गुरुवार, 6 मई 2010

गांव के घर की याद

बाहेती कॉलोनी के घर में आये हुए अब चार साल पूरे हो जायेगें। जन्‍म मेरा जरुर हरदा में खेडीपुरा वाले मकान में हुआ हो बचपन के तीन चार वर्ष अपने गांव दूलिया में ही बीते । और जब तक एम ए किया प्रत्‍येक वर्ष गर्मी के दो माह और दीपावली के आसपस का एक माह दूलिया में ही बीता । 1988 से मेरा जाना लगातार कम होता गया । कम से कमतर मॉं के नहीं रहने के बाद 2005 से  तो अक्‍सर ऐसा ही हुआ कि कभी गांव गया भी तो घर का ताला भी नहीं खोला । खले और खेत में घूमकर ही चला आया । घर में कपोली ,कबरबिज्‍जू, गोयरा ,कोबरा, ,नेवलों ,चूहों, उदबिलाव ,कबूतर,होलगी न जाने किसकिस ने अपना आवास बना लिया । किसी का ठिकाना पुराना तलघर तो किसी ने तिजोरी में अपनी जगह बनाई । कुछ आखिरी मंजिल पर निर्द्वन्‍द रहने लगे । छिपकलियॉं दीवारों में गड़े घड़ों में रहने लगी । कपोलियों को अंधेरा और ठंडा घर खूब रास आया । कई बार मेरा मन भी होता कि घर खोलकर साफ सफाई करवाऊं । एकाधिक बार ऐसा किया भी । पर लंबे अंतराल तक फिर घर बंद रहा । धीरे धीरे मुझे भी लगा कि मैं जरुरत न होने पर भी इन जीवजंतुओं के जीवन में खलल डालता हँू। इस घर से मेरी स्‍मृतियॉं बहुत गहरी जुड़ी हुई हैं । अब भी जब मुझे सपने आते हैं सपनों  में या तो मैं खेडीपुरा हरदा के घर में होता हँू या दूलिया गॉंव के इस पैतृक घर में । ऐसा क्‍या है कि मैं चलता फिरता बोलता हँसता दूसरे भूगोल में हँू और मेरे विचारों मेरी स्‍मृतियों मेरी कसकती रुह में ये घर इनका वातावरण यहॉं बिताये हर्ष विषाद के क्षण पिघलते रहते हैं । अभी पिछले दिनों दूलिया गया था । अब घर में दूसरा आदमी रामनारायण काका रख दिया गया है । पर रहता वह भी नहीं । पीछे ऑंगन में दरो दीवार पर सब्‍जा ऊंग आया है । मॉं के हाथों लगे पेड पौधे सूख रहे हैं । बैल कसाई के घर न जाये इस ख्‍याल के चलते पिताजी ने बैलों को जोखीलाल शिवपरसाद गाडरी को दान कर दिये ,मजे की बात है कि अब वो बैल उसने भी शायद लालच में किसी को बेच दिये । गायों को तो मैं खुद दो बार गौशाला में छोड आया था । अब शायद एक गाय और एक भैंस बची है । इसलिए कि इन्‍हें बेचा तो ये कसाई के घर चली जायेगी । जो भी आदमी इनकी देखभाल के लिए रखा जाता है वह लापरवाही और कामचोरी के चलते इनकी देखभाल नहीं करता । पिछला वाला कमल तो गजब का था । तीन कोठियों में भरा दाना उसने पशुओं को नहीं खिलाया । कभी पानी पिलाया और कभी नहीं । कुछ मर गये कुछ बीमार हो गये । कोठी में रखा दाना सड़ गया । नौ टाली भूसा घर में भरा जाता है जिसमें कुछ जानवर भी नहीं पल पाते । चोरों ने घटटी के पाट , ऊखल, मूसल और रंई चुरा ले गये । किसी ने पीतल के बांट तो किसी ने टापुर ढोनी घुंघरमाल निकाल लिया । किसी को गाडी का आखा पसंद आया तो वह ले गया । किसी के घर में गड़गड़ी की कमी थी पूरी कर ली । अडोसी पडौसियों भाई बंदों को अपने हिस्‍से की जमीन कम लगती है तो वे बागुड हाथ दो हाथ सरका लेते हैं । कोई चाहता है कि हमारे पैत़ृक आम वह कब्‍चा कर ले । सोचता हँू कि क्‍या यह लोक कहावत सचमुच सही है कि जर जमीन जोर की नहीं तो किसी और की । जब तक गांव में पुरखों का रोब दाब था सब कुछ ठीक था । सामंती समय था । काफी शक्तियॉं हाथ मे थी ऐसा सुना है । घर पर कचहरी थी उसी में न्‍याय होता था । क्‍या हम लोग सचमुच आतंक से ही अनुशासित होते हैं । क्‍या नैतिकता का कोई अनुशासन नहीं होता । खैर गांव का घर अब भी सपनों में बहुत आता है । अब मैंने घर से लगे ऑंगन और खले में आम नीबू कटहल के पौधे लगाने का सोचा है । ये वृक्ष सबको ही सुख देगें । मेरे नहीं रहने के बाद भी । इस धरा को भी । इस दुनिया को भी । मेरे घर में विचरण करने वाले जीव जन्‍तुओं को भी । मेरे घर से सामान चुराने वाले मेरे गांव वालों को भी । ईश्‍वर सबको छांव दे । सबको खुश रखे । गांव के घ्‍ार की कुछ फोटो जोड रहा हँू । 

बहुत पुराना मकान है यह । यह घर , मगरधा का घर और मकडाई के राजाओं का मकान, पुनघाट में किसी सेठ का मकान एक ही कारीगर ने बनाया था । उसका नाम नाना गजधर था । उस कारीगर के कई किस्‍से मैंने सुने हैं । कभी फिर लिखूंगा । 
धर्मेन्‍द्र पारे