बुधवार, 9 दिसंबर 2009

एक थी दुल्ली बुआ....

एक थी दुल्ली बुआ....

उन दिनों मुझे कहानी सुनने का बड़ा शौक था। गर्मी के दिन पूरो मोहल्ला क्या पूरा शहर ही बाहर सोता था। होली के आसपास से लोग बाहर सोने लगते थे। गर्मी के अलावा इसका एक कारण यह भी था कि हुरियारे लोग फागुन की तैयारी में लकड़ी कंडों की चोरी शुरु कर देते थे। लगभग सब घरों में खूटें फर्दे जलाऊ लकड़ी कंडे होते ही थे। कई घरों में किबाड़ी और फाटक भी लगी होती थी। इन सारी सामग्री पर इन दिनों में बड़ा खतरा रहता था। लोग लट्ठ ले लेकर बाहर सोते थे। पर चोरी करने वाले भी अपना कमाल दिखा ही देते थे। किसी की फाटक तो किसी की किवाड़ी किसी के कंडे तो किसी के घर कल ही खरीदी गई मोली गायब हो जाती थी । महिलाऍं बुरी तरह भांडती थी। मेरे घर के सामने गली के मोड़ पर एक दुल्ली बुआ रहती थी। उसका पूरे मोहल्ले में बड़ा आतंक था। घरों में पानी एकत्रित करने के लिए कुछ कुंडे बाल्टी और सीमेंट की छोटी सी हौदी ही होती थी। कई घरों में तो वह भी नहीं। पीने के पानी की बटलोई तांबे पीतल की होती थी साथ ही मटके भी। तो दुल्ली बुआ का ये रंग था कि जब वह नल पर आती थी तो मोहल्ले की किसी औरत में इतना दम नहीं था कि वह नल पर पानी भर ले । सबको अपने बरतन हटाने पड़ते थे । वह मुंह से गाली हाथ पैर सबसे काम लेती थी । कुछ वर्षो तक यह सब चला । अचानक मोहल्ले में एक मारवाड़ी बामन रहने आया । उनकी गृहिणी ने एक बार दुल्ली बुआ से अच्छी खासी कुश्‍ती की । उसे दो चार मोगरी भी जमा दी । दुल्ली बुआ की जगह उस महिला का नाम भी चलने लगा । नलों पर अक्सर युद्ध होते थे । मोहल्ले में दो ही नल थे । कभी कभी आदमी लोग भी वहां पर नहा लेते थे । कई बार ऐसा करने पर महिलाएं कहती - इसके घर में क्या बेन बेटी नी रेती क्या? कोई कहती ऐको मरे ऐको सांड को ! नल दिन में दो बार आते थे एक सुबह पांच बजे एक शाम को चार बजे । जब नल बंद हो जाते हम लोग अपना मुंह नल में लगाकर पानी खीचते और उसमें पानी आ जाता । हम पानी पी लेते । कभी कभी कोई महिला ऐसा करते हुए देख लेती तो चिल्लाती अरे नल में मुंह लगाकर छूठा कर दिया। हम लोग खेल खेल में इतने मगन रहते थे कि घर जाकर शौच कर्म कर समय नष्ट नहीं करना चाहते थे । सब दोस्त सामने बने नाले या मोरे पर एक साथ अपनी अपनी हाफ पैंट उतार कर पंक्तिबद्ध बैठ जाते और आपस में दुनिया जहान की बातें भी करते जाते । नगरपालिका के नल पर आगे का काम कर लेते। फिर खेलने लग जाते । अमूमन हम सब दोस्तों की पैंट पुट्ठे पर से फटी होती थी । स्कूल में ड्रेस का कोई खास नियम नहीं था । केवल छब्बीस जनवरी और पंद्रह अगस्त के समय शिक्षक लोग कहते थे कि खाकी पैंट और सफेद कमीज पहन कर आना। आठ दस लड़कों के अलावा कोई नहीं पहन कर आ पाता था । हमारी स्कूल में कंघी करना बाल सवारने जैसी कभी जरुरत नहीं पड़ती थी। मुझे याद नहीं कि पूरे स्कूली जीवन में हमें कभी नाखून काटने या हजामत बनाकर आने के लिए कहा गया हो। कभी कभी ही चप्पल पहनी जाती थी। बरसात में कभी कभी ढाई रुपये की प्लास्टिक की सफेद मोजड़ी पहन लेते थे। कीचड़ के कारण उंगलियां गल जाती थी। उसको हम कहते थे कि गारे ने खा लिया। ये मोजड़ियां पांवों में छाले बना देती थी। हम कहते थे जूते ने काट लिया। मोजड़ियां बहुत कड़क होती थी। ठंडी लगते ही और कड़क हो जाती थी। जल्दी ही इनमें दरार पड़ने लगती थी। इन्हें घंटाघर के पास मदन सोमा की दुमान पर जाकर पंद्रह पैसे में झलवा लेते थे। ज्यादा असुविधा हो इससे बेहतर है कि हम लोग कभी कभार ही जूते चप्पल पहनते थे। ठंड में मेरे पास ड्रिल करने और स्काउट में भाग लेने के कारण कपड़े के जूते होते थे। पर पूरी स्कूल में ऐसे बीस पच्चीस बच्चे ही होते थे।
धर्मेन्द्र पारे