शनिवार, 5 दिसंबर 2009

धापू मावसी ,चंपतिया,बिलबिल भाभी......

हमारे घर में कई किरायेदार रहते थे एक में रामोतर शर्मा जिनकी लड़की मधु थी। दूसरे में कानूनगो । आखिरी में धापू मावसी रहती थी। एक तरफ पंडु रहता था। छोटी छोटी खोलियों में कुछ और भी लोग आते जाते रहते थे। एक बड़ा हिस्सा निर्माणाधीन था। वहां काम चल रहा था। मोलल्ले में लड़कों के अलावा मधु, रंजना, ममता और नन्नी जीजी की लड़कियां भी ऐसी थी जिनके साथ मैं खेलता था। मधु मेरे ठीक पड़ोस में रहती थी। उसकी दादी मुझे हर अमावस और पूनम को जिमाती थी। और बात बात में राकुड़्या ....... राकुड़्या कहकर गाली देती थी। रामोतार शर्मा हाजी लोहार की दुकान पर मुनीम थे। गर्मी के दिन थे। पूरे शहर में चंपतिया का बड़ा जोर था। रोज रात में खटिया पर बैठकर लोग चंपतिया की बात करते थे। चंपतिया को किसी ने नहीं देखा था। पर रहस्य रोमांच कल्पना भय की जैसी सृष्टि चंपतिया के नाम से हुई थी वह बिल्कुल पहला पहला अनुभव था। बच्चे खूब डरते थे और खटिया से उतर कर बिल्कुल सटकर पेशाब करते थे। नाली तक कोई नहीं जाता था। रोज खबर आती कल रात को नरसिंग मंदिर के पास चंपतिया दिखा था। कभी खबर आती की आधी रात को आधा नर और आधा शेर का रुप रखकर चंपतिया निकलता है और जो भी दिख जाता है उसको उठा ले जाता है। मैंने अपनी खटिया सबके बीच में लगा ली थी। देशी आमन गांव से आई थी। बाल कैरी के बाद जाली पड़ने लगी थी । मेरे बगल वाली खाट पर मधु खूब बड़ा मुंह खोलकर सो रही थी । मुझे पता नहीं क्या सूझा मैंने चुपचाप उसक खुले मुंह में गुंईया सरका दी। मधु ने रात में बिस्तर गीला कर दिया था । सुबह उसकी दादी ने जब उसके मुंह में गुईयां फंसी हुई देखी तो राकुड़या..... राकुड़्या कहकर खूब गालियां दी। आस पास के कुछ लोगों ने कहा कि हो सकता है रात में चंपतिया आया हो ! सारे लोग अपने अपने आंगन में खटिया पंलग बिछा कर सोते थे। मुझे ध्यान नहीं आता कि कोई भी व्यक्ति उन दिनों घर के भीतर सोता था। बस सल्ला की बाई जिन्हें मैं मामी कहता था, मोहल्ले में केवल वह ही थी जो घर के भीतर सोती थी। जब हम पूछते मामी तुम भीतर क्यों सोती हो गर्मी नहीं होती ? तो बह बताती थी मखऽ बद्दल को डर लगऽ हऽ। म्हारा खऽ लगऽ कि म्हारा उप्पर बद्दल गिर जायऽगो। मेरे घर के दूसरे हिस्से में कानूनगो नाम का किरायेदार था। उनके दो बेटे और एक बेटी थी। सब विवाहित थे। उनकी लड़की का नाम नन्नी जीजी था। नन्नी जीजी की दो बेटियां थी। मैंने पहली बार उनसे ही सुना कि मां को मम्मी और पिता को पापा भी कहते हैं। नानी एक नया मकान बनवा रही थी। उसको हम नया घर कहते थे। नानी ने लकड़ी के काम के लिए बिछौला से मयाराम खाती को बुलाया था। उसकी बड़ी बड़ी मूंछे थी और वह बड़ा बातूनी था। नन्नी जीजी की लड़कियां मुझसे बड़ी थी। वे दोपहर में मुझे नये घर के धावे पर ले जाती और वहां पर मम्मी पापा का खेल और डाक्टर डाक्टर का खेल खिलाती। ये सब खेल मेरे लिए नये थे। इनकी पारिभाषिकता ,आशय और आनंद का मुझे अनुभव नहीं था। इसमें मैं अक्रिय रुप से उपस्थित होता था। जो कुछ करना होता नन्नी जीजी की लड़कियां ही करती। एक दिन मयाराम खाती हमारे ऊपर खूब चिल्लाया .......ममता ने भी सबसे शिकायत की कि - जे कोन जानऽ काई काई खेलऽ हऽ...हमारी चाल के सिरे पर धापू मावसी रहती थी। उनको मेरी मां ने गुरु बैण बनाया था। उनके घर हमेशा मेहमानों की भीड़ लगी रहती। ज्यादातर निकम्मे लोग। सब के सब टुक्कड़खोर । काम केवल एक आदमी करता था उसको हम रामरज भैया या बूद़या भैया कहते थे। वह दर्जी था। और अपने परिचय में बताता था कि मिसन चलता है। इसके अलावा धापू मावसी के दो और लड़के थे। बड़ा हर्या और सबसे छोटा मक्खन। बूद्या बीच का था। धापू मावसी के पति का नाम रद्दूजी था। वे कुवड़े थे। वे हकलाते थे। उनको लोग अदबया भी कहते थे । उनका बड़ा बेटा हर्या भी हकलाता था। शायद हर्या के बच्चे भी। हर्या की शादी हो गई थी उसकी चार पांच लड़कियां और दो लड़के थे। हर्या की पत्नी को हम सब बैरी भाभी के नाम से जानते थे। धापू मावसी और उनकी हम उम्र सखी सहेलियां तो उनको निक्खर बैरी ही कहती थी। बैरी भाभी का असली नाम मालती था। उनको एक बार विसम का बुखार हुआ जिससे वे बहरी हो गई थी। हर्या को भी खूब मोटा चश्‍मा लगता था। हर्या को कभी कभी बूद्या भैया गुस्से में बाबूजी भी कहता था और सामने की थाली खीच लेता था। खीजकर चिल्लाकर कहता - म्हारा माथा पऽ क्यों साको करऽ हऽ यार तू ..! कुछ काम धाम क्यों नी करतो ?अबकी तो मऽ बी घर छोड़ खऽ पिंड छुड़ऊंगो तू सऽ। यह कलह कई बार होता पर याद नहीं आता हर्या ने कभी कोई काम किया हो! हरया नवम्बर से मार्च के महिने तक कोट पहनता था। नीचे पजामा। गले में मफलर ।बहुत मोटे लैंस का चश्‍मा और हकलाते हुए ह...का उच्चारण उसके व्यक्तित्व को मुकम्मल करता था। वह हतई का भी एक नम्बर का उस्ताद था। पूरे मोहल्ले की औरतों और अपने रिश्‍तेदारों के घर जाकर वह रोज खूब स्यानी स्यानी बातें करता था। पर काम धाम कुछ नहीं। धापू मावसी के घर कई मेहमान हमेशा बने रहते थे कई तो महीनों के लिए। मसलन मंगू जी, इंदरराज, बिलबिल भाभी,रुकमणी बैण, सुनील, न जाने कौन कौन । इसके अलावा दो तीन दिन के लिए आने वाले मेहमान अलग थे । मंगूजी हमेशा चड्डी और बंडी पहने रहते। वे भी कभी कभार मिसन चला लेते थे। पर ज्यादातर नहीं। बिलबिल भाभी मंगूजी की पुत्रवधु थी उनका एक लड़का रजेश था। बिलबिल का पति रेलवे केंटिन भुसावल में काम करता था। रजेश मुझसे साल दो साल छोटा था। विगत पच्चीस तीस साल पहले ही वे हरदा से भुसावल चले गये थे। कुछ दिनों पहले ही पता चला कि मंगूजी तो काफी पहले ही पर उनके पुत्र , बिलबिल भाभी और सबसे त्रासद खबर यह कि उनका पुत्र रजेश जो मुझसे भी दो साल छोटा था इस संसार से चले गये। रजेश को बताते हैं कि एड्स हो गई थी। धापू मावसी की पच्चीस एकड़ जमीन कड़ौला गांव में थी पर विश्‍नोईयों के द्वारा तरह तरह से दिक्कत देनें पर वे गांव छोड़कर हरदा आ गई थी। रिश्‍ते निबाहने में उन जैसे कम लोग ही मुझे देखने में आये । दूर दूर तक के , जाति तो जाति दूसरी जातियों के भी लोग उनके घर आकर रहते ठहरते थे। उनके घर जब मेहमान बढ़ जाते तो बैरी भाभी एक लोटा पानी सब्जियों में बढ़ा देती थी। बैरी भाभी को हर साल दो साल में संतान प्राप्ति हो जाति थी । उनकी एक लड़की का नाम चीटी था । वह हरताली तीज के दिन पैदा हुई थी । उस दिन अजनाल में इतनी पूर थी कि हमारे पूरे मोहल्ले में पानी भर गया था। नदी का पानी धापू मावसी की घर में भराने को ही था। पर मुझे नहीं याद कि वे इससे भी जरा विचलित हुई हो। व्यग्रता को उन्होंने जाना तक नहीं था। गुस्सा मन में ही रखती। वह कहती भी थी कि लड्या सऽ टल्याऽ भला

धर्मेन्द्र पारे



एक थी दुल्ली बुआ... आगे कभी..................