस तीस साल पहले ही वे हरदा से भुसावल चले गये थे। कुछ दिनों पहले ही पता चला कि मंगूजी तो काफी पहले ही पर उनके पुत्र , बिलबिल भाभी और सबसे त्रासद खबर यह कि उनका पुत्र रजेश जो मुझसे भी दो साल छोटा था इस संसार से चले गये। रजेश को बताते हैं कि एड्स हो गई थी। धापू मावसी की पच्चीस एकड़ जमीन कड़ौला गांव में थी पर विश्‍नोईयों के द्वारा तरह तरह से दिक्कत देनें पर वे गांव छोड़कर हरदा आ गई थी। रिश्‍ते निबाहने में उन जैसे कम लोग ही मुझे देखने में आये । दूर दूर तक के , जाति तो जाति दूसरी जातियों के भी लोग उनके घर आकर रहते ठहरते थे। उनके घर जब मेहमान बढ़ जाते तो बैरी भाभी एक लोटा पानी सब्जियों में बढ़ा देती थी। बैरी भाभी को हर साल दो साल में संतान प्राप्ति हो जाति थी । उनकी एक लड़की का नाम चीटी था । वह हरताली तीज के दिन पैदा हुई थी । उस दिन अजनाल में इतनी पूर थी कि हमारे पूरे मोहल्ले में पानी भर गया था। नदी का पानी धापू मावसी की घर में भराने को ही था। पर मुझे नहीं याद कि वे इससे भी जरा विचलित हुई हो। व्यग्रता को उन्होंने जाना तक नहीं था। गुस्सा मन में ही रखती। वह कहती भी थी कि लड्या सऽ टल्याऽ भला

धर्मेन्द्र पारे



एक थी दुल्ली बुआ... आगे कभी..................

बुधवार, 2 दिसंबर 2009

गुडडु के आतंक से मुक्ति , मोहल्ले का कुआ ,काब्जे, और सुनील के जलवे

गुडडु के आतंक से मुक्ति , मोहल्ले का कुआ ,काब्जे, और सुनील के जलवे

पांचवी कक्षा में आते ही मैंने भी पटवा बाजार से प्लास्टिक का नारंगी रंग का तीन धारी वाला कमर पट्टा खरीद लिया था । लड़ाई झगड़े में पत्थरों और गालियों के बाद वही मुख्य हथियार हुआ करता था। गुड्डु धोबी मुझे रोज मारता था। उसकी हिम्मत यहां तक बढ़ गई थी कि जब मैं अपने घर के कोट पर चढ़ा होता तब भी मारकर भाग जाता। दरअसल स्कूल और मोहल्ले में यदि किसी की चलती थी तो पहले नम्बर पर रामकिशन और उसके रिश्‍तेदारों की जिनका नाम ही काफी हुआ करता था। स्कूल परिसर के बाहर भी इनका ही रंग हुआ करता था। सारे बच्चे इनकी बोली वाणी पहनावा लहजा चाल ढाल का अनुसरण करना चाहते थे । मानों वे मानक हो मानों वे आदर्श हों। स्कूल परिसर में मास्टरों के लड़कों की भी अच्छी चलती थी। संजय तिवारी हेडमास्टर का लड़का था, सतीश कुरेशिया पंडीजी का और रतनदीप चंद्रवंशी गुरुजी का। स्कूल के बाहर कहार मोहल्ले में ब्रह्मा विष्णु महेश की भी अच्‍छी धाक बन रही थी। पर बस उसी धानी फुटाने वाली गली में उनका नाम ज्यादा था। शेष मोहल्ले के किंग तो दूसरे ही हुआ करते थे। दरअसल गुड्डु ,ब्रह्मा विष्णु महेश की गली में रहने आ गया था । उसको संरक्षण की गलतफहमी हो गई थी। एक दिन गुड्डु ने नेड़गुड़ की बड़ी बड़ी सोंटी लगभग लट्ठ नुमा लेकर मुझे तिगड्डे पर मिलाया और मारने दौड़ा। पता नहीं साथ देने या दर्शक के रुप में दो चार और भी लड़के साथ में थे । मुझे लगा मौत साक्षात सामने है त्वरित मेधा से मैंने पहले धूल उठाया गुड्डु की ओर फेंका । निशाना सही लगा युद्ध का नायक परास्त होने जा रहा था वह भी अपनी ही गली में । अपने ही सरदारों के साथ -सामने। गुड्डु की आंख में कचरा जा चुका था। मौके का फायदा पूरा उठाया गया ! गुड्डु से सोंटी छीन ली गई । उसी सोंटी से उसको भयानक रौद्र रुप में सूता गया। बिल्कल उधेड़ दिया । गुड्डु रो रहा था। गुड्डु के सरदार मेरी तरफ हो चुके थे वही जो कुछ देर पहले गुड्डु को उकसा रहे थे! रण जीत लिया था। मैं रामकिशन, उत्तम ,लल्लू और मानसिंग की तरह सीना तान कर चल रहा था। घर पहुंचा गुडडु की बाई झगड़ा करने आई मैंने उनको भी गालियां ठननाई। गुड्डु के काका सुरेश को न जाने मैं क्यों मैं अपने एरिया का सबसे बड़ा दादा मानता था। सुरेश लंगोट लेकर रोज चौकी अखाड़े जाता था शायद इसलिए। पर सुरेश सेहत से बहुत कमजोर छोटा सा और दुबला पतला था । सुरेश उन दिनों शाम को कुए की पाली पर बैठता था। कुआ गली में, तेलियों के मकान जो अब राठौर धर्मशाला में बदल गये है के पास था। वह गुलाबी चौड़ी वेल वाटम पहनता था बालों को सिनेमा के हीरो की तरह घुमाता था। उसकी जेब में हमेशा एक कंघी रहती थी। जब तब जिससे वह बाल संवारता रहता था। शाम को उसके पास सप्पु पहलवान भी आकर बैठता था। सुरेश स्कूल तो नहीं जाता था पर दिन भर सिनेमा के गाने जोर जोर से गाता था और चौकी अखाड़े के पहलवानों की स्टाइल में चलने की एक्‍शन करता था। उन दिनों मुझसे बड़े कुछ लड़कों की जेब में बटन वाला चाकू भी हुआ करता था। मैंने बटन वाला पीतल और लोहे का चाकू पहली बाद पदम पहलवान के पास देखा था। राजा मुझसे अक्सर कहता था कि जब भी गोलापुरा वालों से झगड़ा होगा मैं तो हीरु भैया के घर से चाकू ले आऊंगा। नवा कहता था उसके घर तो पहले से ही है। शंकर अपने रिश्‍ते सीधे सीधे चंदू खलीफा से बताता था। मुझे अपनी असहायता पर बहुत दुख होता था। ऐसे मौको पर मुझसे कुछ बोलते नहीं बनता था। बोलने की कोशिश करता तो खिसिया कर रह जाता। मुझे लगता मैं बहुत दरिद्र हूं। ऐसे समय मुझसे पढ़ने और खेल कूद में बहुत कमजोर और पीछे रहने वाले राजा और नवा के चेहरे पूरे खिले होते। हालांकि कंचे खेलने में मेरा निशाना गजब का था। खूब सारे कंचे जीतकर मैं उन्हें हीरा सांई के टप पर सस्ते में बेच भी आता था। यह मेरी कभी कभार की आय का जरिया भी था। भौरा मैं ऐसे घुमाता था कि जमीन पर गिराये बिना सीधे हथेली पर ले लेता था । पर सोचता इससे क्या होता है ? आखिर मेरे पास बटन वाला चाकू तो उपलब्ध नहीं है ?शंकर सुतार, डिबरु पंडित, खालिक,दयाल, कमल आदि रहते तो हमारे घर के आसपास पर ये लोग राजा नवा और मुझसे अपने को इसलिए बेहतर मानते थे क्योंकि ये खेड़ीपुरा स्कूल जैसी थर्ड क्लास स्कूल में नहीं पढ़ते थे। उन दिनों ये लोग अन्नापुरा, मानपुरा, शुक्रवारा स्कूल में पढ़ने जाते थे। इनके घर परिवार के लोग कहते भी थे कि खेड़ीपुरा स्कूल में पढ़ने से बच्चे बिगड़ जाते हैं।


कुए में दो बड़े बड़े काब्जे थे। मस्जिद के पास रहने वाले लड़के जब तब समूह में आते और अपने गल से उन्हें पकड़ने की कोशिश्‍ करते थे । मुझे ऐसे समय बहुत बुरा लगता था और मैं सोचता था कि गुड्डु का काका सुरेश ऐसे बुरे समय में जरुर आयेगा और इन लड़कों को भगा देगा । पर कुछ दिनों बाद मेरा इस विश्‍वास से मोहभंग हुआ जब उन लड़कों ने सुरेश को मेरे सामने ही घर जाकर चमका दिया । सुरेश मेरी निगाह में अब छोटा हो चुका था । मानों उसकी पोल खुल कई । पॉलिश उतर गया । जब नल नहीं आते थे तो पूरे मोहल्ले की औरते कुए पर ही कपड़े धोती थी। और जिन लड़कों को तैरना आता था वे ऊपर से कूदकर नहाते थे। सुरेश धोबी और सुनील नाई का नम्बर उसमें सबसे ऊपर था। मुझे उस कुए में नहाने की कतई इजाजत नहीं थी। हांलाकि मैं अपने गांव की नदी में सुतार घाट पर उससे भी कहीं ज्यादा ऊंचाई से कूदकर नहाता था। एक दिन रात को राजा की नई वाली बाई ने उसमें छलांग लगा दी। दरअसल राजा कि मां बचपन में ही नहीं रही थी। उसके पिताजी जिन्हें हम लच्छू मामा कहते थे की यह तीसरी शादी थी। राजा की नई बाई का कुए में कूदना था कि पूरे मोहल्ले की भीड़ वहां लग गई। कोई रस्सी लेकर दौड़ा तो कोई दिया लेकर। तेलन माय ने चिमनी को उल्टा ही कर दिया उजाला तो नहीं हुआ पर चिमनी भभक गई और उनको चटका लग गया। उन्होंने चिमनी कुए में ही टपका दी। पर जितनी देर भी उजाला हुआ उतने में सबने देख लिया कि राजा की बाई सकुशल है। वे कुए में आड़े लगे एक डंडे पर खड़ी हो चुकी थी। नायन माय ने बाद में बताया कि वह तो नर्मदा की तैराक रही है। दूसरी औरतों ने इसके पहले भी इस कुए में कूदने वाली औरतों के बारे में जिक्र किया और बताया कि पर देव बाबा का कुछ ऐसा परताप है कि इसमें कोई मरता नहीं है। कुए के प्रति मेरे मन में बड़ी श्रद्धा उत्पन्न हो गई। पर पूरे मोहल्ले में यह माना जाता है कि गढ़ीपुरा में घुसने के लिए मोरे के पास जो सेंदरी है उसमें भूत है । रात में वहीं से ढोलक और घुंघरु की आवाज आती है। बावजूद इसके ठंड के दिनों में नवा, राजा,शंकर और नवा का भाई माणक आदि हमलोग मिलकर रात में कहीं न कहीं से साइकिल के टायर, लकड़ी के छिलपे और कभी कभी कहीं से कंडे भी चुराकर आग जलाते और तापते हुए बहुत देर तक भूत की बात करते पर उस सेंदरी की तरफ देखते भी नहीं। सुनील आता तो विद्रोही भाषा में बात करता। तब तक वह घर से दो तीन बार भाग भी चुका था। यूं कई लड़के उन दिनों घर से भाग जाते थे। पर सुनील की बात कुछ और थी। वह कई कई दिनों और महीनों बाद आता था। वह बताता था कि इस बार वह बंबई जेल में बद रहा तो कभी बताता कि वह नाशिक जेल में बंद रहा। हकीकत में उसकी भुआ के लड़के मनोहर भैया उसको एक बार तो इंदौर से पकड़कर लाये थे। वह अपने काकाजी की पहलवानी के किस्से सुनाता था और बताता था कि वे जवानी के दिनों में जब रियाज करते थे तो जब वे एक पांव पर खड़े होते थे तो धरती एक तरफ झुक जाती थी । पर सुनील की उसके काकाजी से पटती नहीं थी। ऐसे और भी लड़के थे जिनकी अपने बापों से नहीं पटती थी। वे मुझे घर से बुलाते और कहते जरा हमारे घर देखकर आओ वो मेरा मादर....बाबू तो नहीं आ गया ? दरअसल उस बेचारे की मां कैंसर से मर चुकी थी और बाबू ने अपनी शिष्‍या को ब्याह लाये थे। मुझे नहीं याद है कि आठवीं कक्षा तक हम दोस्तों ने कभी घर पर किसी प्रकार का होमवर्क किया हो। बस्ता स्कूल में ही खुलता था। बाकि समय घर की खूंटी पर मौन टंगा आराम कर रहा होता। घर में खूटियों और आलों की कोई कमी नहीं थी। कुछ आले चिमनी जलने के कारण काले पड़ चुके थे। घर कच्चा था। मिट्टी से छबा हुआ। कभी कभी उसके पोपड़े निकलते थे। जो कुछ पढ़ना वह स्कूल में ही। बाहर तो बस खेल ही खेल। रात में इंदरराज दाजी से कहानी सुनना।(सतत जारी ;;;;)

धर्मेन्द्र पारे

मंगलवार, 1 दिसंबर 2009

मोजू बाबा पड़िहार की बैठक और मेरा इलाज

मोजू बाबा पड़िहार की बैठक और मेरा इलाज

जब हम दीपावली की छुट्टी में गांव गये तो गांव भर की कई बूढ़ी औरतें जो मुझे जरुरत से ज्यादा ही लाड़ करती थी देखने आई और सबने मिलकर मोजू बाबा की धाम में ले जाने का निश्‍चय किया। मोजू जाति का तो मेहतर था पर उन दिनों उसकी यश प्रतिष्ठा का कोई मुकाबला नहीं था। आस पास के दस बीस गांवों में वह सबसे बड़ा पड़िहार था। उसपर गांव बालों को बड़ा भरोसा रहता था। जो व्यक्ति चंपालाल पंडित तक नहीं पहुंच पाता था वह सीधे मोजू के पास ही जाकर ठहरता था । वह कई भूत प्रेतो को भगा चुका था। यूं गांव में मोजू के अलावा भी कई पड़िहार थे । गेंद़या गाडरी, सुक्का बसोढ़,गुलाब कोरकू,गुट्टू गाडरी,लक्खू बलाही जागेसर गाडरी, बिहारी कहार समेत कई लोगों को तरह तरह के देव आते थे। ऐसी कोई बाखल बाकि नहीं थी जहां पड़िहार न हो जहां देवों की धाम न लगती हो जहां मथवाड़ न गूंजती हो मेरे गांव में नई नवेली अधिकांश बहुओं को जिन्न,भूत, प्रेत, चुड़ैल, दाना बाबा लग जाते थे। समाज में कैसी भी क्रूर जाति प्रथा रही हो भूत प्रेत बाहरबाधा की घड़ी अर्थात आपातकाल में लोग सब भूल जाते थे। अच्छे अच्छे राजपूत, कुड़मी बामन, बनिये मोजू बाबा के ओटले तक जाते थे। मोजू की उन दिनों हमारे परिवार से बातचीत नहीं थी। कारण हमारे पिताजी के चचेरे भाई ने मालगुजारी दौर में कभी उसकी टापरी जला दी थी और गोली भी चलाई थी।यूं मोजू बाबा का लडका कैलाश मेरे प्रिय मित्रों में था । वह गांव भर में सबसे अच्‍छी पंतग बनाना जानता था । मैं पॉंच दस पैसों में उससे पतंग खरीदता भी था । मोजू बाबा के ओटले पर अच्छी खासी भीड़ थी। उसका रजाल्या पास में ही बैठा था। मोजू पड़िहार सेली से बाहरबाधा ग्रस्त लोगों की पिटाई कर रहा था। मेरा नम्बर आया पर मोजू बाबा ने बस दानमान देखे और कुछ बाहर बाधा बताई । शायद मुझे सेली मारने की उसकी हिम्मत नहीं थी। शायद मेरी सामाजिक आर्थिक पृष्ठभूमि के प्रेत बड़े भयावह थे जो उसके देवों पर भी भारी पड़ सकते थे। मैंने दशहरे के दिन भी देखा कि जब पड़िहारों के शरीर में देव आता था और वे लाल लाल पजामें पहनकर, चाकू या तलवार पर नीबू लगाकर एक विशिष्‍ट शैली में नृत्य करते हुए नीर (जिसे देव कूदना भी कहते हैं ) लेने नदी पर घर के सामने से निकलते थे, वे देव भी दादाजी के पांव पड़ते थे। मुझे यह समझ नहीं आता था कि देव तो भगवान होते हैं वे तो अच्छे अच्छे भूत से भी नहीं डरते फिर दादाजी के पांव क्यों पड़ते हैं ?क्या दादाजी भूत से भी ज्यादा ताकतवर हैं ? दादाजी अर्थात पिताजी के बड़े भैया। बड़ा रौब दाब रहा उनका गांव में। उनके जैसा जोर जोर से चिल्लाने वाला और गाली बककर गांव गर्जा देने वाला मर्द मैंने नहीं देखा। कभी कभी वे अच्छे मूड में होते तो बताते थे कि पहले जब गांव में महिलाएं गड़व्या खेलती थी तो कई बार भूतड़ी और चुड़ैल गड़ब्या उठाकर भाग जाती थी और फिर खैड़ी पर गड़व्या रखकर नाचती थी। यूं गांव में भूत प्रेत के किस्से खूब चलते थे । हम बच्चे भी मानते थे कि सुतार घाट पर रात में भूत नाचते हैं। बच्चों में यह भी प्रचलित था कि गांव में लुकमान पिंजारे का भाई जब नार लेकर सुस्तया वाले खेत में गया था तो एक बार उसने भूत से कुश्‍ती लड़ी थी। भूत ने पहले उससे बीड़ी मंगी थी। उसने गलती यह की थी कि भूत की बात का उत्तर दे दिया था। पर जब उसने उसके उल्टे पांव देखे तो डर गया। फिर उसने सोचा डरने से क्या फायदा। दोनों में खूब कुश्‍ती हुई। उसने भूत की चोटी अपनी कुल्हाड़ी से काट ली। भूत ने फिर खूब हाथ पांव जोड़े फिर भूत ने उसको जलेबी और गुलाब जामुन खिलाई। दरअसल उन दिनों गरीबो के लिए गुलाब जामुन और जलेबी खाना दिवास्वप्न ही था । अच्छे अच्छे किसानों के यहां गोरस और पूरी की ही पंगत होती थी । कभी गांव में खुदा न खाश्‍ता कढ़ाय हो जाये तो उस दिन पारक्या ढोर नहीं छोड़ते थे। सब खाकरे के पत्ते ले लेकर तैनात खड़े रहते थे। कल्लू और शिवजी नाई की ऐसे समय खास भूमिका होती थी। गांव भर की भीड़ इकट्ठी होती थी । जिनकी आपस में तनातनी या तड़बंदी होती वे भी वहां मौजूद रहते थे ।
                          हमारे घर में बहुत पर्दा प्रथा थी। काकी और बड़ी बाई हमेशा छत पर्दे लगी गाड़ी से ही बाहर निकलती थी। वो भी घर के आगे से नहीं पीछे खले में गाड़ी जाती थी वहां सिर पर घूंघट डाल कर पहले गाड़ी के पांव पड़ती फिर गाड़ी में बैठती थी। गाड़ी गेरने वाला हमेशा पटली पर बैठता था। उसको गादी पर बैठने की इजाजत नहीं होती थी। हमारे घर से महिलाएं गांव में कभी भी दूसरों के घर नहीं जाती थी। न शादी में न मृत्यु में। न जन्म में न तीज त्यौहार में। फिर भी अधिकांश घरों से महिलाएं हमारे घर आती जाती थी।

धर्मेन्द्र पारे

सोमवार, 30 नवंबर 2009

टी.बी. का अच्छा होना और डाक्टर की पिटाई

टी.बी. का अच्छा होना और डाक्टर की पिटाई

हमारी स्कूल हरदा भर में बदनाम थी। हम बच्चों को दूसरी स्कूल के शिक्षक भी अच्‍छी नजर से नहीं देखते थे। जब टूर्नामेंट होते तो हमारी स्कूल के बच्चे ही सबसे ज्यादा ईनाम पाते थे। अकरम , उत्तम , मानसिंग को कुश्‍ती में , जान मोहम्मद मिनी व्हालीबाल और कबड्डी में, मैं ऊंची कूद, लम्बी कूद, तिरतंगी दौड़, सौ मीटर, दो सौ मीटर दौड़ खो खो में हमेशा आगे रहता। खेड़ीपुरा स्कूल में मैंने आठवीं कक्षा तक पढ़ाई की। लगभग पूरे समय मैं ही स्कूल में ड्रिल और स्काऊट का कैप्टन रहा। चैथी पांचवी कक्षा के दौरान मुझे बार बार बुखार आता था। पिताजी को किसी डाक्टर ने बता दिया कि मुझे टी.बी. हो गई है। मुझे रामप्रसाद डाक्टर जो हरदा के चिकित्सा इतिहास की सबसे बड़ी तोप माने जाते थे को दिखाया गया। उन्होंने इंदौर के अकबरअली और किसी मुखर्जी डाक्टर की ओर रिकमंड कर दिया। मैं घर का अकेला चिराग था। बुझने का खतरा था। मां रात रात भर मुझे गोदी में सुलाये रहती। पिताजी बहुत चिंतित रहने लगे । मेरा टी.बी. का ईलाज शुरु हो गया। मुझे जबरन इंजेक्‍शन और गोली दवाई दी जाने लगी। मेरा खाना पीना छूट गया। मां मुझे तरह तरह से चिरौरी करती पटाती कि मैं एक रोटी दूध के साथ खा लूं । पर मेरी भूख मर चुकी थी। बरसात के दिन थे। बरसात में किसान बुरी तरह कड़की में होते थे। पूरी तरह आढ़तियों पर निर्भर। उन दिनों पिताजी और उनके बड़े भाई के बीच जमीन जायदाद को लेकर खूब विवाद चल रहा था। कोर्ट कचहरी भी। पिताजी ने दादी के पास अपने हिस्से की पायगा की म्याल मांगी ताकि उसको बेचकर मेरा इलाज करवाया जा सके। पर विवाद के चलते उन्हें वह नहीं मिली। आखिर सकुचाते झेपते पिताजी जीवन में पहली बार वल्लभ सेठ तापड़िया के घर गये। उनको उदास खामोश देख वल्लभ सेठ ने कारण पूछा। पिताजी ने कातर स्वर में समस्या बताई। वल्लभ सेठ ने पिताजी को बहुत ढांढस बंधाया और कहा कि मेरे पैसे भी सब आपके ही हैं यह कहते हुए पांच सौ रुपये उन्हें दे दिये। मेरे बुजुर्ग पिताजी से यह कथा आज भी ऋण भाव से सुनी जा सकती है । हालांकि अब न पिताजी खेती करते न वल्‍लभ सेठ इस दुनिया में रहे । न उनकी अढत रही । पिताजी अपने चचेरे भाई जो परिवार में काफी होशियार माने जाते थे, जिन्हें बंबई कलकत्ता घूमने रेस लगाने मयकशी करने का काफी अनुभव था,जिन्होंने मालगुजारी दौर में बंदूक चलाने , लड़ाई झगड़े करने और नर्तकियों को नचाने जैसे काम भी किये थे को साथ चलने के लिए तैयार किया। मुझे मोटर में बैठने का सुख कम ही मिल पाता था। मोटर में घूमने की बड़ी तमन्ना रहती थी। गजानंद बस से हम इंदौर चले। एक बस ने हमें हंडिया उतार दिया। उन दिनों नर्मदा का पुल नहीं बना था। हंडिया से हम नाव में बैठकर नेमावर पहुंचे वहां गजानंद बस सर्विस की ही दूसरी गाड़ी खड़ी रहती थी उसी में बैठकर हम इंदौर चले। एक लॉज में रुके। पहली बार इंदौर देखा। पहली बार चाकलेटी चाय पी। पहली बार अमानुष फिल्म देखी। पहली बार एक पंडत के घर रांई डली तुअर दाल चखी। वहीं पहली बार हरदा के बाहर के किसी बच्चे को पीटा। मुझे अकबरअली डाक्टर को दिखाया। मेरे खून और पेषाब की जांच हुई। डाक्टर ने ठीक अलसी के दानों जैसी कोई दवाई दी जिसकी मुझे बहुत बदबू आती थी खाने के नाम से ही मैं उल्टी कर देता था। हरदा लौटे तो पिताजी मुझे इंदौरीलाल डाक्टर के पास इंजेक्‍शन लगवाने ले गये। मैंने आव देखा न ताव और इंदौरीलाल डाक्टर के पुट्ठे पर जूते भरी एक लात जोर से मारी और फुर्र से भाग खड़ा हुआ। कोई कुछ समझ पाता तब तक घटना घटित हो चुकी थी। फिर क्या था कई लोगों ने मुझे पकड़ा जोर जोर से चीपा। मेरी पैंट उतारी और इंजेक्‍शन लगाया गया। ऐसा आगे भी हुआ। एक बार इंदौर में ब्लड टेस्ट करने वाली एक नर्स को भी मैं मारकर भाग खड़ा हुआ था। आगे से पिताजी ने बहुत ही ऐहतियात बरती। मुझे आठ दिन में एक बार इंजेक्‍शन लगवाने का हुक्म था। कई लोगों की मदद से मुझे इंजेक्‍शन लगाना संभव हो पाता था। एक तो मैं दौड़ने भागने में बहुत तेज था अच्छे अच्छों के हाथ नहीं आता था।दूसरा धारा प्रवाह गाली बकने का अभ्यास था। पत्थर अच्छे से सन्ना सकता था। यानि कई कबिलियत एक साथ थी। घर पर जितने भी मिलने जानने वाले आते अपनी कोई न कोई दवाई जरुर बता जाते । ऐसे जैसे इसके लेते ही मैं चंगा हो जाऊंगा । कोई किसी पीर फकीर का पता देता कोई देव धामी गंडे ताबीज का । एक दिन हरदा की मशहूर रईस सावित्री बाई पटलन को देखने कोई बड़ा डाक्टर इंदौर से हरदा आया था । मेरे बड़े पंडीजी पांडुलाल तिवारी के माध्यम से मुझे भी वहां ले जाया गया । भला हो उस डाक्टर का जिसने मुझे एक बड़ी यातना से बचाया। डाक्टर ने मुझे देखा परखा मेरी एक्टिविटिज अर्थात कूंदने फांदने दौड़ने के किस्से खुद हेडमास्टर से जाने और पिताजी को आश्‍वस्त किया कि अब सारी दवाई बंद कर दें मुझे कोई टी.बी.बी.बी. नहीं है । और सचमुच मैं बहुत अच्छा हो गया ।(सतत जारी...)

धर्मेन्द्र पार

शनिवार, 28 नवंबर 2009

बकरियों की पत्तियां और ओऽ..ऽ बाई ऽ राख डाल दो ...




पांचवीं कक्षा में पहुंचने पर हमें कुछ और विद्यार्थी साथी मिले जो विगत वर्ष अपनी परीक्षा में फेल हो चुके थे। उनमें दो तीन सफाई कामगारों के लड़के थे। वे कभी स्कूल आते कभी नहीं। उन दिनों सिर पर मैला ढोने की कुप्रथा आम थी। वे छोटे छोटे बच्चे भी अपनी माताओं के साथ उस काम में हाथ बटाने लगे थे। वे एक विशेष टेर और लय के साथ घरों में आवाज लगाते - ओऽ..ऽ बाई ऽ राख डाल दो ...। या ग्रहण का दान मांगने आते। कभी हमारी उनसे आंख मिल जाती तो हम लोग आंख चुरा लेते। दोनों सामना नहीं करते। स्कूल में भी वे हमसे कटे कटे रहते। ऐसा कुछ और सहपाठियों के साथ भी होता था। जब कभी अपने परिवार के साथ पंगत जीमने धरमशाला में जाना होता , पंगत के बाद झूठी पत्तले और उनपर छोड़ी गई मिठाई , पूड़ी,सब्‍जी धरमशाला के बाहर फेंकी जाती कुछ बच्चे, देशी कुत्ते, कौऐ,देशी सूअर एक साथ उनपर झपट पड़ते । कौओ और सूअर को कुत्‍ते डराते कौए थोडा सा उपर उडते फिर झपट्टा मार के चोंच में टुकडा भर लेते। मोहल्‍ले में आम तौर पर कुत्‍तों के डर से तुरक तुरक भागने वाले सुअर यहॉ आकर ढीठ हो जाते थे । बस कुत्‍तों की कुत्‍ताई का अहंकार बना रहे ऐसा कुछ वे अभिनय करते और कुत्‍तों को लगातार यह अहसास कराते कि वे अब भी उनसे डरते हैं यानि कुत्‍ते उन्‍हें डराते तो वे थोडा भागने का अभिनय करते फिर वहीं आ जाते । कुत्‍तों सुअरों कौओ को  जो बच्‍चे खदेड्ने का काम करते थे  उनमें कुछके मेरे सहपाठी भी होते । मैंने कई बार उन्हें कातर स्वर में गिड़गिड़ाते और एक विशेष लगने वाली लय और चेहरे पर पूरी कातरता दीनता लाकर मांगते हुए सुना- ओ बाईऽ !! भूख लगी है । दे दे बाईऽ... । उनसे मेरी जब आंख मिलती हम दोनों की स्थिति बड़ी अजीब हो जाती !! जैसे हम दोनों इस यथार्थ को नकार देना चाहते हों !! जैसे पट्टी पर लिखी कोई इबारत को हम जल्द एक झटके से झपट कर मिटा देते थे !! कुछ वैसे ! मेरे ऐसे सहपाठी एक आध कक्षा ही पढ़ सके । उस कक्षा में भी वे कभार ही आते थे । काल के गाल में आगे वे कहां विलो गये कुछ पता नहीं । उनके चेहरे उनकी आंगिक भंगिमाएं उनके स्वर ..मेरी स्मृतियों में जब तब उभरते हैं । जब तब ...जब मैं अपने बचपन में खोया होता हूं ..समय के कुछ पन्ने कुछ दृश्‍य ही देखता हूं कि छोटली और कुत्ते, नवा और रामकिशन, चंदू भैया और हीरु पहलवान, कंचे, अंटी, भौरा, दो कोंड जैसे गड्मड होते कई दृश्‍यों के बीच वे भी अपनी पूरी रंगत के साथ सामने आ खड़े होते हैं और बोलते है बता हमारा जबाव कहां है !!....हमारे एक पंडीजी के घर आठ दस बकरियां थी वे रोज कुछ लड़कों को उनके लिए हरी पत्तियां लेने के लिए आधी छुट्टी में भेज देते थे। पत्तियां तो रोज आती गई पर वे ज्यादातर बच्चे आगामी कक्षाओं तक नहीं पहुंच सके। स्कूल काफी गरीब बच्चों से भरा था। उनके घरों में मृत जानवर उठाने, चमड़े पकाने , जूते सिलने पॉलिश करने, धानी फुटाने और राजगिरे के लड्डू बेचने, घरों में बर्तन मांजने, मछली मारने, नालियां और शौचालय साफ करने , झाड़ू बनाने, सब्जी बेचने, कुंडी बस्सी बर्तन बेचने , कच्ची दारु बनाने, कपड़े सिलने, दूध बेचने, मिट्ठू से भविष्यफल बताने , रुंई पींजने, मटके और ईंट बनाने,लुहारी और सुनारी काम होते थे। कई विद्यार्थियों को बार बार नदी जाना पड़ता था शौच के लिए। कई के चेहरे पीले पच्च थे। कुछ पूरे समय चुप्प घुप्प बैठे रहते थे । उनको बोलते हुए बहुत कम देखा जाता । खिजरे मास्टरों की हाथों वे बुरी तरह पिटते भी थे पर उनके रोने की आवाज भी बहुत धीमे आती थी जैसे वे तत्व ज्ञानी थे कि रोने से भी, बोलने से भी कुछ नहीं होना है। हमारे कुछ दोस्त प्राथमिक शाला के दिनों में ही इस संसार से चले गये। एक दिन खबर आती कि रमेश कहार कल मर गया। कभी पता चला कि गोकल पतली भी नहीं रहा। कभी पता चला कि गुप्‍तेश्‍वर मंदिर के कुए में हमारा कोई हमउम्र मरा हुआ मिला । हम दोस्त फिर आपस में बस चुपचाप रहते। उन दिनों शोक व्यक्त करने के लिए शब्दों का ज्ञान ही कहां था ? जैसे चुप्पी खामोशी ही सबसे सशक्त ज्ञान था। कई बार लगता है कि हमारे चुप रहने वाले सहपाठी इस ज्ञान को ज्यादा गहराई से जानते थे !! (सतत जारी...)
धर्मेन्द्र पारे

शुक्रवार, 27 नवंबर 2009

चंदू खलीफा शटल्ली और मिट्ठू कान का मैल निकालने वाला


चंदू खलीफा शटल्ली और मिट्ठू कान का मैल निकालने वाला

मोहल्ले में उन दिनों अखाड़ेबाजी और पहलवानी का बड़ा जोर था। आधी छुट्टी में आगे पीछे की कक्षाओं के कुछ दोस्त आ जाते और बड़े रोचक किस्से सुनाते । उन दिनों खेड़ीपुरा और गोलापुरा मोहल्ले की तनातनी खूब चलती थी । मैं बड़े विस्मय से यह सब सुनता और घर गांव सब दूर सुनाता । चंदू खलीफा और हीरु भैया दो नाम अक्सर आते थे । पहलवानों में  सोहन मोहन पहलवान, दुर्गा पहलवान, जतन पहलवान और पुराने पहलवानों माखन उस्ताद, सखाराम पहलवान के रोमांचकारी किस्से भी कान दर कान होते हुए हम तक क्षेपकों रुपकों परिष्कार के साथ पहुंचते। दुष्मन पहलवानों में अक्सर प्रहलाद पहलवान का जिक्र आता था। ऐसे किस्से प्रायः रामकिशन और राजेश सुनार सुनाते। राजा नाई उसमें घीं डालता था। जब हम घर लौटते थे तो वह मुझे यह भी बताता था कि वह तो हीरु भैया के घर तक पहुंच रखता है। और जब खेड़ीपुरा गोलापुरा का झगड़ा होगा तो हीरु भैया के घर जाकर भाभी से एक चक्कू मांग लायेगा। मुझे अपनी दीनता और हीनता पर बड़ा दुख होता। राजा से ईर्ष्‍या भी। मुझे लगता था कि अब जीने के लिए चंदू भैया या हीरु पहलवान से जान पहचान होना बहुत जरुरी है। एक दिन मैंने पिताजी से पूछा भी कि क्या वे चंदू खलीफा को जानते हैं ? उन्होंने कहा हां उसके बाप रामकिशन सुनार के घर से ही अपने लिए सुनारी का काम होता है। चंदू खलीफा से सीधा परिचय नहीं होने के कारण मुझे तसल्ली नहीं हुई। मुझे अपने मोहल्ले और अपनी सुरक्षा खतरे में प्रतीत हुई। रामकिशन, नवा, राजा, राजेश, सतीश, राकेश, आदि मेरे पक्कम-पक्के गोंई थे । रामकिशन से हमेशा नूतन और रोचक जानकारी मिलती थी। देखा जाये तो स्कूल के हम बच्चों में रामकिशन की जाति बिरादरी के लड़कों की ही जम के चलती थी। उनके बोलने का बेलौस अंदाज , पहलवानों की तरह सीना तान कर चलना और निडर और निर्भय आचरण वीररस की रोमांचित करने वाली कथाएं सब बहुत आकर्षक लगती थी। हम ज्यादातर लड़के उनकी बोली की नकल करके वैसे ही दादा बनना चाहते थे। उनकी ही तरह मोहल्ले और कभी बाजार में दिखने बनने और प्रकट होने की कोशिश करते कभी कभी सफल होते कभी नहीं। रामकिशन , लल्लू , उत्तम, मानसिंग इनकी रंगदारी से मैं अच्छा खासा प्रभावित था। जब छुट्टियों में गांव जाता अपने गांव के दोस्तों को इनसे पक्की दोस्ती के किस्से सुनता वे सब दीनता से भर उठते। कई बार ठंडी सांस भी लेते। पर मैं उन्हें बेफिक्र करता डरना मत कभी हरदा आओ तो इनका नाम भर ले लेना कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता। रामकिशन से ही जाना कि जंगली सूअर को कैसे मारा जाता है कि शटल्ली के पास कैसे इतने सारे शिकारी कुत्ते हैं। सुअर मार गोले कैसे बनते हैं ? सूअर की चर्बी क्या होती है ? सुअर के बाल कैसे रखे जाते हैं ? कहां बिकते हैं ? महुए से कच्ची दारु कैसे बनती है ? पुलिस आती है तो कैसे नदी के पार तक भागा जाता है ? न जाने कितनी कितनी बातें ! मैं कभी कभी रामकिशन के घर भी जाता था। उसके मोहल्ले में चारों तरफ मोटी मोटी गायें घूमती थी और सर्वत्र महुए की गंध आती थी। जब जंगली सूअर शिकार करके कोई लाता था और उसका बंटवारा विक्रय होता था हम लोग उसको देखने जाते। रामकिशन बताता कि कक्का ने जब घड़ी वल्लम मारी तो सूअर खीस लेकर दौड़ा पन ....जे जा रया हे न कबरा कुत्ता जिनने उसकू पकड़ लिया फिर तो सब कुत्तों ने उसको पकड़ लिया । सूअर का शिकार करने वाले स्कूल के पास से ही जाते थे हाथों में वल्लम , बूच की रस्सियों से बंधे पंद्रह बीस देशी कुत्ते कुछ बिना रस्सी के भी। हम दूर तक उनके पीछे पीछे जाते थे फिर वे नहालखेड़ा रोड पर निकल जाते और हम लोग लौट आते। रामकिशन के मोहल्ले में ही हम दोस्तों को सबसे ज्यादा नई नई चीजों से परिचय होता था जो हमारे लोक संसार में कभी देखने को नहीं मिलती। उनमें एक मिट्ठू नामक आदमी था। वह अजीब वेश भूषा पहनता था और कान का मैल निकालने का काम करता था। उसकी कमर में एक पट्टा बंधा होता था। वह बड़े ओज में जीवंत गाथाएं सुनाता था। हम उसके पीछे पीछे घंटाघर तक चले जाते। (सतत ------)


धर्मेन्द्र पारे




गुरुवार, 26 नवंबर 2009

जहर का इंजेन ,नवा तेली और अंबिका होटल के आलूगोंडे

जहर का इंजेक्‍शन ,नवा तेली और अंबिका होटल के आलूगोंडे



तीसरी कक्षा में हमें नेगी पंडितजी अर्थात स्व.गिरिजाशंकर नेगी पढ़ाने लगे वे आजीवन अविवाहित रहे। कलाकार एक नम्बर के थे। चित्र बनाने में उनको बड़ा मजा आता था। वे पेंसिल या चांक से बड़े सुंदर चित्र बनाते थे । वे चाहते थे मैं चित्रकार बन जाऊं पर बाकि के सभी गुरुजी चित्रकला से नफरत सी करते थे। यदि रंगीन पेंसिल से कुछ बनाओं तो वे डाटते डपटते। आज के बच्चों की तरह हमे रंगीन स्केच पेन पेंसिल कभी मयस्सर नहीं होते थे। हमारे पास आज की तरह कभी भी बैग नहीं रहे। कपड़े की एक थैली होती थी जिसमें एक स्लेट जो पट्टी कहलाती थी,बरतना,और गणित विज्ञान भूगोल और भाषा तथा सहायक वाचन की पुस्तक होती थी। इन्हीं विषयों की कापियॉं भी होती थी। एक आध नीव वाला पेन होता था। बस्ते पर स्याही के तरह तरह के दाग लगे होते थे। बस्ते पुरानी पैंटों या मोटे कपड़े से बनवाये जाते थे। हमने पहली बार एल्यूमीनियम जिसे कस्कूट कहते थे की पेटी पंकज बाफना के पास हैरत से देखी थी। पंकज बाफना नगर के प्रताप टाकिज के मालिक का लड़का था जो कुछ दिनों तक पांडुलाल तिवारी हेड मास्टर के कारण पढ़ने आया था। उसको छोडने कभी कभी कार भी आती थी। नेगी पंडितजी के कपड़े हमेशा क्रीज बने होते थे। शर्ट इन करने वाले वे हमारे इकलौते शिक्षक थे। बड़ा खूबसूरत पेन रखते थे और सिगरेट पीते थे। उनक जैसा सलीके के परिधान पहनेवाला मैंने जीवन में आज तक नहीं देखा। वे प्रायः गंभीर रहते थे। वे शाम को जलखरे पंडीतजी की पुस्तकों की दुकान या तिवारी स्टोर्स पर बैठे मिलते थे उनको देखकर हम छुप जाते थे। वे बहुत कम मारते थे। चैथी कक्षा में हमें चंद्रवंशी पंडीजी मिले। वे रामचरित मानस का बड़े मधुर स्वर में पाठ करते थे। इतना अच्छा की बस सुनते ही रह जाओ । इस कक्षा में  मेरे मोहल्ले का नवा तेली जिसका स्कूली नाम नर्मदा प्रसाद बद्रीप्रसाद राठौर था , वह भी फेल होकर साथी बन गया था। रामकिशन श्रीकिशन कुचबंदिया भी इसी कक्षा में मेरा मित्र बना। राजेश पूनमचंद सोनी भी इसी कक्षा में मिला। अब हमारा समूह नये नये दोस्तों से भर गया था। एक दिन स्कूल में अस्पताल से बी.सी.जी. का टीका लगाने कुछ लोग आये थे। हम बच्चों के बीच अक्सर यह अफवाह चलती रहती थी कि बच्चों को जहर का इंजेक्‍शन लगाकर पुल के नीचे गाड़ दिया जाता है। ऐसे हजार बच्चे गाड़े जायेगें तब जाकर ही पुल बन सकेगा। कम्पाउंडर ने स्प्रीट लैंप जला लिया था। इंजेक्‍शन तैयार हो रहा था। हम बच्चों को मौत बहुत निकट दिख रही थी। फैसला फौरन लेना था। कुछ वीर प्रकृति के बच्चों ने अगुवाई की बस्ते को पीठ की तरफ टांगा और खिड़की में से भदाभद कूद कर नाके वाली सड़क पर भाग गये। देखते ही देखते पूरी कक्षा खाली हो चुकी थी। सड़कर पर एकतित्र होकर हम जोर जोर से रोने लगे। दुख और गुस्से से हम भरे हुए थे। हमने पास में ही पड़े रोड़े , अद्दे, पत्थर उठाये और गहरे क्षोभ भे भरकर पंडितजियों की तो मॉं का .....भेन का ..... करते हुए पत्थर मारे और अपने अपने घर चले गये। मैंने घर आकर पिताजी को बड़े उत्साह से बताया कि आज तो स्कूल में जहर का इंजेक्शन लग रहा था पर हम कैसे वीरता पूर्वक भाग आये। उस समय टी बी का खौफ बहुत था । पिताजी को बी सी जी के टीके के बारे में कांदे गुरुजी ने बता दिया था। हां उन दिनों हम बच्चों में गुरुजियों के कई कोड और गुप्त, छाप नाम थे मसलन पदरु पंडीजी, कांदा गुरुजी, गुट्टी मास्टर, मिडिल , हाईस्कूल और कालेज पहंचते पहुंचते इनमें काफी इजाफा हो गया था। बल्कि इससे शहर में एक पूरी पंरपरा का विकास हुआ जिसे खिजाना कहते हैं। इसमें शहर के वकील , डाक्टर, दुकानदार तक शिकार हुए। खिजाने के कई उस्ताद हुए । अब पिताजी ने बहुत डाटा और कहा कि वापस स्कूल जाओ और टीका लगवाओ । मैंने किसी तरह तीन चार दोस्तों को समझाया और फिर हम चुपचाप स्कूल के भीतर पहंचे सहमते सहमते पंडीजी से टीका लगवा देने की गुजारिश की । सुनील नाई ने हमारा नेतृत्व किया । टीका लगा । पका । गुठली बनी । फिर निशान बना । आज तक है । चौथी कथा तक आते आते हम विद्रोह की भाषा सीख चुके थे । यदि शिक्षकों से नहीं पटती तो विद्यार्थी उठते और स्कूल पर रोते रोते ईट के अद्दों को फेंकते और पंडीजी को मां...भेन....वाली सर्व सुलभ गाली देते हुए स्कूल से भाग जाते । नवा और जल्लू ऐसा कर चुके थे । इसी कारण वे हमारे बीच अच्छे खासे प्रतिष्ठित हो चुके थे । नवा तो एकदम बिंदास था । गर्मी की छुट्टियों में वह अंबिका होटल पर काम करता था। वहां की होटल में बहुत बड़े बड़े आलूगोडे बनते थे। नवा कभी कभी कुल्फी भी बेच लेता था। वह दोस्तों को बताता था कि होटल का मालिक उसको रोज एक आलूगोंडा खाने को देता है। हमारे मुंह में पानी आ जाता था। आपस में अपने घर वालों को कोसते थे उदास होकर तत्वतः निष्कर्ष निकालते - पन जे काम अपुन कां कर सकते हेंगे? हेना राजा ? हेना शंकर (सतत जारी......) 





धर्मेन्द्र पारे

बुधवार, 25 नवंबर 2009

हरणे पंडीजी की हाजरी और दूसरा साल

जब मैं दूसरी कक्षा में चला गया तब मेरा स्कूल जाने का कुछ अभ्यास बढ़ा । स्कूल के प्रति भय भी कम हुआ । दूसरी कक्षा में कुछ दिनों तक कुरेशिया पंडीतजी ने हमें पढ़ाया था। वे लंबे पतले और खूब पान खाने वाले थे। उनका लड़का सतीश भी मेरी कक्षा में था। स्कूल नाके से लगी हुई थी। जब भी कोई बस गुजरती मैं पंडीतजी से पूछ पड़ता - क्या टाईम हुआ है ? मेरे लगातार इस तरह से पूछने पर कुरेशिया पंडितजी एक दिन खीज गये। उन्होंने डपटते हुए पूछा बार बार टाईम क्यों पूछते हो ? मैंने उत्तर दिया क्योंकि इससे मुझे बसों का आने जाने का टाईम पता चल जाता है। उन दिनों बस ट्रक मोटर साईकल बहुत कम थी। वे हमारे लिए बहुत आकर्षण का विषय थी । मैं जब चौबीस दिन और दो महिने की छुट्टी में गांव जाता था अपने दोस्तों मोहन पंडित, रुपसिंह और अनूपसिंह, टीटू, सतनारान और बिननारान को मोटर के किस्से सुनाता था। यह भी बताता था कि गजानंद मोटर कितने बजे आती है और चावला मोटर कब जाती है। बालाजी की मोटर कैसी खटारा है आदि आदि वे सब बड़े कौतूहल से यह सब समझते और जानते। उन दिनों हमारे गांव में बिल्कुल कच्ची धूल भरी सड़कें थी। जिनपर से यदि कभी कभार महीने दो महीने में कोई फटफटी गुजर जाये तो पूरे गांव के बच्चे हो हो करते उसके पीछे पीछे दौड़ लगाते और गांव के बाहर तक छोड़कर आते थे। दूसरी कक्षा में कोई भी नया पाठ शुरु करना होता तो पंडितजी मुझसे ही पढ़वाते थे क्योंकि मैं साफ और सही सही उच्चारण से पढ़ लेता था। बाकि बच्चे ऐसा पांचवी तक भी नहीं कर पाते थे। दरअसल मेरी पढ़ने की यह आदत इसलिए भी बन गयी थी क्योंकि मैं दुकानों, बसों या दीवारों पर जो भी लिखा होता उसको, अक्षर जोड़ जोड़कर पढ़ने की कोशिश करता रहता था। मैं कहीं भी जाता दुकानों के बार्ड और दीवारों पर लिखे विज्ञापन पढ्ता जाता-हम दो हमारे दो----- डाबर जनम घुटटी ----- चेचक या बडी माता बताये और ईनाम पाये -------- अ स खिडबडकर---एम एल राय बी ए विशारद --- गोपाल मे‍डिकल ---आदि आदि । घर में पिताजी धर्मयुग और सारिका लाते थे। धर्मयुग का कार्टूंन वाला आखिरी पन्ना मैं सबसे पहले पढ़ता था। बाकि के नहीं। स्कूल में जब प्रार्थना होती तो मुझे आगे खड़ा किया जाने लगा। मैं पहले एक पंक्ति गाता फिर दूसरे लड़के दोहराते।


उस समय शिक्षक हाजिरी लेते और बाप का नाम तथा जाति अवश्‍य पुकारी जाती। अपने सहपाठियों की जातियों का बोध और जानकारी जाने अनजाने सबके मस्तिष्क में आती जाती थी। शायद तब समाज ही ऐसा था कि जातियां एक क्रूर यथार्थ की तरह सामने आती थी। शिक्षकों के मन में जातियों की शायद समझ थी। जब बड़े पंडीजी के पांव दुखते तो वे राजा से कहते जरा दबा तो बेटा! यदि प्रार्थना में कोई लड़का उल्टी कर देता तो सफाई कामगारों के लड़के आपस में बुदबुदाने लगते- मेकू बोला तो में तो मना बोल दूंगा! ऐसी स्थिति आने पर उन बेचारों को ही यह काम करना पड़ता था । पर मुझे आज की तरह उन दिनों जातिगत घृणा और वैमनस्य का कभी अहसास नहीं हुआ। या यह भी हो सकता है मैं महसूस करने की काबिलियत नहीं रखता था। जो भी हो हम सारे सहपाठी बहुत प्यार से साथ खेलते कूदते। हरणे पंडीतजी जोर जोर से हाजिरी पुकारते वे जाति का उच्चारण कुछ ज्यादा ही कठोर और आरोह स्वर में करते थे - धर्मेन्द्र रमेशचद्र ब्राह्मण, मोहन ताराचंद कहार , विष्णु भागीरथ ढीमर, रामचंदर रामू कहार, सतीष गंगाराम मेहतर, राजेश पूनचंद सुनार, रामकिशन श्रीकिशन कुचबंदिया, मधुकर श्रीकिशन महार, राकेश हरनारायण गूजर, सुनील सालकराम काछी, सुभाष गुलाब माली, रामदास गंगाराम बलाही, राजेन्द्र रामरतन गुरुवा,अरविंद सीताराम गाडरी,सुरेन्द्र रामेश्‍वरर ब्राह्मण, राधाकिशन भैयालाल माली, गोपीकिशन भैयालाल माली, लखन मुरली जोशी, रवि मंगू धोबी, शब्‍बीर अल्लाबेली लुहार, शेख जान मोहम्मद वल्द शेख न्याज मोहम्मद, रवि दयाराम गाडरी, राजकुमार लक्ष्मीनारायण नाई, गफ्फार सत्तार मेहतर, अकरम खां वहीद खां पिंजारा, मनोज रामधार चमार, तोताराम गंगाराम चमार, मदन सोमा चमार....वर्षो तक लगभग आठ साल में बहरे और गूंगे भी इन नामों को रट समझ लेते । इस तरह सारे बच्चों को पूरी कक्षा के नाम मय वल्दियत और जाति के रट गये थे। जब बच्चों का आपस में झगड़ा होता वे बाप का नाम लेकर लड़ते फलाने वाले ...ठीक रहना बेट्टाऽ...नीं तो टांग तोड़ दूंगा ...! स्कूल में दो बार छुट्टी होती थी एक पिशाप पानी की छुट्टी कहलाती थी दूसरी आधी छुट्टी कहलाती थी । पिशाप पानी की छुट्टी दस मिनट और आधी छुट्टी आधे घंटे की होती थी । इन छुट्टियों में हम खूब छील बिलाई का खेल खेलते । गिरते पड़ते । बहुत सारे बच्चों के घुटने प्रायः फूटे रहते । घुटने पक भी जाते थे । उनसे मवाद भी आता था । पर हम अनवरत खेलते थे । विष्णु तो उन दिनों अपने आप को डॉन कहता था । वह प्रताप टाकिज वाले बाफना जी के घर काम भी करता था । उसी से हमें यह जानकारी मिलती थी कि प्रताप टाकिज में अब किस फिल्म की पेटी आई है । रामकिशन और लखन तो अक्सर फिल्म देख भी आते थे । पर मेरे जैसे ज्यादा थे जिनके भाग्य में यह नहीं बदा होता । हम अपनी बेचारगी पर मायूस होते थे और सिनेमा जा सकने वालों से किस्से सुनते थे। हमारे मोहल्ले से उन दिनों सिनेमा के विज्ञापनों की चके वाली दो गाड़ियां निकलती थी जिसमें पेंटर लोग फिल्मों के नाम पेंट से लिखते थे और साथ में सिनेमा का पोस्टर चिपका देते थे। कभी कभी तांगे और रिक्‍शे पर अनाउंसमेंट भी होता - सिरी परताप टाकिजऽ में इस्टमेन कलर में मारधाड़ हंसी गाने मनोरंजन से भरपूर फिलिम देखना न भूलिये- कहानी किस्मत की । जिसके चमकते हुए सितारे हैं.......आदि आदि हम यह सब बड़े चाव से सुनते और गाड़ियों पर लिखे पोस्टर देखते पढ़ते और चर्चा करते । रामकिशन तो आकर गाने भी सुनाता था !
धर्मेन्‍द्र पारे

सोमवार, 23 नवंबर 2009

आना हरदा छूटना दूलिया का

आना हरदा छूटना दूलिया का


अपने बचपन की कुछ यादों में वह करुण याद भी है जो मुझे अब तक याद है । हुआ यह कि चैत करने के बाद पिताजी लाल तुअर बेचने हरदा आये थे । हरदा में अपने मामाजी श्री गोपीकिशन जोशी से मिले थे । श्री जोशी जी को बाद में शिक्षा के क्षेत्र का सर्वोच्च सम्मान राष्ट्रपति पुरस्कार भी मिला । जोशी जी ने पिताजी को कहा कि क्या अब लड़कियों को आगे नहीं पढ़ाओगे ? उस समय तक मेरी बड़ी बहन पांचवी पास करके पढ़ाई छोड़ चुकी थी। गांव में चैथी कक्षा तक ही स्कूल थी। यह स्कूल भी पिताजी की कोशिशों से ही खुल सका था और शुरु में हमारे मंदिर में ही लगता था। एक देशवाली गुरुजी सबसे पहले पढ़ाने आये थे। चौथी के बाद मोहनपुर पढ़ने जाना पड़ता था। यह गांव प्रसिद्ध सर्वोदयी और गांधीवादी दादाभाई नाईक का मालगुजारी गांव था। बड़ी बहन के बाद विछली बैण वहां पढ़ने जाने लगी थी। जोशीजी की प्रेरणा ही होगी कि पिताजी ने भविष्य की चिंता करते हुए एक दिन फैसला किया कि अब हरदा में ही पढ़ना रहना है। संभवतः यह सन् 1970 की बात है। असाढ़ में कपास और लाल तुअर की बौनी करवा कर हम हरदा आये थे। उन दिनों वर्षा लगते ही हमारे गांव से हरदा आने के सब रास्ते बंद हो जाते थे। ज्यादा वर्षा लगने के बाद तो पूरी तरह। बहुत मुश्किल से पहाड़ी रास्ते से रहटगांव पहुंचे थे। हमें रहटगांव तक छोड़ने के लिए मोहन पंडित और उसकी बाई भी आये थे। मोहन पंडित के पुरखे हमारे निजी मंदिर में पुजारी के रुप में गांव लाये गये थे। उनके और हमारे परिवार में बड़े आत्मीय रिश्‍ते थे। मोहन और मेरी उम्र के बीच में एक माह का ही अंतर है। वह मेरे बचपन का मि़त्र है। रहटगांव तक के सफर में मोहन और मैंने खूब मस्ती की और खंती खंती पानी पीने और खेलने की जिद करते रहे । खैर रहटगांव आ गया और मोहन की बाई और मेरी मॉं जिन्हें मैं काकी कहता था खूब रोई। हम बच्चे भी रोने लगे थे। बस जिसे तब हम मोटर कहते थे में बैठकर हरदा आये थे। हरदा आते ही हम सीधे अपनी नानी के घर पहुंचे थे नानी तो अपने गांव बिछौला में थी पर घर की चाबी किसी किरायेदार को दे गयी थी। बड़ा लंबा चौड़ा घर था। बारह चश्‍मे का। इसी घर में मेरा जन्म हुआ था। आगे लगभग चौंतीस पैंतीस बरस मैं इसी घर में रहा। आज भी रात में जब मुझे सपने आते हैं सपनों में मैं इसी घर में होता हूं । इस घर में मुझे सबसे अच्छा लगा जब अलमारी खोली तो उसमें नानी ने चिरौंजी रख गयी थी। मीठी मीठी चिरौंजी मैंने खूब खाई और उसकी बीजी जिसे अचार कहते थे फोड़कर खाई। घर के आसपास ज्यादातर घर नाईयों, धोबियों , सुतारों तथा तेलियों के थे। कुछ घर पिंजारों कुम्हारों के भी थे। कुछ दूर जाकर ब्राह्मणों की पट्टी शुरु हो जाती थी। घर में कुछ किरायेदार भी थे। एक तरफ रामोतार शर्मा दूसरी तरफ कानूनगो और आगे कोई दर्जी किरायेदार थे। तब तक नानी ने छह चश्‍में मकान और बनाना शुरु कर दिया था। घर के पीछे रामनाथ मुकद्दम का घर था। इनके पौत्र जगदीश जिन्हें बचपन में डिबरु पंडित कहते थे से मेरी जान पहचान हुई। फिर शंकर सुतार, राजा नाई, नवा तेली सहित कई और से भी मेरी दोस्ती हो गई। ये सारे लोग लगभग खड़ीबोली में बात करते थे । इस बोली की हमारे गांव के दोस्त खूब हंसी उड़ाते थे और इस बोली को वे ऐसा वैसा वाली बोली कहते थे। हरदा के दोस्त हमारी गांव की बोली को काई कुई वाली बोली कहते थे और मेरा खूब उपहास उड़ाते थे। हुआ यह कि उस समय पूरे मोहल्ले में सिर्फ शंकर सुतार के पिताजी के पास ही साइकिल थी । उसके पिताजी जब दोपहर में खाना खाने लौटते सब बच्चे मिलकर शंकर को कैंची साइकिल सिखाते। शंकर सहृदयता दिखाते हुए उसके पीछे पीछे साइकिल पकड़ने वाले दोस्तों कों भी कुछ देर सीखने का मौका देता था। एक दिन उसने मुझपर भी यह उपकार किया। जब मैं चलाने लगा तो मैंने दोस्तों से गांव की बोली में कहा - मखऽ मुट्ठो तो पकड़ना देवऽ !! सारे दोस्त खूब जोर से हंसे। दरअसल मुझे साइकिल का हैंडिल शब्द नहीं मालूम था। इस तरह के उपहास के कई अवसर आये बल्कि आज तक कभी कभी आ जाते हैं। मेरी मातृभाषा की हत्या की शुरुआत का यह पहला दिन था। संसार की तमाम मातृभाषओं को इसी तरह मारा जाता है । कोरकू जनजाति पर कार्य करते हुए मुझे यह और भी शिद्दत से प्रतीत हुआ। समुदाय कुछ अरसे बाद खुद ही अपनी भाषा और संस्कृति की हीनता को जीने लगता है। मुझे लगता है यही उपहास सारी भाषाओं बोलियों की हत्या करता है। धीरे धीरे मैं एक नकली भाषा में पारंगत होता गया। केवल कुछेक शब्द मेरी आत्मा के साथ बचे रहे। अब तो बहुत कम। पत्नी बच्चियों को वे गवारु और फूहड़ लगते हैं। वे उन्हें एक कॉलेज प्रोफेसर के लायक नहीं लगते। मुक्तिबोध ने पता नहीं किसे खोई हुई अभिव्यक्ति कहा था । मुझे तो मेरी वह बोली ही लगती है।

अब स्कूल जाने की बारी थी। मेरे आजा के घर के बाजू में एक हेडमास्टर पांडूलाल तिवारी और हमारे सजातीय गिरिजाशंकर नेगी खेड़ीपुरा स्कूल में पढ़ाते थे। वैसे यह स्कूल शहर का बदनामशुदा स्कूल था। उन दिनों शिक्षक लोग हंसी मजाक में या सचमुच में कहते थे कि जिस शिक्षक को शिक्षा विभाग सजा देता है उसे इस स्कूल में भेजा जाता है। दरअसल खेड़ीपुरा गरीबों का मोहल्ला था। उन दिनों लोगों की माली हालत बड़ी खराब रहा करती थी। स्कूल के आस पास चारों तरफ चमारों, मेहतरों, कंजरों, ढीमरों, बेलदारों के घर थे। बच्चे भी जाहिर तौर पर इन्हीं तबके के होते थे। गरीबी और बेवशी उनके परिधानों और किताब कापी के बस्तों पर तो होती थी पर जिंदादिली और मस्ती में उनका कोई मुकाबला नहीं था। पिताजी मुझे स्कूल ले गये। पांडुलाल तिवारी हेडमास्टर ने पूछा - केरे काई नाम लिख देवां थारो ? दूसरे शिक्षक ने लाड़ से कहा धरमिंदर ! तीसरा जो नाम दर्ज कर रहा था उसने लिख दिया नाम धर्मेन्द्र पिता का नाम रमेशचंद्र जाति ब्राह्मण। मुझे पूरे वर्ष भर यह पता ही नहीं चला कि मेरा नाम अनिल से धर्मेन्द्र हो चुका है। पांडुलाल तिवारी हेड मास्साब के चिरंजीव संजय तिवारी की उन दिनों स्कूल में जबरदस्त चलती थी । बड़े पंडीजी के पु़त्र जो ठहरे । उसी ने दूसरी कक्षा में बताया कि तेरा नाम जब हाजिरी में पुकारा जाता है तो जय हिन्द क्यों नहीं बोलता ? मैंने कहा मेरा तो नाम ही नहीं पुकारा जाता ? उसने पंडीजी से कन्फर्म कराया कि मेरा नाम तो धर्मेन्द्र हो चुका है । मेरे घर परिवार में कई वर्षो तक यह पता नहीं चला । यदि कोई दोस्त बाहर से आवाज देता तो घर वाले उसको बाहर से ही भगा देते न्हाऽ कोई धर्मेन्द्र नी रैयतो हंई ! मेंरी नानी, नानी की बहन जिन्हें हम सिराली वाली मावसी कहते थे,मेरी आजी,आजा दाजी अर्थात भैयाजी की बहन सामरधा वाली जिजीमाय, पिता की ताई जिन्हें हम गोपालपुरा वाली माय,पिताजी की चाची याने काकामाय, सोनतलाई वाली काकी और मेरी बडी मां याने बड़ी बाई सहित कई लोगों को यह पता नहीं चला कि मेरा नाम अनिल से धर्मेन्द्र हो चुका है। मेरी इन्हीं बड़ी बाई ने मेरा नाम अनिल रखा था। मेरे गांव दूलिया में तो अभी तक कई लोग - अरेऽ अनिल भैया ऽऽ... कहकर ही आवाज देते हैं। पहली कक्षा में मैं पूरे साल भर स्कूल नहीं गया । मुझे वहां अच्छा ही नहीं लगता । सुनील नाई राजा नाई के काका का लड़का था। वह हमसे दो तीन साल बड़ा था । जब हम अंटी घुपड़ते होते या दो कोंड खेलते होते वह स्कूल में पिटाई की हैरतअंगेज दास्तान सुनाता था । मेरी तो भीतर ही भीतर रुलाई फूट जाती थी। वह बताता था कि बेट्टा जब घड़ी लुहाना पंडिजी स्लेट पट्टी माथे पर फोड़ते हैं और बडे़ गुरजी मैंदी की सोंटी से ठोकते है....! तो बस्स उधेड़ देते हैं । मैं चुपचाप सुनता और मन ही मन तय कर लिया कि अब स्कूल कभी नहीं जाऊंगा। इधर मेरी बड़ी बहन का नाम काशीबाई कन्यापाठ शाला में लिखाया गया था वह भी किन्हीं गंगू बहनजी के हाथों की जाने वाली पिटाई को ब्यौरा देती । मैं रोज बहाने बनाता कभी पेट दुखने का कभी बुखार आने का । पर इस बीच एक अच्छी बात हुई कि पिताजी ने मुझे सौ तक गिनती और पूरी बारहखड़ी पढ़ना लिखना घर पर ही सिखा दी थी । उन दिनों खेड़ीपुरा स्कूल में यह बड़ी बात थी। गुरुजियों के लड़कों तक को भी इतना नहीं आता था । पर मैं स्कूल जाने में हमेशा आनाकानी करता था। कभी कभी मुझे पिताजी पकड़कर खींचकर भी स्कूल छोड़ते थे पर मैं जोर जोर से रोता। और स्कूल जाने से बच जाता । जिन दिनों पिताजी गांव गये होते मोहल्ले के बड़ी उम्र के लड़के मुझे पकड़कर स्कूल छोड़ने जाते। जब तक घर दिखता वे लाड़ प्यार दिखाते। आगे गाडरी मंदिर के पास वे सात आठ लोग मुझे चींपते चापते। कोई हाथ पकड़ता कोई टांग। दोनों पक्षों का शक्ति परीक्षण होता समूह के आगे अकेले की क्या बिसात ? वे बुरी तरह मुझे छूंदते नोचते मैं जोर जोर से मां बहन की गालियां ठन्नाता। पत्थर खींचकर मारता और रोता। ऐसा करने वाला मैं अकेला ही नहीं था। मेरी स्कूल के कई बच्चे इसी तरह स्कूल तक लाये जाते थे। मोहल्ले और स्कूल के आसपास ऐसे कई लड़के थे जो स्वयं तो स्कूल नहीं जाते थे पर उन्हें दूसरे छोटे बच्चों को खींचतान कर उठापटक कर स्कूल छोड़ने में आनंद आता था। न केवल स्कूल जाने वाले बल्कि उन बच्चों को भी वे खीचकर ‘बड़े पन्डीजी’ के पास ले जाते थे जो कुल्फी खाते हुए दिख जाते थे। इन बच्चों में ज्यादातर वे होते थे जिनके पास कुल्फी खाने के कभी पैसे नहीं आ पाते थे। मेरे कुछ सहपाठी शनिवार के दिन स्कूल नहीं आते थे । वे शनिवार के दिन डिब्बे में तेल और लोहे का शनि महाराज रखकर माथे पर छोटा सा टीका लगाकर भिक्षा मांगते थे। सोमवार के दिन उनके पास अच्छी खासी चिल्लर होती थी। हम बाकि दोस्त उन्हें अद्भुत आष्चर्य और लालच से देखते थे। मेरे कुछ दोस्त जूते चप्पल पर पॉलिश करके पैसे ले आते थे। उन दिनों वे सब सहपाठी बड़े धनी माने जाते थे। इन पैसों से वे आधी छुट्टी में उबली बेर , गुड़पट्टी खाते थे । कभी कभी मीठा पान भी । कुछ बच्चे स्कूल के शिक्षकों को भी पान बनवा कर दे आते थे । एक गुरुजी को कैंची कैंवडर सिगरेट भी पिला देते थे। हम बाकि के जेब प्रायः खाली होते थे। मुझे पिताजी सुबह और शाम को पांच पैसे देते थे। जिनसे मैं फुटाने, नीबू की गोली या तोता के ठेले से गुड़पट्टी या ऊबली हुई बेर खरीदकर खाता था। पंद्रह पैसे हो जाने पर सिंधी के ठेले पर से आलू की गुलाब जामुन भी कभी कभी मिल जाती थी। कभी कभी बंबई की मिठाई या बुड्डी के बाल भी खरीदे जाते थे । इससे ज्यादा पैसे कभी कभार ही जेब में आ पाते थे। सिराली वाली मावसी मुझे खूब लाड़ करती थी। वह जहां भी जाती मुझे ले साथ ही ले जाती थी। उन्हें लड़कियों से घृणा की हद तक वितृष्णा थी। वे बाल विधवा थी। गणगौर के दिनों में वही सेवामाय बन जाती थी। वह कभी कभी पीतल की पीली पीली अन्नी जो प्रायः बीस या दस पैसों की होती थी देती थी। यह मेरे लिए बड़ी राशि होती थी। वैसे भुजरिये और दशहरे पर भी मुझे कुछ जगह से पैसे मिलते थे। कोई कोई एक रुपया तक देता था। इनका मैं एक मुश्‍त प्रयोग करता था। पटवा बाजार या सांई की दुकान से भौंरा, कंचे या टुन्नी घुपड़ने का अंटा खरीदकर लाता था। राजा और नवा कच्चे या पक्के अंटे के पारखी होते थे। हमारे मोहल्ले में उन दिनों जितने भी गोली बिस्किट चूरन किराने के टप होते थे उन सबके मालिकों को हम सांई कहकर ही पुकारते थे। उनमें केवल दो टप के मालिक सिंधी थे। पर दूसरे सब भी सांई ही कहे जाते थे;;;;;;;; (सतत जारी;;;)



धर्मेन्द्र पारे

शुक्रवार, 20 नवंबर 2009

हरदा आने के पहले हरदा




मेरा जन्म हरदा में हुआ पर बचपन के पहले तीन चार साल अपने पैतृक गांव दूलिया में ही बीते। उन तीन चार सालों की मुझे कुछेक स्मृतियॉं आज तक है। तीन चार साल की उम्र की यादों का कोई व्यवस्थित सिलसिला नहीं मिलता कुछेक चीजें जरुर आज तक कौंधती रहती है। भय और हर्ष के विकार ही शायद बहुत गहरे होते हैं। एक याद है घर की छान में मॉं गांव की चार पॉंच महिलाओं के साथ बैठी हुई थी। उनमें एक पंडितनी बाई, एक दीवाननेन बाई और एक जिरातेण ,कहलाती थी। पीतल का एक बड़ा गिलास जो आजकल बिल्कुल चलन में नहीं दिखता , उठाकर मैंने जोर से मॉ के ऊपर फेंक दिया था वह मॉं को आंख के ठीक ऊपर लगा था। खून की धार लग गई थी। शायद जीवन में मैं तब पहली बार सहमा था !! मैं भयभीत और आवाक खड़ा रहा !! पर पिटाई नहीं हुई। डर भय सहमने का मेरा वह पहला तजुर्बा था। दूसरी याद आती है , गांव में उन दिनों कपास की खेती होती थी। खेतों में धाड़क्या दिन भर कपास बीनते थे। शाम को कपास बड़े गाड़े में लात से कूचा जाता था। और रात में दस ग्यारह बजे गांव की ही नहीं आसपास के गांवों से भी गाड़ियॉं जुत कर चली आती थी एक लंबा काफिला हरदा की ओर कूच करता था। पिताजी चुपके से हरदा आना चाहते थे पर मैं जागता रहता था। वे कहते मैं मेहरसिंग के घर जा रहा हूं । वे पैदल मेंहरसिंग के घर की ओर तरफ वाले गोये से गढ़वाट की तरफ निकल जाते इधर से रुक्ड़या जिराती गाड़ी लेकर दूसरे रास्ते से निकलता। मुझे संदेह होता और मैं दौड़ लगाता।

उन दिनों गांव में मेरी उम्र के कोई भी बच्चे चड्डी या हाफ पैंट नहीं पहनते थे। केवल ऊपर कमीज होती थी। वे भी ज्यादातर बढते उमाने के अर्थात अच्छे खासे लंबे होते थे। सब बच्चों के गले में प्रायः बेलदशी और ताबीज बंधे होते थे। दौड़ने में मैं बहुत तेज था। आगे प्राथमिक मिडिल स्कूल तक दौड़ के काफी ईनाम मैंने जीते थे। दौड़कर मैं गाड़ियों के काफिले तक पहुंच ही जाता। गाड़ियॉं रोकी जाती । प्रायः अधार दौड़कर घर आता मेरी हाफ पैंट और कंबल स्वेटर जो उन दिनों ऊनी बनियान कहलाती थी , बुलाई जाती। पहनाई जाती। और मैं खुशी खुशी गाड़ी पर ओढ़ कर बैठ जाता। आगे के कई वर्षो में मेरा हरदा आने का यह क्रम जारी रहा। जिराती गाड़ी गेरता था। मैं उससे कहानी सुनने की जिद करता। वह कहानी सुनाता। एक था राजा एक थी रानी ....एक दिन रानी मर गई ...फिर उसके बच्चों की यातना और दुखों की बातें ...मैं सिहर जाता। मेरा गला रुंध जाता। पता नहीं मैं कब सो जाता। गाड़ियों के काफिले में भी केवल आगे की गाड़ी वाला जागता और गाड़ी चलाता रहता। पीछे की गाड़ी वाले सो जाते । जरा सी आहट या गाड़ियों के रुकने पर दो चार लोग बोल पड़ते - केरे ! काई आयऽ !! उधर से उत्तर आता - कईं नीऽ.. सोई जावऽ... जरा जोत ढीली हुई गई थी । काफिले में हमारे गांव के पीछे के गांव महेन्द्रगांव मगरधा की कुछ गाड़ियां होती तो कुछ गाड़ियां मोहनपुर, गहाल और धुरगाड़ा से भी जुड़ती जाती। गहाल के खाल में उन दिनों पानी ज्यादा बहता था । सबसे पहले बैलों को यहीं पानी पिलाया जाता था। जब तक बैल पानी पीते जिराती ओठ गोल कर सीटी बजाता जाता। पानी की ठंडक लगते ही कोई कोई बैल पेशाब भी करता था। इस समय कोई गाडी वाला मुंह से पुच्‍च पुच्‍च्‍ा की आवाज निकालता हुआ बैलों को पुचकार पुचकार कर पानी पिलाता तो कोई जीभ को तालू से टकरा कर ओट ओट जैसी कोई ध्‍वनि निकालता । बैल पानी पी लेते तो फिर गाडी वाली जीभ और गाल की सम्म्लिलित उपयोग से कच कच चक चक जैसी ध्‍वनि निकालते । मुझे लगता है इन ध्‍वनियों को इस अंचल के सारे ढोर ढंगर भी समझते हैं इसका आशय है कि अब आगे बढो ,चलो । जिन गाड़ियों में कमजोर बैल जुते होते वे गाड़ियां गहाल के खाल का घाट चढ़ नहीं पाती । उन गाड़ियों के बैलों को खोला जाता और आगे से उन गाड़ियों के बैल लाये जाते जो घाट चढ़ चुकी होती। हर किसान के बैलों के भी नाम होते थे । कोई फट्टा कहलाता। कोई डूंडा, मोरिया, कोई लालू कोई डालू। किसी बैल का नाम कबरा किसी का धौला । किसी का मालापुर बाला। कोई पड़ेला। कोई नरिया। और न जाने कितने नाम होते थे। उन बैलों को दूसरी गाड़ियों में जोता जाता। कई सारे और गाड़ी वाले वहां। मदद करते। कोई कहता - चांक लेवऽ रे। और वह गाड़ी के चके को आगे की ओर धकाने का उपक्रम करता। कोई गाड़ी गेरने वाले से कहता - जरा जोर सऽ या नाटी खऽ आर लगा !! कोई तरह तरह की ध्वनि निकलाता ताकि भयभीत होकर तेजी से बैल घाट चढ़ जाये। कभी कभी बैल फिसल जाते। या गाड़ी का धुरा ही टूट जाता। गहाल गांव से किसी जान पहचान वाले की गाड़ी मांगकर लाते। उसमें सामान पुनः भरा जाता। काफिला फिर चल पड़ता। ऐसा सिर्फ कपास बेचने के समय ही नहीं होता। यह सब स्याले की बात है। उंढाले में तो एक नई समस्या और भी जुड़ जाती। गर्मी के कारण गाड़ियों का पाठा उतर जाता था। समझदार लोग बीच बीच में पाठे पर गोबर लीपते रहते थे। या पच्चर फंसाते रहते थे। कोई कोई पत्थर से भी ढोकते थे। इस बीच खूब बीड़ी पी जाती। तम्बाखू खाई जाती। एक दूसरे से कहते। लऽ जलई लऽ !! जरा मसजेऽ। जलई लऽ का मतलब बीड़ी जलाना और मसजे यानि तम्बाखू मलना। सारे गांवों में वर्षो का एक नियम था कि इस हिसाब से चला जाय कि दिन रहटा गांव की नदी पर निकले। रहटा गांव से रात में कोई भी ग्रामीण गुजरना नहीं चाहता था। वह पिंडारों का गांव था। आज से लगभग दो सौ वर्ष पूर्व इस क्षेत्र में बड़ी पिंडारगर्दी थी। इतिहास की वे तमाम कार्यवाहियां लोगों की पुरा स्मृति का हिस्सा थी। पीढ़ी दर पीढ़ी सुनते आये। पिंडारगर्दी तो खत्म हो गई। पर लूटपाट छीना झपटी के किस्से और कुछ वारदातें भी आगे के डेढ़ सौ वर्षो तक भी चलती रही। सारे गाड़ी वाले अल सुबह रहटा की नदी पर पहुंचते। रहटा की नदी पर उन दिनों कोई पुल नहीं था। गहाल के खाल को चढ़ना जितना कठिन था उससे कहीं ज्यादा कठिन रहटा की नदी को पार करना होता था। गाड़ियाॅ हरदा पहंुचती पुल पर से नहीं सीधे बैरागढ गांव से नदी पार कर जंतरा पड़ाव होते हुए अड्डों पर सेठों की अढ़त में जाती। जतरा पड़ाव में आज जहां मीट मार्केट है वहां कभी खले बने थे। उनमें किराये से गाड़ियों को छोड़ा जाता था। हमारी गाड़ी बाहर ही रुकती पिताजी मुझे उतारते और सीढ़ियां चढ़कर सरवन सेठ की होटल पटवा बाजार होते हुए खेड़ीपुरा के हमारे पैतृक घर ले जाते। उन दिनों वहां आजी अर्थात बाई और आजा दाजी जिन्हें हम भैयाजी कहते थे रहते थे। मैं उनके पास रहता। पिताजी कपास के अड्डे पर चले जाते। पहले मंडी को अड्डा कहा जाता था। कभी कभी मैं भी अड्डे पर जाता था। वहां कपास के बड़े बड़े ढेर लगे होते थे। हमारे गांव की ज्यादातर गाड़ियां वल्लभ सेठ तापड़िया की अढ़त में जाती थी। कपास बिकता और किसानों को रसीद स्वरुप जो कुछ मिलता उसे रुक्का कहा जाता था । किसान लोग सेठों के घर जाते थे लगभग मुनिमों के सामने गिड़गिड़ाते हुए रिकझिक करते । मुनीम लोग चैमासे मे लिए गये उधार का हिसाब करते । बहुत थोड़ी राशि देते और शेष रही रकम के लिए कम से कम एक डेढ़ महिने बाद आने का कहते । अधिकांश किसान लोग सबसे पहले घंटाघर के पास लाला हलवाई की दुकान पर जाते और छककर गुलाब जामुन खाते ,फिर किराना और कपड़ा बाजार में जाते । बच्चों के लिए परसाद अर्थात कुछ मिठाई खरीदते और गाड़ी इस हिसाब से जोतते कि रात होने से पहले रहटा पार कर जायें । लौटते समय तो लूटपाट का ज्यादा डर लगता था । क्योकि किसानों के पास कुछ नकद राषि भी होती थी । रहटा के आसपास से बैलों को ऐसा जोर से हांकते की वे पूंछ ऊपर उठाकर दमाक देते । बैल इसलिए भी दौड़ लगाते क्योंकि गाड़ी खाली होती थी । हॉंलाकि मुझे याद नहीं की कभी वहां लूट पाट हुई हो । बस किस्से सुने थे कि एक बखत की बात थी ....इंधारों हुई रो थो ...म्हारी गाड़ी ..ऐकली थी...कोई नऽ ..थोबना की कई ... पन भैया !! मनऽ भी जब घड़ी नरिया होन खऽ आर लगई नीऽ ..दारी का सीधा एक कोस बादई रुक्या ।गांव में ये किस्‍से स्‍फुरण और कौतूहल का संचार करते थे । सुनने वाला कह उठता फिर काई हुयो ।


धर्मेन्द्र पारे

सोमवार, 16 नवंबर 2009

कोरकू गीत


कोरकू गीत
जीजी आलेमा जोड़ी डो सरसाला जोड़ी डो
जीजी आलेमा कोमर डो आम्बेनी साल डो
जीजी आलेमा गोडई डो सिसरोजा नागा डो
जीजी आलेमा टीक डो पनटारी कोरा डो
जीजी आलेमा गालन डो चरमारु पटिया डो
जीजी आलेमा मुचकू डो भदवां कू जोड़ा डो
हिन्दी अनुवाद
जीजी हमारी जोड़ी सारस की जोड़ी की तरह है
जीजी हमारा शरीर आम की छाल की तरह है
जीजी हमारा गोदना चिडिय़ा के पांव की तरह है
जीजी हमारी टीकी पंचराह की तरह है
जीजी हमारी चोटी चरमारु कीट की तरह है
जीजी हमारा गजरा भदवां कीट की तरह है
धर्मेन्‍द्र पारे

रविवार, 15 नवंबर 2009

...उन्हें खिलौने देने की नहीं उनके खिलौनों को बचाने की जरुरत है

...उन्हें खिलौने देने की नहीं उनके खिलौनों को बचाने की जरुरत है
पता नहीं किस बात पर मनोज भाई से बात चल रही थी। बातों ही बातों में उन्होंने अपना कोई आईडिया शेयर करना चाहा। उनके आईडिया के पहले बता दूं मुझे जीवन में सबसे ज्यादा आइडिया दो लोगों से ही सुनने को मिले हैं- एक अपने मालवीय जी अर्थात राजेन्द्र मालवीय जो इन दिनों भोपाल निवासी हैं दूसरे हेलेश्‍वरसिंह चंद्रौसा। इन महाशय कि मुझे कोई सूचना नहीं है सुना है छत्तीसगढ़ में कहीं रहते है। मोबाईल की चार सिम के धारक हैं पर चालू एक भी नहीं। इन आइडिया के अजस्र स्रोतों उद्गमों के बारे में भी एक दिन लिखना है। अभी बात मनोज भाई की। मनोज भाई यानि श्री मनोज जैन। हॉं याद आया उनसे बात चल रही थी 1857 के दौरान सीहोर में हुए सिपाही विद्रोह पर। बात पहुंची उन दिनों के परिधानों पर। बात पहुंच गई ... इस समय के खेल खिलौनो और लोकसमाज में प्रचलित खेलो और खिलौंनों पर । उनका कहना था कि एक आयोजन में हाथ से बने खिलौने तैयार करवाये जायें और उन्हें जनजातीय बच्चों को भेंट किया जाये। हॉ और याद आया बात वन ग्रामों में कपड़ों पर भी चली थी। मेरी राय थोड़ी भिन्न थी। मुझे लग रहा है कि आज के हमारे दौर में बाजार में बच्चों के लिए जो खेल और खिलौनें उपलब्ध हैं उनमें पैसा बहुत महत्वपूर्ण हो गया है। जिसके बाप के पास जितने पैसे उसके पास उतने मॅंहगे खिलौने। फिर ये खिलौने हमारी परंपरा और भारतीयता से कम ही निकले हैं। ये भौतिकतावादी दुनिया की देन है। इनमें हिंसा , आक्रमण, दंभ ,छल का विकास होता है , न कि प्यार इंसानियत और साझा करने के भावों का। बाजार में या तो तरह तरह की मोटर कारें, बंदूके पिस्तौल तलवारे छूरे हैं या बैटरी चलित ‘बजित’गुड्डा गुड्डन। अब परिवार बहुत एकल हो रहे हैं। बच्चे या फिर एक ही होते हैं। यदि माता पिता दोनों नौकरी पेषा हैं या अपने टी. व्हीं. सैट के सामने घंटो बैठने के रुचि अभ्यासी हैं तो बच्चा किससे खेलेगा ? किससे वाद विवाद और संवाद बनायेगा ? दीवारों से छतों से बंद दरवाजों से खिड़कियों की झिरियों से ? या टी.व्ही. पर सन्नाते सीरियलों से ? पता नहीं मैं बहुत गहरे से महसूस करता हूँ हमारे समय के बच्चे बेहद एकाकी और मौन हो रहे हैं। उनकी दुनिया बहुत रंगहीन और निरंतर सूनी होती जा रही है। उनके बदन पर बहुत कीमती कपड़े हैं , वे मोटर वाइकों और कारों पर रेस भी लगाते है। मोबाईल उनके शरीर और आत्मा में प्रत्यारोपित किया गया अनिवार्य अंग है। आप उनकी सुविधाओं में हुई वृद्धि की बात कर सकते हैं। अपने जमाने के घोर अभावों की भी। पर उनमें रचनात्मकता छीजती जा रही है। उनकी कल्पना शक्ति का विकास अवरुद्ध सा हो रहा है । वे हमारे तथाकथित ‘सपनों’ ‘लक्ष्यों ’‘आदर्षो’ के वाहक और बोझा ढोने वाले बनते और बनाये जा रहे हैं। एक भयानक अंधी दौड़ चल रही है। चारों ओर अंधेरा है आगत में भी विगत में भी । प्रेक्षागृह में भी और नेपथ्य में भी सब तरफ एक ही मंचन है एक ही ...एक ..ही कि दौड़ो ...दौड़ो ...और ...और..दौड़ो ..और तेज ..पीछे छूट जाओगे बंदे ! रुको मत किसी के लिए भी !! उसके लिए भी मत जो तुम्हारा साथी है ! तुम्हारा सखा है तुम्हारा बंधु है !! बस गुजर जाओ उसके ऊपर से। मत सुनों उसकी रुंधी हुई आवाज और कराह। कहॉं जा रहे है भाई हम ? यह रास्ता कहॉं जा रहा है ? सुनो भंते !! सुनो सखा !! रुको रुको यह रास्ता कहीं नहीं जा रहा है ! यह अंतहीन है । हम अपनी पीढ़ियों को कितना और कैसा वैभव देना चाह रहे हैं क्या केवल पूंजी का ? केवल रुतबे का ? क्या उसमें इंसानियत का भाईचारे का कोई राग नहीं देगें ? जिन स्कूलों में हम उन्हें भेज रहे हैं वे फैक्ट्रियॉं है ,धंधे की जगह है । आज शब्द भी अपने सरोकार बताने लगे है । धीरे धीरे हमारे जीवन में कैसे प्रवेश कर गये ..जैसा कहा जाने लगा है ‘शि‍क्षा उद्योग ’ ‘ चिकित्सा व्यवसाय ’ ‘सूचना माध्यम’ मेरा प्रश्‍न है कि क्या सचमुच शि‍क्षा को उद्योग चिकित्सा को व्यवसाय और सूचना को माध्यम होना चाहिए ? दोस्तों जिस दिन या पूरा सच हो जायेगा हमारी दुनिया बड़ी भयावह हो जायेगी ? बात लोक समाजों और जनजातीय समाजों में प्रचलित खेल खिलौनों की की चल रही थी । मुझे लगता है कि उन खेल खिलौनों में पैसा अर्थात पूंजी अर्थात हिंसा, एकाकीपन, अरचनात्मकता और एक्कलकौडे़पन जनित रुग्णताऍं नहीं हैं। उनमें सामूहिकता, मिल बांट कर आनंदित होने का भाव , और बराबरी की चीजें ज्यादा हैं। उनमें अमीर गरीब का भेद भाव निर्मित नहीं हो सकता । बच्चे उन खेल खिलौनों के खुद अविष्कारक निर्माता और मौलिक डिजायनर होते हैं । उनकी सामग्री अपने आस पास के पर्यावरण से ही प्राप्त हो जाती है । उनकी कल्पनाशीलता ,रचनात्मकता का इससे विकास भी होता है । खाकरे के पत्तों, घास के तिनको, बांस की चिम्मालियों,ज्वार मक्का के ठठेरों , तुअर की तुरसाटियों, आम की गुईयॉं,खपरैल के टुकडों, फूटी हुई शीशि‍यों के ढक्कनों, नारियल की नट्टियों , नदी के दोंगलों , सीपों, नीबू और आम की पत्तियों, सनी हुई मिट्टी , कागज , धागा से न जाने कितने कितने खेल खिलौने तैयार होते थे । आज के बच्चे इन्हें नहीं जानते इसलिए बहुत सारा और भी नहीं जानते। फिर मनोज भाई से निष्कर्षतः विचार बना कि हमें ही जनजातीय और लोक समाज के बच्चों से अब सीखना होगा। एक ऐसा आयोजन करना होगा जिनमें बहुत से वनग्रामों, देहातों के बच्चे शरीक हों और उनकी दुनिया में या जन स्मृतियों में बचे खिलौनों को फिर बनवाया जाये। उन्हें प्रचारित प्रदशिर्‍त किया जाये। उनका परिष्कार किया जाये। उनकी कार्यशाला हो।...उन्हें खिलौने देने की नहीं उनके खिलौनों को बचाने सहेजने संरक्षित करने की जरुरत है ।
धर्मेन्द्र पारे

शनिवार, 14 नवंबर 2009

जिंदगी है कि एक अफसोस का रह जाना


जिंदगी है कि एक अफसोस का रह जाना

श्रीमती लक्ष्मीबाई जलखरे का जाना
आज होशंगाबाद गर्ल्‍स कॉलेज की एक शोध संगोष्ठी में भाग लेने जा रहा था। गाड़ी में मेरे साथ प्रो.अनिल मिश्रा, प्रो. चरणजीतसिंह और श्री व्ही. के. विछौतिया भी थे। हम होशंगाबाद से से कुछ दूर ही थे कि हरदा से हरिहर लभानिया का फोन आया लक्ष्मी बाई नहीं रही ! कुछ देर बाद उनकी अत्येष्टि होना है। अगले ही पल ज्ञानेश चौबे ने मोबाईल से सूचित किया कि वे बड़े मंदिर पर हैं और कुछ ही देर बाद लक्ष्मीबाई की अत्येष्टि होना है। जिंदगी की आपाधापी कई बार बहुत कीमती पल छीन लेती है। जब श्री महेशदत्त मिश्र का निधन हुआ उन दिनों भी मैं अपने पैत़क गांव दूलि‍या में था। जब मैं शाम को लौटा और दीपक दीक्षित उर्फ ‘लाईट’की दुकान पहुंचा तब पता चला कि हरदा के गांधी श्री महेशदत्त मिश्र इस दुनिया में नहीं रहे। कुछ ही दिन पहले उन्होंने मुझे बुलाया था । ज्ञानेश चौबे और मैं जब उनसे मिलने घर पहुंचे उन्होंने कहा- अपने कैमरे से मेरी तस्वीर निकालो !! कुछ देर बाद खुद ही रुक गये और बोले आज नहीं कल आना । हम उनकी इस बात को समझ नहीं पाये। अगले दिन जब पहुंचे वे बिल्कुल चिकनी और क्लीन सेव में तरोताजा बैठे थे बोले अब फोटो निकालो। फोटो निकालने के बाद बोले मेरी फोटो हर आकार में बनवा कर लाना। मैंने वैसा ही किया। सोचा नहीं था कि वह उनकी आखिरी तस्वीर होगी । उनके बाद अखबार के मित्रों को वही फोटो संदर्भ के रुप में काम आई । इसी तरह के कुछ अफसोस संभवतः जीवन पर्यंत मेरे साथ बने रहेगें। उनमें एक अफसोस है जब मैं सिवनी मालवा के कुसुम महाविद्यालय में था मेरे मित्र श्री हरि जोषी जो उन दिनों अनिल सद्गोपाल के साथ काम कर रहे थे, का सुझाव था कि मुझे हरिशंकर परसाई और भवानीप्रसाद मिश्र के बहुत पुराने मित्र चतरखेड़ा निवासी श्री रामचरण पाठक से कुछ अनछुए संस्मरणों को संकलित करना चाहिए। अप डाउन की भागमभाग में मैं एक दो बार ही श्री पाठकजी से उनके गृह ग्राम चतरखेड़ा और बनापुरा में मिल सका पर जो कुछ कहना और करना था वह नहीं कर सका। इसी तरह श्री अजातशत्रु का सुझाव था कि मुझे रंगकर्मी श्री देवेन्द्र दुआ के पिताजी से भारत पाक विस्थापन की त्रासदी को सुनकर रिकार्ड करना चाहिए। श्री देवेन्द्र दुआ के पिताजी बीमारी से स्वस्थ हो चुके थे। मेरी उनसे बातचीत और भी आसान हो गई थी क्योंकि खेड़ीपुरा का मकान छोड़कर बाहेती कॉलोनी में आ चुका था। बाहेती कॉलोनी से बिल्कुल सटा हुआ मकान श्री देवेन्द्र दुआ का है। किन्तु नियति को शायद यह भी मंजूर नहीं था अचानक श्री दुआ भी एक दिन चले गये अपने साथ भारत पाक विभाजन की त्रासदी लिये हुए !! अफसोस के सिलसिले लंबे हैं .... आज स्थिति ऐसी हो गई कि अपने संसार से जा चुके लोगों की फेहरिस्त दिन व दिन बढ़ती जा रही। जान पहचान के बहुत से लोग स्मृति लोक में दाखिल हो चुके हैं। जहॉ सिर्फ स्मृतियों से संवाद और संवाद और संवाद शेष रह जाता है। सब कुछ एक तरफा। आवाज हमारी ही गूंजती है दूर तक और डूब जाती है दूसरी ओर से कोई उत्तर नहीं आता !!!
श्रीमती लक्ष्मीबाई से मेरा परिचय बहुत बाद में हो सका। लगभग पैंतीस छत्तीस साल पहले जब मैं अपने पैतृक गांव से हरदा पढ़ने के लिए आया था । मेरा नाम खेडीपुरा स्कूल में दर्ज करवाया गया। हमारे नेगी ‘पंडीजी’ अर्थात स्व. गिरिजाशंकर नेगी की शाम की बैठक जलखरेजी की दुकान पर ही हुआ करती थी। उन दिनों हरदा में घंटाघर चौक पर पुस्तकों की दो दुकाने बड़ी चर्चित थी। दोनों पंडितजी की दुकाने कहलाती थी। एक मुन्नालालजी जैन पंडित जी की। दूसरी जलखरे पंडित जी अर्थात श्री रामकिशन परसराम जलखरे की। पाठ्यपुस्तकों , स्लेट कलम के अलावा इन दुकानों पर उन दिनों अखबार और पत्र पत्रिकाओं की बड़ी संख्या उपलब्ध हुआ करती थी। शाम के समय इन दुकानों पर खेड़ीपुरा, अन्नापुरा, मानपुरा और मिडिल स्कूल के शि‍क्षकों की बैठक या कहिए जमावड़ा हुआ करता था। श्री रामकिशन परसराम जलखरे अपने समय के प्रसिद्ध स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और गांधीवादी थे। लक्ष्मीबाई से विवाह के तुरंत बाद वे जेल चले गये थे। लक्ष्मीबाई उनकी दूसरी पत्नी थी। पहली का निधन हो चुका था। स्वराज संस्थान की स्वाधीनता फेलोशि‍प मिलने से मुझे हरदा अंचल में स्वाधीनता के लिए चले संघर्ष खासकर 1857 से 1947 के बीच के कई ज्ञात अज्ञात स्वातंत्र्य वीरों के बारे में जानने का सौभाग्य मिला । अभी सिर्फ श्रीमती लक्ष्मीबाई जलखरे के विषय में बात करना चाहूंगा - उनका जन्म 29 अप्रैल 1926 को ग्राम डुमलाय में हुआ था। पिता श्री रामरतन रामरतन थे। लक्ष्मीबाई डुमलाय में दो साल की उम्र तक ही रही। उनके पिता छह भाइयों में सबसे बड़े थे। लक्ष्मी बाई जब दो साल की थी उनकी छोटी बहन का घर में आगमन हो गया था। इधर उनकी आजी के बीमार होने के कारण वे अपनी मॉं के साथ नानी के घर हरदा आ गई। उन्होंने हरदा की महिला आंदोलनकारियों श्रीमती लीला शाह ,श्रीमती गोदावरी बाई, श्रीमती विद्यावती वाजपेयी सुश्री जस्सी शाह, पुत्री श्री जमना प्रसाद शाह, सुश्री विमला एवं कमला सोकल के साथ काम किया था। प्रसिद्ध गांधीवादी स्वर्गीय दादाभाई , महेषदत्त मिश्र और चंपालाल सोकल उनके प्रेरणा स्रोत थे। श्रीमती जलखरे हरदा में स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की अंतिम कड़ियों में एक थी । वे जेल गई। घर के बर्तन तक नीलाम हुए । देश के लिए करते करते वे घर परिवार ठीक से नहीं जोड़ सकी। जीवन की सांध्य बेला में भी जर्जर तन पर बुलंद मन से वे कर्तव्य पथ पर डटी रही। उनका घर और जीवन बेहद दुरावस्था में था। इस उम्र में भी वे चूल्हा जलाकर भोजन बनाती थी। उनके स्वयं के दो सगे पुत्र हैं। दोनो वैवाहिक बंधनों में नहीं बांधे जा सके। घर के पीछे आंगन में मौन रखा चरखा अपने अतीत की दास्तान सुनाता रहता था। घर की भीतों पर ,छत पर , याने पूरे दरो दीवार पर गांधीवाद के लिए किये गये संघर्ष और आस्था के निशान आज भी देखे जा सकते हैं। वह घर भीतर ही भीतर मिट रहा था। लक्ष्मी बाई और भारत की तमाम इस तरह की महिला पुरुषों को हमारे समाज ने बदले में यही दिया था। कभी कभी छब्बीस जनवरी और पंद्रह अगस्त को स्कूली बच्चों के कार्यक्रम में उन्हें याद कर लिया जाता था। मुझे लगता है हमारा देश गांधी के सपनों का देश अब कैसे कहॉं और कितना रहा है ? क्या यह बड़ा झूठ नहीं है ? जो हम एक रटे रटाये रुप में एक दूसरे से बोलते हैं । मुझे लगता है अब हमारा देश मल्टीनेशनल कंपनियों , पूंजी के बादशाहों की क्रूर आकांक्षाओं और उम्मीदों से भरा देश है। यह देश अब उनके ही सपनों को सर्वत्र पूरा कर रहा है। गांधी के विचार, गांधी को मानने वाले अब कहॉ। गांधी के सपने ये तो नहीं थे । मेरे साथियों से मैंने पूछा आप लक्ष्मीबाई को जानते हैं उन्होंने वर्षो चरखा चलाया है , सूत काता है। जेल गई हैं । अंग्रेज अफसरों को चूड़ियॉं पहनाई है। और ...और ....बदले में समय और समाज से उन्हें जो कुछ मिला है उसपर भी उन्हें कतई कहीं कोई अफसोस नहीं ...!! वे सचमुच नही जानते थे लक्ष्मी बाई कौन थी। एक बहुत छोटे से कस्बे नुमा शहर हरदा की पारिवारिकता की कई बातें उन्होंने बताई थी। आज हरदा न कस्बा रहा न वह पारिवारिकता। हरदा की पारिवारिकता का जिक्र तो सरला बहनजी अर्थात सरला सोकल भी करती रही हैं । उनकी बातों में भी वह कसक झलकती है । स्वर्ग के वैभव और शक्ति सम्पन्नता को मात देने वाले बहुतेरे लोग अब यहॉं निवास करते हैं पर वे सब अपने और अपनी सुविधा से प्यार करते हैं । पूंजी उनकी दुनिया का ध्येय वाक्य है। वे कैसा समाज निर्मित करेगें। जहॉं हम लक्ष्मीबाई को नहीं जानेगें। दादाभाई नाईक को भी नहीं । महेशदत्त मिश्र को भी नहीं । चंपालाल सोकल को भी नहीं। लच्‍छू कप्‍तान को भी नही । किसी को नहीं। अभी आठ तारीख को ही खिड़किया कॉलेज में जिला युवा उत्सव का प्रारंभ था। गांधी की पुस्तक हिन्दी स्वराज पर एक परिचर्चा थी । विद्यार्थियों शि‍क्षकों से गांधीवाद पर बात करते करते पता नहीं किस अज्ञात प्रेरणा से मैं श्रीमती लक्ष्मीबाई जलखरे के विषय में बताता चला गया। विगत 13 नवम्बर 2008 को मेरे साथ ईशान जैन, श्रीमती सुनीता जैन और मनोज जैन थे । हमने उनका एक लंबा साक्षात्कार लिया था । उसकी आडियो और वीडियो सी. डी. उपलब्ध है। बहुत से सवालों के जवाब उन्होंने दिये थे । और जाने अनजाने बहुत गंभीर अघोष सवाल मेरे आपके लिए छोड दिये थे। हरदा के बच्चों को आजादी के संघर्ष से परिचित कराया जाना बहुत जरुरी है। मुझसे बेहतर आप जानते हैं कि अब हम उन्हें किन चीजों से ज्यादा परिचित करा रहे हैं ? विरासत को न जानकर हम अपना कैसा भविष्य रचेगें ? श्रीमती लक्ष्मीबाई जलखरे को मेरा शत शत नमन ।
धर्मेन्द्र पारे,हरदा

शुक्रवार, 6 नवंबर 2009

चंदन भाई बधाई नहीं चिंता और चिंतन की बात है

चंदन भाई बधाई नहीं चिंता और चिंतन की बात है हम किस रास्ते पर जा रहे हैं कैसे विकसित हो रहे हैं ? परंपराओं से कुछ लोगों को बड़ी एलर्जी रही है । क्या सारी परंपराएॅं सचमुच इतनी बुरी थी ? क्या विकल्प मंे जो कुछ आया सब इतना उपयोगी रहा ? यह विकास खतरनाक है यह खुलापन कहाॅं ले जा रहा है ? पूंजीवाद बाजावाद कुछ भी नाम दीजिए हम तकनीकी रुप से तो सुसज्जित हुए पर आत्मिक और वैचारिक रुप से बेहद दरिद्र । आज इतने सारे अधिकारों की बात हो रही है कि डर लगने लगा है । सब अधिकार ही अधिकार करेगें क्या ? मुझे तो डर लगता है कि आज गौतम बुद्ध और गांधी हुए होते तो उनका क्या हश्र होता ? हमारी लोक परंपरा में बहुत से खिलौने थे जो हमें सामूहिकता सामाजिकता सरलता और सीखने का पाठ अनजाने में ही पढ़ा देते थे । उनमें पैसा तो कहीं से नहीं लगता था। हमारी और हमारे परिवारों की उन दिनों औकात ही क्या होती थी ? याद करों कितना लड़ते थे अन्नी की दुकान पर अठन्नी चवन्नी के लिए ? मियां अब तो वह चिल्लर भिखारी भी नहीं माॅंगते ? वे खेल खिलौने कैसा कौतूहल और जिज्ञासा जगाते थे ? कुछ याद करो । अच्छा टुन्नी तो घुपड़ी होगी ? गुपनी तो खेली होगी ? तुम शायद गेड़ी नहीं चले न ? आवली पीपली ? हरी गोली ?टीप ? गेंद गड़ा ? नदी पहाड़ ? नदी चुपके चुपके जाना नंगे ही नहाना ? घर से दिन भर नहाने की इजाजत कहाॅं होती थी ? अब तो गांवों की नदिया भी वैसी नहीं रही ? उनमें करंट और जहर तथा बम से मछली मारते हैं ? चंदन भाई बहुत तेजी से बदला है सब कुछ । इतनी गति ? मोटरसाइकिल पर बैठा लड़का लड़कियों केा देखकर वो फर्राटे और करतब दिखाता है कि सर्कस के कलाकार भी दंग रह जाये । सब हिंसक हो रहे हैं । पैसे की लिए लोग किसी भी हद तक जा रहे हैं । सामंतवादी दौर के दमन अब छोटे लगने लगे हैं । बच्चों को ईमानदारी के पैसों से नहीं पढ़ाया जा सकता । स्कूल वाले हर साल ड्रेस का रंग बदलवा देते है। पुरनी बेकार । इस बार ब्लेजर का रंग बदलव दिया है । पुस्तकें नर्सरी और एल के जी में उतने में आई हैं जितना मेरी काॅलेज और पी एच डी की पढाई में भी नहीं लगा । सब्जी वाला सब्जियों में रंग डालता है उनमें शाम को इंजेक्षन लगाता है । दूध वालों ने बोदा पड़िया और केड़ा केड़ी को कसाई को बेच दिया चारों थन दुहते हैं और आक्स्टिोन इंजेक्षन से पाना छुड़वाते है। फल वाले खतरनाक रसायनों से एक दिन मंे फल पका देते हैं । मास्टर और डाॅक्टर भी इनसे जुदा नहीं है । बिना प्रायवेट मंे न पढ़ाते हैं न इलाज करते हैं । आखिर इतना सारा पैसा तांगे वाले रिक्षे वाले और हमारे कोरकू लोग कहाॅं से लायेगंे ? आष्चर्य होता है कभी कभी कि कितना बड़पन्न है इनमें जो अब तक अपराधी नहीं हुए । प्रभाष जोषी जी नहीं रहे । 8 जुलाई 2009 को हरदा मेरी पुस्तकों के विमोचन में आये थे । बहुत देर तक बोले थे । कविताओं को सुनाते सुनाते रोने लगे थे । आज कविता की बात कौन सुन रहा है ? चलो फिर करेगें चर्चा बहुत कुछ

गुरुवार, 5 नवंबर 2009

भौरे की जाली

भौरे की जाली
भौरा घुमाने के लिए जाली की जरुरत होती है । जाली शब्द जाल से बना है । जाल पहली गांव में ही बुने जाते थे । गांव के जाल ज्यादातर मछली मारने के काम आते थे । इन्हें गांव में मत्स्य आखेट करने वाले कहार केवट निषाद लोग ही बनाते थे । अब सब कुछ मषीनीकत हो चुका है । बाजार से बनकर आता है । गांव में कभी कभी कभार दूसरे जाल को भी लोग जानते हैं वह जाल पारदी लोगों के पास होता है वह अलग प्रकार का होता है उसे फंदा भी कहा जाता है । पारदी उनके जाल फंदे और जीवन के बारे में बाद में लिखूंगा मैं बात कर रहा था जाली के बारे में जाली प्रायः सूत के पतले धागों को भांजकर बनाई जाती थी । भांजना शब्द का आषय धागे पर बल देकर एक सुतली बराबर मोटी जाली बनाना । इसकी लम्बाई आमतौर पर चार फीट के बराबर होती है । इस जाली के एक सिरे पर गांठ लगाई जाती थी जो भौरे की गुंडी में फंसती थी दसरे सिरे पर लकड़ी का एक टुकड़ा बांधा जाता था इसे काटक्या कहते हैं । फिर चींटी अंगुली में काटक्या वाला सिरा फंसाकर भौरे पर जाॅली लपेटी जाती है , और अभ्यस्त हाथों से जोर से भौरे को फंेका जाता था भौंरा जोर की गुंजन और गती के साथ धरती पर घूमता था। अब गांव खेड़ों में भी यह खेल कम ही खेले जाते हैं । वैसे भौरों के भी कई प्रकार होते हैं जिनमें बिना गंुडी वाले, लंबी किन्तु छोटे आकार की भौरी आदि ।अब मन के भंवर और जाल तो और भी बढ़ गये हैं पर काठ का भौरा और सूत की जाली अतीत की बात बनती जा रही है ।
धर्मेन्द्र पारे

मंगलवार, 3 नवंबर 2009

भौंरा मन का भी और काठ का भी






लोकजीवन में भौंरे का अपना स्थान हुआ करता था । न तो अब लोक रहा न वैसा जीवन । भौंरे को कहीं कहीं लट्टू भी कहा जाता है । हमारे निमाड़ भुआणा और मालवा मंे तो इसे भौरा ही कहा जाता है । भौरा सफेदे या हलदू की लकड़ी से बनता है । इसे सुतार अर्थाता काष्ठषिल्पी खराद नामक अपने उपकरण पर ढालते थे । आजकर बिजली से चलने वाली खराद मषीने आ गई हैं । पहले ये मषीने पतली रस्सी से घुमाई या खीची जाती थी । इन्हीं मषीनों पर ढोलक, मूसल रंई और खूंटी बनाई जाती थी । इस क्रिया को उताना भी कहा जाता है । अभी ढोलक तो बजती दिखती है पर वैसे बजाने वाले कम हुए हैं जो गांवों में कभी हुआ करते थे । मूसल तो किसी किसी आदिवासी के घर ही देखने को मिलते हैं । और उक्खल तो मैं भूल ही गया । उक्खल बेचने बनाने वाले पत्थर टिक्का कहलाते थे । ये लोग घट्टी टांकने का काम भी करते हैं । हाॅं मेरे तस्वीर संग्रहों में इन पत्थर टिक्का लोगों की तस्वीरें होंगी मिलने पर इस ब्लाग पर डाल दूंगा । विषयान्तर हुआ ? पर सचमुच क्या यह विषयान्तर है? क्या एक पूरी परंपरा एक पूरी जीवन शैली एक पूरी की पूरी सभ्यता का मिटते जाना मा़त्र विषयान्तर कहकर खारिज किया जा सकता है ?आज की उन्नत विकसित तथा कथित ष्सभ्य जीवनषैली क्या सचमुच उसका विकल्प हो सकती है ?हाॅं मैं भौंरे की बात कर रहा था । भौंरा शब्द भॅंवर से बना है । वैसे भौंरा एक प्रकार का गुंजन करके उड़ने वाला छोटा सा पतंगा होता है । यह गहरे काले रंग का होता है जिसका सिर पीला होता है इसलिए कृष्ण भक्ति के कई पदों में कृष्ण को भी भंवरा कहा गया है रुप रंग और प्रवृत्ति गत साम्य के कारण ! हमारे लोक जीवन में बच्चों के खेलने का भौंरा भी इसी भौंरा नामक पतंगे से प्रवृत्तिगत साम्य के कारण भौंरा कहलाया लकड़ी का भौंरा या लट्टू भी तेज गंुजन के साथ तीव्र भंवर के साथ धूरी पर घूमता है ! इस भौंरे को पतली रस्सी जिसे जाली कहा जाता है से लपेट कर जोर से फेंका जाता है इसे हर कोई नहीं फेंक सकता न भौंरा घुमा सकता । जाली बनाने के तरीकों पर बाद में लिखूंगा । भौंरे के नीचे लगी कील आर कहालाती है । भौंरे के सिर पर उठी जरा सी लकडी गंुडी कहलाती है । भौंरे के सिद्धहस्त खिलाड़ी दो और एक कोंड नामक खेल खेलते हैं । और बड़े खिलाड़ी भौरे को कलात्मक तरीके से हाथ पर ही घुमा लेते हैं बिना जमीन पर गिराये।लोक जीवन में खेल खिलौने बिना लागत या न के बराबर लागत के ही होते हैं । आज के मॅंहगे और एकाकी बनाने वाले खेल खिलौनों की तुलना में वे ज्यादा सामाजिक और सामूहिक होते हैं ।

शनिवार, 31 अक्तूबर 2009

आदि‍म स्‍म़ति‍यों में गुजरात

मुझे ऐसा लगता है लोकगीतों में गहरी आदि‍म स्‍मति‍यॉं बहुत दि‍नों तक बनी रहती हैं । अतीत में आवागमन और दूर संचार की सुवि‍धाऍं न्‍यून थी । जीवन की कुशल क्षेम जानने के मौके बार बार नहीं मि‍लते थे । अकाल ,रोजगार , सत्‍ता परि‍वर्तन कई कारणों से लोगों का प्रवजन होता था । उन सब लोगों के साथ अंचल की यादें साथ जाती थी फि‍र चाहे भोजपुर के गि‍रि‍मि‍टया मजदूर हों या हो गुजरात से नि‍माड आने वाली जाति‍यॉं । अंचल की स्‍म़ति‍यॉं गीतों में धमकती रहती थी । नि‍माड के गीतों में गुजरात कैसे आता है -
कुण भाई जासे चाकरी
कुण भाई जासे गढ रे गुजरात
मोठा भाई जासे चाकरी
छोटा भाई जासे गढ रे गुजरात
यह गीत राखी के अवसर पर गाया जाता है ।
बालि‍काओं के पर्व संजा में वे गाती हैं
चॉंद गयो गुजरात
की हि‍रनी का बडा बडा दात
की थारी बाई मारगी
की कूटगी संजा
तू थारा घर जा
या फि‍र रणुबाई का यह गीत
थारा काई काई रुप बखाणु हो रणुबाई
तू सोरठ देश सी आई हो
नि‍माड अंचल की कई जाति‍यॉं अतीत में गुजरात से आई थी । कहॉ से कब ठीक ठीक कि‍सी को पता नहीं। बस गीतों में वह याद वह सुवास बची रही । आज भी कई परि‍वारों के कुलदेवी देवता गुजरात में हैं । दरअसल जहॉ कुल देवता होते हैं उसी स्‍थान से जनता प्रवजन करती है यह अनुभव में आया है ।
यह सर्वेक्षण मैंने गोंड और कोरकू जनजाति‍ में भी कि‍या था । यह नि‍ष्‍कर्ष रहा ।

शुक्रवार, 30 अक्तूबर 2009

भुआणा अंचल का मंडप गीत

सरग भवन्‍ि‍त हो गीधनी
एक संदेशो लई जाव
सरग का दाजी ख यो कयजो
तुम घर छोरी को याव
जेम सऱअ ओमअ सारजोहो
हमारो तो आवणो नी होय
जडी दि‍या बज्‍जर कि‍वाड
अग्‍गल झडी लुहा की

भुआणा और नि‍माड अंचल में वैवाहि‍क मंडप में यह गीत गाया जाता है । इस गीत में दि‍वंगत परि‍जनों को स्‍मरण कर कहा गया है कि‍ ओ स्‍वर्ग तक उडान भरने वाली गीधनी तुम हमारा एक संदेश हमारे पुरखों तक ले जाओ और उनसे कहना कि‍ तुम्‍हारे घर बेटी का वि‍वाह है । तुम्‍हें आना है । गीधनी के माध्‍यम से ही उत्‍तर आता है कि‍ जैसे भी संभव हो इस वि‍वाह को सम्‍पन्‍न करो हमारा अब आना कहॉ मुमि‍कन है ।

बैगा जनजाति‍ का एक खेत