शुक्रवार, 28 मई 2010

यह कौन सा पक्षी है भाई

आज जब गांव पहुंचा लगभग साढ़े पॉंच बज रहे थे । खले में जहूर और गणेश तार फेंसिंग का काम कर रहे थे । रामनारायण उर्फ काका भी वहीं था । इधर उधर की बात के बाद मैंने काका से कैमरा लाकर देने का कहा । तीन दिन पहले यहीं भूल गया था । शायद मेरी बात कोई सुन रहा था । सू बबूल के ऊपर जैसे ही मेरी निगाह गई मैंने गणेश कोरकू से पूछा यह कौन सा पक्षी है । जहूर और गणेश नाम याद करने लगे । रामनारायण के हाथ से मैंने कैमरा लेकर उसक तीन फोटो निकाले और वह उड़ गया । गणेश, जहूर, और काका नाम खोज ही रहे थे कि अशोक गौर भी आ गया । वे सब बताने लगे कि यह पक्षी छोटी छोटी चिडि़याओं को झपट कर खा जाता है । उस पक्षी के शरीर में गोश्‍त बिल्‍कुल ही नहीं था । पर चोंच दरांती की तरह थी और बदन छरहरा था । कुछ भूरे काले रंग का । मैं जल्‍दी ही निकल पड़ा । आज नरवाई जलाने की बारी शायद मेरे ही गांव वालों की थी । दूलिया से निकलते ही मोहनपुर के पहले के खेतों में नरवाई जलना शुरु हो गई थी । मैं नरवाई जले हुए खेत देखकर निकलता जा रहा था । नरवाई से जले हुए लांगे और पेड़ दिख रहे थे । मुझे लग रहा था मानों किसानों ने स्‍वयं अपने ऊपर बम फेंकना शुरु कर दिया है ।खेत दर खेत के लांगे गोये तक जले पडे थे । गहाल की नहर के पास एक दुकान है । चाय पान की । मैंने पान खाने का मन बनाया इतने में एक नेवला दिखा  अंधेरा शुरु होने ही वाला था । मैंने बहुत कोशिश की पर नेवले की फोटो नहीं ले सका । मैंने दूर तक उसका पीछा किया । नेवला हर बार भाग जाता फिर मुडकर मुझे देखता । शायद मेरी असफलता पर हँसता था ।

सोमवार, 24 मई 2010

मरते हुए पंछी जलते हुए शजर

नौतपा कल से प्रारंभ होगा । मुकेश पान वाले की दुकान पर चर्चा थी कि आज का तापमान 46 डिग्री था । पत्रकार दीपक दीवान के अनुसार कल 46 डिग्री तापमान था । असलियत जो भी हो गर्मी असहनीय थी । दोपहर में जैसे ही घर से निकल रहा था , पोर्च में एक नीलकंठ आकर गिरा थोडी देर तड़पा फिर नीचे पड़े पानी से शायद उसे राहत मिली होगी वह संभल कर उड़ गया । रात को जब गांव से लौट रहा था , लल्‍लू सर के घर ओटले पर संतू भैया पंडित और पप्‍पू भैया बैठे हुए मिल गये , इधर उधर की बातों के बाद संतू भैया ने बताया कि उनके गांव रिजगांव में तोते मरे हुए मिल रहे हैं । यह तो होना ही है । कल शाम को जब गांव से लौट रहा था मोहनपुर में नहर से उत्‍तर दिशा के खेतों में नरवाई जल रही थी । दो कोस आगे गहाल और धुरगाड़ा के बीच में भी कुछ खेतों में नरवाई जल रही थी । एक तो प्रकृति का प्रकोप दूसरा जलती हुई नरवाई जिसमें इस बार नया  चलन डेढ़ सौ वर्ष तक पुराने पेड़ों को भी जलाना । आखिर ये बेचारे पंछी कहॉं जायें । कैसे बचें । श्राद्ध पक्ष में कौऐ नहीं मिलते और गांव के मृत जानवरों को खाने वाले गिद्ध नहीं दिखते । ऑंगन में फुदकने वाली चीड़ी बाई बहुत कम हो गई । क्‍या ऐसे ही । हम पूंजी की जिस हवस में भाग रहे हैं और प्रकृति का जैसा उपभोग याने विनाश कर रहे हैं वह हमारे अस्तित्‍व तक पहुंच रहा है । नरवत के गीतों में बच्चियॉं गाती है- अनसट कांटू वनसट काटूं, यो महुओ नी काटूं, यो महुओ म्‍हारा बीरा न लगायो । वीरा अर्थात भाई के लगाये महुए काटना तो छोडि़ए हम जला रहे हैं । मैं क्‍या कर सकता हँू यह सोचते हुए मैंने अपने खले में इक्‍कीस पेड लगाने की तैयारी की है । गांव में ग्‍यारसराम और जहूर को भी पौधे दूंगा वे भी पेड लगायेगें । दस बीस और लोगों से बात की है । राजनारायण ने भी आश्‍वासन दिया है । सोचता हूं मेरा गांव एक दिन हरा भरा होगा । मेरे आजा के आजा ताराचंद पटेल जिन्‍हें गांव में दाजी बाबा के नाम से जाना जाता है, ने भी गांव में पे ड लगाये थे । उनके लगाये पेड आज भी कुछ संख्‍या में बाकि हैं । गांव से लौटकर यह डायरी लिखने बैठ गया हँू । बहुत थक जाता हॅू । हरिमोहन और दिनेश यादव के मिस कॉल आ रहे हैं । वे गाली दे रहे हैं । अब उनसे कल ही मिलूंगा ।

बुधवार, 19 मई 2010

आज शाम को गांव जाने का तय तो नहीं था । फिर भी चला गया । शहर में पारा लगभग 45 या ऊपर ही रहा होगा । हरदा में तापमान बताने वाली कोई अधिकृत एजेसीं तो नहीं है आसपास के शहरों खंडवा, होशंगाबाद भोपाल से ही अनुमान होता है । बहरहाल, गांव गया । पेड़ लगाने के लिए जो गड़डे करवायें हैं वहॉं फेंसिंग करवाने के लिए जहूर से बात की । अनूपसिंह अर्थात अनोप ने उपयोगी सलाह दी । पता नहीं क्‍यों गांव से शहर लौटने का मन ही नहीं करता । आजीविका की जरुरत नहीं होती तो शायद कभी शहर नहीं लौटता । धीमी गति से मोटरसाईकल बढाई । पुरखों ने अपने परिवार के लिए एक मंदिर बनाया था । पुजारी वहॉं बैठा था चुपचाप । पता नहीं क्‍यों । उससे दुआ सलाम हुई आगे शिवपरसाद मिला । उसने भी कहा - भैया अब जल्‍दी निकलो रात हुई जायगी । मैं हरदा की तरफ बढा । कनारदा के पास आज भी नरवाई जल रही थी । इस बार किसानों ने एक नया काम किया है । नरवाई के साथ बूढे बडे बडे पेड़ों को भी जलाने का । एक दिन मैंने अपने गांव में ही जसवंत से पूछा था उसने बडी ही सहजता से उत्‍तर दिया कि अब - खान वाला गंज हुईगाज, आरु खेती थोडी थोडी । एका लेन लोग हुन झाड भी जलई रहयाच । मुझे समझ नहीं आता कि इतने उपयोगी पेडों को जलादेने से उनकी उत्‍पादकता कितनी बढ सकती है । क्‍या वाकई पेड हमारे जीवन के लिए ही खतरा बन गये हैं । बिल्‍कुल नहीं । ये किसान जिन्‍हें धरम की राजनीति करने वाले बडा सच्‍चा हिन्‍दू बताते हैं क्‍या सचमुच धरम करम जानते भी हैं । ये गौ माता के पूजक , ये आवला नवमी मनाने वाले , ये जल की पूजा करने वाले ये बरगद, आम ,पीपल ,लीम जामुन खाखरे को पूजने वाले और वृक्षों से ढेरों दवाई बनाने वाले कैसे होते जा रहे हैं । क्‍या इनका धरम पर से विश्‍वास घट रहा है । बचपन से ही मोहनपुर और गहाल के बीच एक इमली का पेड दिखता था । बचपन में सुनी कथाओं में इस पेड पर भूत रहते थे । रात में जब मैं बैलगाडी से यहॉं से निकलता था मारे डर के आंख मीच लेता था । आज वह पेड भी अधजला मिला । पता नहीं अब भूत कहॉं रहेगें । क्‍या गांव में ही आ जायेगें । क्‍या गांव में ही रहने लगेगें । फिर गांव वाले कहॉं जायेगें ।

सोमवार, 17 मई 2010

आज फिर गॉंव

कॉलेज से पॉंच बजे निकलना हुआ । बहुत तेज गर्मी थी । कल से भी ज्‍यादा । रोहिणी नक्षत्र लगने में तो अभी देरी है । पर ऐसी विकराल गर्मी संभवत: मैंने भी पहली बार देखी है । ज्ञानेश चौबे से कल ही बात हो गई थी कि यदि मेरा दूलिया जाना हुआ तो आप भी चले चलना । दरअसल ज्ञानेश चौबे प्रसिद्ध गांधीवादी सर्वोदयी दादाभाई नाईक अर्थात दत्‍तात्रय भीखाजी नाईक पर पुस्‍तक लिखना चाह रहे हैं । वे मोहनपुर के थे । मोहनपुर और मेरा गांव दूलिया बिल्‍कुल सटे हुए हैं । दादाभाई नाईक के विषय में जब भी सोचता हँू तो लगता है हरदा की पद प्रतिष्‍ठा और धन लोलुपता की राजनीति में यह विलक्षण आदमी अनचीह्ना ही रह गया । जब गांधी सत्‍ता की राजनीति को समझ गये थे और उन्‍होंने रचनात्‍मक कार्यो की ओर तवस्‍वी कार्यकर्ताओं को मोडना शुरु किया था दादाभाई नाईक उन लोगों में थे जिन्‍होंने चुनावी राजनीति को त्‍याग दिया । वे बाद में जीवन पर्यंत रचनात्‍मक कार्यो से जुडे रहे । अपने जमाने में वे बहुत लोकप्रिय थे । आजादी के पहले के चुनावों में वे भारी बहुमत से जीतते रहे । बाद में सर्वोदय और भूदान से जुडे रहे । इंदौर का विसर्जन आश्रम उनके कार्यों का एक उदाहरण है । सोचता हूं ज्ञानेश चौबे को यह क्‍या सूझी आज का कोई चालू तिकडमी लेखक होता तो लिखने के लिए ऐसे किसी राजनीतिज्ञ को चुनता जिससे लाभ ही लाभ मिल जाते । कम से कम अच्‍छी जगह पोस्टिंग, कहीं दुकान ,मकान या प्‍लाट या रुतबा तो मिल ही जाता ।परलोक का तो नहीं पता पर यह लोक तो सुधर ही जाता । अब दादाभाई को हरदा में बहुत कम लोग जानते हैं । उनको याद करने से किसी को भला क्‍या मिलना है । न चुनाव में टिकट न पद । दादाभाई नाईक किसी को लाभ पहुंचाने की दशा में नहीं है । उनका कोई पु्त्र या पुत्री भी राजनीति में नहीं है । पर ज्ञानेशजी ठहरे । मोहनपुर उनकी यह दूसरी यात्रा थी । पहली में वे सबसे पहले दादाभाई के प्रिय ग्रामवासियों से मिले । वे सब दलित थे । आज भी कुछ बुजुर्ग हैं जिन्‍होंने दादाभाई की प्रेरणा से वर्षो तक चरखे पर सूत काता । वस्‍त्र बुने । दुर्गाशंकर धार्मिक के पिताजी ने बहुत सी जानकारी दी । मोहनपुर में अभी बीस साल पहले तक भी चरखे चलते रहे । अब चरखे मौन हो चुके हैं । कुछ घरों में टूटे फूटे चरखे पडे हैं । आज दादाभाई का पैतृक घर देखा । उनके जिराती से मुलाकात हुई । गॉंव के और भी लोग आ जुटे । दादाभाई ने सत्‍तर एकड जमीन भूदान में दी थी । उनके हाथों लगे पेड देखे । दादाभाई हरदा जिले में संभवत पहले राजनैतिक कार्यकर्ता थे जिन्‍होंने हरिजनों के लिए कुओं से पानी लेना प्रारंभ करवाया । पहले के सामंती सोच में यह कहॉं संभव था । दादाभाई ने अपने आसपास के लोगों को खूब बाग बगीचे लगाने को प्रेरित किया । मेरी खुद की जाम बाडी उनकी प्रेरणा से ही दादाजीश्री रामशंकर पटेल  ने लगाई थी । दादाभाई ने गांव में स्‍कूल भी खुलवाया था । ज्ञानेश चौबे उनके घर के प्रांगण में खडे होकर ध्‍यानस्‍थ हो गये । मैंने जब पूछा तो बताने लगे यहॉं आकर कुछ अलग ही अनुभूति हो रही है । लगता है वे दादाभाई के रचनात्‍मक कार्यो उनकी गांधीयन दृष्टि के देश काल में पहुंच गये । दादाभाई का जीवन त्‍याग का जीवन था । उन्‍होंने अपनी एम बी बी एस की पढाई बंबई में अधूरी ही छोड दी थी । देश को उनकी  जरुरत थी । हरदा आ गये । जब राजनीति धन और कदाचार की करवट लेने लगी । लोग मलाई खाने लगे । दादाभाई ने फिर त्‍याग किया । चुनावी राजनीति ही त्‍याग दी । आज कितने विधायक मंत्री और नेता है जो अपने पद को छोडकर रचनात्‍मक और सेवा कार्यो में लगने के लिए तैयार हैं । प्रश्‍न गहरा है । देखते हैं ज्ञानेश चौबे अपनी पुस्‍तक में क्‍या उत्‍तर देते हैं । अंधेरा हो चुका था । हम दूलिया गये । घर गया । वैसा ही वीरान था । रामनारायण काका ने आज भी पेडो में पानी नहीं डाला था । गाय बैल तो बता भी नहीं सकते थ्‍ो कि उन्‍होंने पानी पीया भी या नहीं । मैंने रामनारायण से पुन: आग्रह किया कि कम से कम एक घंटे तो इस घर में काम कर ही सकते हो । उसने अपने लिए नये मोबाईल की मांग की । मैंने पुन: उससे पानी और साफ सफाई का आग्रह किया । न करता तो भी शायद एक ही बात थी । हे ईश्‍वर उन्‍हें क्षमा करना जो नहीं जानते वे क्‍या कर रहे हैं । बस इसी दुआ को दोहराता हरदा की ओर चल पडा ।

शनिवार, 8 मई 2010

बस कुछ कुछ यूं ही

कॉलेज में इन दिनों परीक्षा चल रही है । इन दिनों क्‍या ज्‍यादातर दिनों से परीक्षा ही चल रही है । नये साल की शुरुआत सेमेस्‍टर परीक्षा से और अब स्‍वाध्‍यायी वार्षिक पद्धति वाले विद्यार्थियों की । सुबह छह साढ़े छह के बीच कॉलेज जाता हॅू । साढे दस ग्‍यारह तक घर लौटता हॅू । फिर साढे बारह एक बजे से कक्षाऍं लेकर तीन बजे से परीक्षा में जुट जाता हॅू दूसरी पारी की । घर तक आते आते सात बज जाते हैं । थककर निढाल । आठ नौ बजे से दोस्‍तों से चर्चा बातचीत और बीती रात को पढी गई जानकारियों का आदान प्रदान । यह चलता है ग्‍यारह बजे तक । फिर अपना कम्‍प्‍यूटर इंटरनेट । संग्रहित ढेरों सामग्री जिनमें कोरकू, मराठी, उर्दू ,फारसी और अँग्रेजी के हजारों पृष्‍ठों की सामग्री संचयित है, में से किसी एक पर थोडा बहुत काम । मुझे नहीं लगता मेरे पास के इन हजारों पृष्‍ठों , कैसेट ,फोटो आदि का समूचा उपयोग कर पाऊंगा । यह जीवन अब थोडा लगने लगा है । अच्‍छा संदर्भ पुस्‍तकालय भी मेरे लिए सुलभ नहीं है । न शरीर दो बजे रात तक अब काम करने की इजाजत देता है । क्‍या होगा इस सामग्री का ।यह चिंता कभी कभी बेचैन करती है । मेरे पास कोरकू जनजाति और स्‍वतंत्रता आंदोलन , आंचलिक इतिहास ,लोक संस्‍कृति संबंधी ढेरों सामग्री है । इन्‍हें प्रकाशन योग्‍य कब बना सकूंगा स्‍वयं ही नही जानता । इस बीच दो चार और कामों में पांव फंसा रखा है । ज्ञानेश से बडी मुश्किल से हरदा संबंधी संस्‍मरणों की किताब और अर्चना भैंसारे से लोक कलाकारों के जीवन और शैली पर भी काम में सहयोग कर रहा हँू । किस हद तक यह तो ये लोग ही स्‍वयं दर्ज करेगें । अभी मेरी बडी ख्‍वाहिश है कि गांधीजी के रचनात्‍मक कामों के अभिन्‍न साथी सर्वोदयी दादा भाई नाईक अर्थात दत्‍तात्रय भीकाजी नाईक पर भी हरदा से एक पुस्‍तक प्रकाशित हो । यह अच्‍छी बात है कि ज्ञानेश चौबे की इसमें रुचि बढी है । अर्चना ने भोपाओं पर कुछ काम किया है और लखेरों - शीशगर पर भी कुछ कर रही है । पर सचमुच थका हुआ हँू । कुछ हताश भी । आज कॉलेज से छु‍टटी लेकर फिर गॉंव गया था । वक्‍त रहा तो कल उसपर--------

गुरुवार, 6 मई 2010

गांव के घर की याद

बाहेती कॉलोनी के घर में आये हुए अब चार साल पूरे हो जायेगें। जन्‍म मेरा जरुर हरदा में खेडीपुरा वाले मकान में हुआ हो बचपन के तीन चार वर्ष अपने गांव दूलिया में ही बीते । और जब तक एम ए किया प्रत्‍येक वर्ष गर्मी के दो माह और दीपावली के आसपस का एक माह दूलिया में ही बीता । 1988 से मेरा जाना लगातार कम होता गया । कम से कमतर मॉं के नहीं रहने के बाद 2005 से  तो अक्‍सर ऐसा ही हुआ कि कभी गांव गया भी तो घर का ताला भी नहीं खोला । खले और खेत में घूमकर ही चला आया । घर में कपोली ,कबरबिज्‍जू, गोयरा ,कोबरा, ,नेवलों ,चूहों, उदबिलाव ,कबूतर,होलगी न जाने किसकिस ने अपना आवास बना लिया । किसी का ठिकाना पुराना तलघर तो किसी ने तिजोरी में अपनी जगह बनाई । कुछ आखिरी मंजिल पर निर्द्वन्‍द रहने लगे । छिपकलियॉं दीवारों में गड़े घड़ों में रहने लगी । कपोलियों को अंधेरा और ठंडा घर खूब रास आया । कई बार मेरा मन भी होता कि घर खोलकर साफ सफाई करवाऊं । एकाधिक बार ऐसा किया भी । पर लंबे अंतराल तक फिर घर बंद रहा । धीरे धीरे मुझे भी लगा कि मैं जरुरत न होने पर भी इन जीवजंतुओं के जीवन में खलल डालता हँू। इस घर से मेरी स्‍मृतियॉं बहुत गहरी जुड़ी हुई हैं । अब भी जब मुझे सपने आते हैं सपनों  में या तो मैं खेडीपुरा हरदा के घर में होता हँू या दूलिया गॉंव के इस पैतृक घर में । ऐसा क्‍या है कि मैं चलता फिरता बोलता हँसता दूसरे भूगोल में हँू और मेरे विचारों मेरी स्‍मृतियों मेरी कसकती रुह में ये घर इनका वातावरण यहॉं बिताये हर्ष विषाद के क्षण पिघलते रहते हैं । अभी पिछले दिनों दूलिया गया था । अब घर में दूसरा आदमी रामनारायण काका रख दिया गया है । पर रहता वह भी नहीं । पीछे ऑंगन में दरो दीवार पर सब्‍जा ऊंग आया है । मॉं के हाथों लगे पेड पौधे सूख रहे हैं । बैल कसाई के घर न जाये इस ख्‍याल के चलते पिताजी ने बैलों को जोखीलाल शिवपरसाद गाडरी को दान कर दिये ,मजे की बात है कि अब वो बैल उसने भी शायद लालच में किसी को बेच दिये । गायों को तो मैं खुद दो बार गौशाला में छोड आया था । अब शायद एक गाय और एक भैंस बची है । इसलिए कि इन्‍हें बेचा तो ये कसाई के घर चली जायेगी । जो भी आदमी इनकी देखभाल के लिए रखा जाता है वह लापरवाही और कामचोरी के चलते इनकी देखभाल नहीं करता । पिछला वाला कमल तो गजब का था । तीन कोठियों में भरा दाना उसने पशुओं को नहीं खिलाया । कभी पानी पिलाया और कभी नहीं । कुछ मर गये कुछ बीमार हो गये । कोठी में रखा दाना सड़ गया । नौ टाली भूसा घर में भरा जाता है जिसमें कुछ जानवर भी नहीं पल पाते । चोरों ने घटटी के पाट , ऊखल, मूसल और रंई चुरा ले गये । किसी ने पीतल के बांट तो किसी ने टापुर ढोनी घुंघरमाल निकाल लिया । किसी को गाडी का आखा पसंद आया तो वह ले गया । किसी के घर में गड़गड़ी की कमी थी पूरी कर ली । अडोसी पडौसियों भाई बंदों को अपने हिस्‍से की जमीन कम लगती है तो वे बागुड हाथ दो हाथ सरका लेते हैं । कोई चाहता है कि हमारे पैत़ृक आम वह कब्‍चा कर ले । सोचता हँू कि क्‍या यह लोक कहावत सचमुच सही है कि जर जमीन जोर की नहीं तो किसी और की । जब तक गांव में पुरखों का रोब दाब था सब कुछ ठीक था । सामंती समय था । काफी शक्तियॉं हाथ मे थी ऐसा सुना है । घर पर कचहरी थी उसी में न्‍याय होता था । क्‍या हम लोग सचमुच आतंक से ही अनुशासित होते हैं । क्‍या नैतिकता का कोई अनुशासन नहीं होता । खैर गांव का घर अब भी सपनों में बहुत आता है । अब मैंने घर से लगे ऑंगन और खले में आम नीबू कटहल के पौधे लगाने का सोचा है । ये वृक्ष सबको ही सुख देगें । मेरे नहीं रहने के बाद भी । इस धरा को भी । इस दुनिया को भी । मेरे घर में विचरण करने वाले जीव जन्‍तुओं को भी । मेरे घर से सामान चुराने वाले मेरे गांव वालों को भी । ईश्‍वर सबको छांव दे । सबको खुश रखे । गांव के घ्‍ार की कुछ फोटो जोड रहा हँू ।