मंगलवार, 1 दिसंबर 2009

मोजू बाबा पड़िहार की बैठक और मेरा इलाज

मोजू बाबा पड़िहार की बैठक और मेरा इलाज

जब हम दीपावली की छुट्टी में गांव गये तो गांव भर की कई बूढ़ी औरतें जो मुझे जरुरत से ज्यादा ही लाड़ करती थी देखने आई और सबने मिलकर मोजू बाबा की धाम में ले जाने का निश्‍चय किया। मोजू जाति का तो मेहतर था पर उन दिनों उसकी यश प्रतिष्ठा का कोई मुकाबला नहीं था। आस पास के दस बीस गांवों में वह सबसे बड़ा पड़िहार था। उसपर गांव बालों को बड़ा भरोसा रहता था। जो व्यक्ति चंपालाल पंडित तक नहीं पहुंच पाता था वह सीधे मोजू के पास ही जाकर ठहरता था । वह कई भूत प्रेतो को भगा चुका था। यूं गांव में मोजू के अलावा भी कई पड़िहार थे । गेंद़या गाडरी, सुक्का बसोढ़,गुलाब कोरकू,गुट्टू गाडरी,लक्खू बलाही जागेसर गाडरी, बिहारी कहार समेत कई लोगों को तरह तरह के देव आते थे। ऐसी कोई बाखल बाकि नहीं थी जहां पड़िहार न हो जहां देवों की धाम न लगती हो जहां मथवाड़ न गूंजती हो मेरे गांव में नई नवेली अधिकांश बहुओं को जिन्न,भूत, प्रेत, चुड़ैल, दाना बाबा लग जाते थे। समाज में कैसी भी क्रूर जाति प्रथा रही हो भूत प्रेत बाहरबाधा की घड़ी अर्थात आपातकाल में लोग सब भूल जाते थे। अच्छे अच्छे राजपूत, कुड़मी बामन, बनिये मोजू बाबा के ओटले तक जाते थे। मोजू की उन दिनों हमारे परिवार से बातचीत नहीं थी। कारण हमारे पिताजी के चचेरे भाई ने मालगुजारी दौर में कभी उसकी टापरी जला दी थी और गोली भी चलाई थी।यूं मोजू बाबा का लडका कैलाश मेरे प्रिय मित्रों में था । वह गांव भर में सबसे अच्‍छी पंतग बनाना जानता था । मैं पॉंच दस पैसों में उससे पतंग खरीदता भी था । मोजू बाबा के ओटले पर अच्छी खासी भीड़ थी। उसका रजाल्या पास में ही बैठा था। मोजू पड़िहार सेली से बाहरबाधा ग्रस्त लोगों की पिटाई कर रहा था। मेरा नम्बर आया पर मोजू बाबा ने बस दानमान देखे और कुछ बाहर बाधा बताई । शायद मुझे सेली मारने की उसकी हिम्मत नहीं थी। शायद मेरी सामाजिक आर्थिक पृष्ठभूमि के प्रेत बड़े भयावह थे जो उसके देवों पर भी भारी पड़ सकते थे। मैंने दशहरे के दिन भी देखा कि जब पड़िहारों के शरीर में देव आता था और वे लाल लाल पजामें पहनकर, चाकू या तलवार पर नीबू लगाकर एक विशिष्‍ट शैली में नृत्य करते हुए नीर (जिसे देव कूदना भी कहते हैं ) लेने नदी पर घर के सामने से निकलते थे, वे देव भी दादाजी के पांव पड़ते थे। मुझे यह समझ नहीं आता था कि देव तो भगवान होते हैं वे तो अच्छे अच्छे भूत से भी नहीं डरते फिर दादाजी के पांव क्यों पड़ते हैं ?क्या दादाजी भूत से भी ज्यादा ताकतवर हैं ? दादाजी अर्थात पिताजी के बड़े भैया। बड़ा रौब दाब रहा उनका गांव में। उनके जैसा जोर जोर से चिल्लाने वाला और गाली बककर गांव गर्जा देने वाला मर्द मैंने नहीं देखा। कभी कभी वे अच्छे मूड में होते तो बताते थे कि पहले जब गांव में महिलाएं गड़व्या खेलती थी तो कई बार भूतड़ी और चुड़ैल गड़ब्या उठाकर भाग जाती थी और फिर खैड़ी पर गड़व्या रखकर नाचती थी। यूं गांव में भूत प्रेत के किस्से खूब चलते थे । हम बच्चे भी मानते थे कि सुतार घाट पर रात में भूत नाचते हैं। बच्चों में यह भी प्रचलित था कि गांव में लुकमान पिंजारे का भाई जब नार लेकर सुस्तया वाले खेत में गया था तो एक बार उसने भूत से कुश्‍ती लड़ी थी। भूत ने पहले उससे बीड़ी मंगी थी। उसने गलती यह की थी कि भूत की बात का उत्तर दे दिया था। पर जब उसने उसके उल्टे पांव देखे तो डर गया। फिर उसने सोचा डरने से क्या फायदा। दोनों में खूब कुश्‍ती हुई। उसने भूत की चोटी अपनी कुल्हाड़ी से काट ली। भूत ने फिर खूब हाथ पांव जोड़े फिर भूत ने उसको जलेबी और गुलाब जामुन खिलाई। दरअसल उन दिनों गरीबो के लिए गुलाब जामुन और जलेबी खाना दिवास्वप्न ही था । अच्छे अच्छे किसानों के यहां गोरस और पूरी की ही पंगत होती थी । कभी गांव में खुदा न खाश्‍ता कढ़ाय हो जाये तो उस दिन पारक्या ढोर नहीं छोड़ते थे। सब खाकरे के पत्ते ले लेकर तैनात खड़े रहते थे। कल्लू और शिवजी नाई की ऐसे समय खास भूमिका होती थी। गांव भर की भीड़ इकट्ठी होती थी । जिनकी आपस में तनातनी या तड़बंदी होती वे भी वहां मौजूद रहते थे ।
                          हमारे घर में बहुत पर्दा प्रथा थी। काकी और बड़ी बाई हमेशा छत पर्दे लगी गाड़ी से ही बाहर निकलती थी। वो भी घर के आगे से नहीं पीछे खले में गाड़ी जाती थी वहां सिर पर घूंघट डाल कर पहले गाड़ी के पांव पड़ती फिर गाड़ी में बैठती थी। गाड़ी गेरने वाला हमेशा पटली पर बैठता था। उसको गादी पर बैठने की इजाजत नहीं होती थी। हमारे घर से महिलाएं गांव में कभी भी दूसरों के घर नहीं जाती थी। न शादी में न मृत्यु में। न जन्म में न तीज त्यौहार में। फिर भी अधिकांश घरों से महिलाएं हमारे घर आती जाती थी।

धर्मेन्द्र पारे