सोमवार, 17 मई 2010

आज फिर गॉंव

कॉलेज से पॉंच बजे निकलना हुआ । बहुत तेज गर्मी थी । कल से भी ज्‍यादा । रोहिणी नक्षत्र लगने में तो अभी देरी है । पर ऐसी विकराल गर्मी संभवत: मैंने भी पहली बार देखी है । ज्ञानेश चौबे से कल ही बात हो गई थी कि यदि मेरा दूलिया जाना हुआ तो आप भी चले चलना । दरअसल ज्ञानेश चौबे प्रसिद्ध गांधीवादी सर्वोदयी दादाभाई नाईक अर्थात दत्‍तात्रय भीखाजी नाईक पर पुस्‍तक लिखना चाह रहे हैं । वे मोहनपुर के थे । मोहनपुर और मेरा गांव दूलिया बिल्‍कुल सटे हुए हैं । दादाभाई नाईक के विषय में जब भी सोचता हँू तो लगता है हरदा की पद प्रतिष्‍ठा और धन लोलुपता की राजनीति में यह विलक्षण आदमी अनचीह्ना ही रह गया । जब गांधी सत्‍ता की राजनीति को समझ गये थे और उन्‍होंने रचनात्‍मक कार्यो की ओर तवस्‍वी कार्यकर्ताओं को मोडना शुरु किया था दादाभाई नाईक उन लोगों में थे जिन्‍होंने चुनावी राजनीति को त्‍याग दिया । वे बाद में जीवन पर्यंत रचनात्‍मक कार्यो से जुडे रहे । अपने जमाने में वे बहुत लोकप्रिय थे । आजादी के पहले के चुनावों में वे भारी बहुमत से जीतते रहे । बाद में सर्वोदय और भूदान से जुडे रहे । इंदौर का विसर्जन आश्रम उनके कार्यों का एक उदाहरण है । सोचता हूं ज्ञानेश चौबे को यह क्‍या सूझी आज का कोई चालू तिकडमी लेखक होता तो लिखने के लिए ऐसे किसी राजनीतिज्ञ को चुनता जिससे लाभ ही लाभ मिल जाते । कम से कम अच्‍छी जगह पोस्टिंग, कहीं दुकान ,मकान या प्‍लाट या रुतबा तो मिल ही जाता ।परलोक का तो नहीं पता पर यह लोक तो सुधर ही जाता । अब दादाभाई को हरदा में बहुत कम लोग जानते हैं । उनको याद करने से किसी को भला क्‍या मिलना है । न चुनाव में टिकट न पद । दादाभाई नाईक किसी को लाभ पहुंचाने की दशा में नहीं है । उनका कोई पु्त्र या पुत्री भी राजनीति में नहीं है । पर ज्ञानेशजी ठहरे । मोहनपुर उनकी यह दूसरी यात्रा थी । पहली में वे सबसे पहले दादाभाई के प्रिय ग्रामवासियों से मिले । वे सब दलित थे । आज भी कुछ बुजुर्ग हैं जिन्‍होंने दादाभाई की प्रेरणा से वर्षो तक चरखे पर सूत काता । वस्‍त्र बुने । दुर्गाशंकर धार्मिक के पिताजी ने बहुत सी जानकारी दी । मोहनपुर में अभी बीस साल पहले तक भी चरखे चलते रहे । अब चरखे मौन हो चुके हैं । कुछ घरों में टूटे फूटे चरखे पडे हैं । आज दादाभाई का पैतृक घर देखा । उनके जिराती से मुलाकात हुई । गॉंव के और भी लोग आ जुटे । दादाभाई ने सत्‍तर एकड जमीन भूदान में दी थी । उनके हाथों लगे पेड देखे । दादाभाई हरदा जिले में संभवत पहले राजनैतिक कार्यकर्ता थे जिन्‍होंने हरिजनों के लिए कुओं से पानी लेना प्रारंभ करवाया । पहले के सामंती सोच में यह कहॉं संभव था । दादाभाई ने अपने आसपास के लोगों को खूब बाग बगीचे लगाने को प्रेरित किया । मेरी खुद की जाम बाडी उनकी प्रेरणा से ही दादाजीश्री रामशंकर पटेल  ने लगाई थी । दादाभाई ने गांव में स्‍कूल भी खुलवाया था । ज्ञानेश चौबे उनके घर के प्रांगण में खडे होकर ध्‍यानस्‍थ हो गये । मैंने जब पूछा तो बताने लगे यहॉं आकर कुछ अलग ही अनुभूति हो रही है । लगता है वे दादाभाई के रचनात्‍मक कार्यो उनकी गांधीयन दृष्टि के देश काल में पहुंच गये । दादाभाई का जीवन त्‍याग का जीवन था । उन्‍होंने अपनी एम बी बी एस की पढाई बंबई में अधूरी ही छोड दी थी । देश को उनकी  जरुरत थी । हरदा आ गये । जब राजनीति धन और कदाचार की करवट लेने लगी । लोग मलाई खाने लगे । दादाभाई ने फिर त्‍याग किया । चुनावी राजनीति ही त्‍याग दी । आज कितने विधायक मंत्री और नेता है जो अपने पद को छोडकर रचनात्‍मक और सेवा कार्यो में लगने के लिए तैयार हैं । प्रश्‍न गहरा है । देखते हैं ज्ञानेश चौबे अपनी पुस्‍तक में क्‍या उत्‍तर देते हैं । अंधेरा हो चुका था । हम दूलिया गये । घर गया । वैसा ही वीरान था । रामनारायण काका ने आज भी पेडो में पानी नहीं डाला था । गाय बैल तो बता भी नहीं सकते थ्‍ो कि उन्‍होंने पानी पीया भी या नहीं । मैंने रामनारायण से पुन: आग्रह किया कि कम से कम एक घंटे तो इस घर में काम कर ही सकते हो । उसने अपने लिए नये मोबाईल की मांग की । मैंने पुन: उससे पानी और साफ सफाई का आग्रह किया । न करता तो भी शायद एक ही बात थी । हे ईश्‍वर उन्‍हें क्षमा करना जो नहीं जानते वे क्‍या कर रहे हैं । बस इसी दुआ को दोहराता हरदा की ओर चल पडा ।