शुक्रवार, 6 नवंबर 2009

चंदन भाई बधाई नहीं चिंता और चिंतन की बात है

चंदन भाई बधाई नहीं चिंता और चिंतन की बात है हम किस रास्ते पर जा रहे हैं कैसे विकसित हो रहे हैं ? परंपराओं से कुछ लोगों को बड़ी एलर्जी रही है । क्या सारी परंपराएॅं सचमुच इतनी बुरी थी ? क्या विकल्प मंे जो कुछ आया सब इतना उपयोगी रहा ? यह विकास खतरनाक है यह खुलापन कहाॅं ले जा रहा है ? पूंजीवाद बाजावाद कुछ भी नाम दीजिए हम तकनीकी रुप से तो सुसज्जित हुए पर आत्मिक और वैचारिक रुप से बेहद दरिद्र । आज इतने सारे अधिकारों की बात हो रही है कि डर लगने लगा है । सब अधिकार ही अधिकार करेगें क्या ? मुझे तो डर लगता है कि आज गौतम बुद्ध और गांधी हुए होते तो उनका क्या हश्र होता ? हमारी लोक परंपरा में बहुत से खिलौने थे जो हमें सामूहिकता सामाजिकता सरलता और सीखने का पाठ अनजाने में ही पढ़ा देते थे । उनमें पैसा तो कहीं से नहीं लगता था। हमारी और हमारे परिवारों की उन दिनों औकात ही क्या होती थी ? याद करों कितना लड़ते थे अन्नी की दुकान पर अठन्नी चवन्नी के लिए ? मियां अब तो वह चिल्लर भिखारी भी नहीं माॅंगते ? वे खेल खिलौने कैसा कौतूहल और जिज्ञासा जगाते थे ? कुछ याद करो । अच्छा टुन्नी तो घुपड़ी होगी ? गुपनी तो खेली होगी ? तुम शायद गेड़ी नहीं चले न ? आवली पीपली ? हरी गोली ?टीप ? गेंद गड़ा ? नदी पहाड़ ? नदी चुपके चुपके जाना नंगे ही नहाना ? घर से दिन भर नहाने की इजाजत कहाॅं होती थी ? अब तो गांवों की नदिया भी वैसी नहीं रही ? उनमें करंट और जहर तथा बम से मछली मारते हैं ? चंदन भाई बहुत तेजी से बदला है सब कुछ । इतनी गति ? मोटरसाइकिल पर बैठा लड़का लड़कियों केा देखकर वो फर्राटे और करतब दिखाता है कि सर्कस के कलाकार भी दंग रह जाये । सब हिंसक हो रहे हैं । पैसे की लिए लोग किसी भी हद तक जा रहे हैं । सामंतवादी दौर के दमन अब छोटे लगने लगे हैं । बच्चों को ईमानदारी के पैसों से नहीं पढ़ाया जा सकता । स्कूल वाले हर साल ड्रेस का रंग बदलवा देते है। पुरनी बेकार । इस बार ब्लेजर का रंग बदलव दिया है । पुस्तकें नर्सरी और एल के जी में उतने में आई हैं जितना मेरी काॅलेज और पी एच डी की पढाई में भी नहीं लगा । सब्जी वाला सब्जियों में रंग डालता है उनमें शाम को इंजेक्षन लगाता है । दूध वालों ने बोदा पड़िया और केड़ा केड़ी को कसाई को बेच दिया चारों थन दुहते हैं और आक्स्टिोन इंजेक्षन से पाना छुड़वाते है। फल वाले खतरनाक रसायनों से एक दिन मंे फल पका देते हैं । मास्टर और डाॅक्टर भी इनसे जुदा नहीं है । बिना प्रायवेट मंे न पढ़ाते हैं न इलाज करते हैं । आखिर इतना सारा पैसा तांगे वाले रिक्षे वाले और हमारे कोरकू लोग कहाॅं से लायेगंे ? आष्चर्य होता है कभी कभी कि कितना बड़पन्न है इनमें जो अब तक अपराधी नहीं हुए । प्रभाष जोषी जी नहीं रहे । 8 जुलाई 2009 को हरदा मेरी पुस्तकों के विमोचन में आये थे । बहुत देर तक बोले थे । कविताओं को सुनाते सुनाते रोने लगे थे । आज कविता की बात कौन सुन रहा है ? चलो फिर करेगें चर्चा बहुत कुछ