शुक्रवार, 20 नवंबर 2009

हरदा आने के पहले हरदा




मेरा जन्म हरदा में हुआ पर बचपन के पहले तीन चार साल अपने पैतृक गांव दूलिया में ही बीते। उन तीन चार सालों की मुझे कुछेक स्मृतियॉं आज तक है। तीन चार साल की उम्र की यादों का कोई व्यवस्थित सिलसिला नहीं मिलता कुछेक चीजें जरुर आज तक कौंधती रहती है। भय और हर्ष के विकार ही शायद बहुत गहरे होते हैं। एक याद है घर की छान में मॉं गांव की चार पॉंच महिलाओं के साथ बैठी हुई थी। उनमें एक पंडितनी बाई, एक दीवाननेन बाई और एक जिरातेण ,कहलाती थी। पीतल का एक बड़ा गिलास जो आजकल बिल्कुल चलन में नहीं दिखता , उठाकर मैंने जोर से मॉ के ऊपर फेंक दिया था वह मॉं को आंख के ठीक ऊपर लगा था। खून की धार लग गई थी। शायद जीवन में मैं तब पहली बार सहमा था !! मैं भयभीत और आवाक खड़ा रहा !! पर पिटाई नहीं हुई। डर भय सहमने का मेरा वह पहला तजुर्बा था। दूसरी याद आती है , गांव में उन दिनों कपास की खेती होती थी। खेतों में धाड़क्या दिन भर कपास बीनते थे। शाम को कपास बड़े गाड़े में लात से कूचा जाता था। और रात में दस ग्यारह बजे गांव की ही नहीं आसपास के गांवों से भी गाड़ियॉं जुत कर चली आती थी एक लंबा काफिला हरदा की ओर कूच करता था। पिताजी चुपके से हरदा आना चाहते थे पर मैं जागता रहता था। वे कहते मैं मेहरसिंग के घर जा रहा हूं । वे पैदल मेंहरसिंग के घर की ओर तरफ वाले गोये से गढ़वाट की तरफ निकल जाते इधर से रुक्ड़या जिराती गाड़ी लेकर दूसरे रास्ते से निकलता। मुझे संदेह होता और मैं दौड़ लगाता।

उन दिनों गांव में मेरी उम्र के कोई भी बच्चे चड्डी या हाफ पैंट नहीं पहनते थे। केवल ऊपर कमीज होती थी। वे भी ज्यादातर बढते उमाने के अर्थात अच्छे खासे लंबे होते थे। सब बच्चों के गले में प्रायः बेलदशी और ताबीज बंधे होते थे। दौड़ने में मैं बहुत तेज था। आगे प्राथमिक मिडिल स्कूल तक दौड़ के काफी ईनाम मैंने जीते थे। दौड़कर मैं गाड़ियों के काफिले तक पहुंच ही जाता। गाड़ियॉं रोकी जाती । प्रायः अधार दौड़कर घर आता मेरी हाफ पैंट और कंबल स्वेटर जो उन दिनों ऊनी बनियान कहलाती थी , बुलाई जाती। पहनाई जाती। और मैं खुशी खुशी गाड़ी पर ओढ़ कर बैठ जाता। आगे के कई वर्षो में मेरा हरदा आने का यह क्रम जारी रहा। जिराती गाड़ी गेरता था। मैं उससे कहानी सुनने की जिद करता। वह कहानी सुनाता। एक था राजा एक थी रानी ....एक दिन रानी मर गई ...फिर उसके बच्चों की यातना और दुखों की बातें ...मैं सिहर जाता। मेरा गला रुंध जाता। पता नहीं मैं कब सो जाता। गाड़ियों के काफिले में भी केवल आगे की गाड़ी वाला जागता और गाड़ी चलाता रहता। पीछे की गाड़ी वाले सो जाते । जरा सी आहट या गाड़ियों के रुकने पर दो चार लोग बोल पड़ते - केरे ! काई आयऽ !! उधर से उत्तर आता - कईं नीऽ.. सोई जावऽ... जरा जोत ढीली हुई गई थी । काफिले में हमारे गांव के पीछे के गांव महेन्द्रगांव मगरधा की कुछ गाड़ियां होती तो कुछ गाड़ियां मोहनपुर, गहाल और धुरगाड़ा से भी जुड़ती जाती। गहाल के खाल में उन दिनों पानी ज्यादा बहता था । सबसे पहले बैलों को यहीं पानी पिलाया जाता था। जब तक बैल पानी पीते जिराती ओठ गोल कर सीटी बजाता जाता। पानी की ठंडक लगते ही कोई कोई बैल पेशाब भी करता था। इस समय कोई गाडी वाला मुंह से पुच्‍च पुच्‍च्‍ा की आवाज निकालता हुआ बैलों को पुचकार पुचकार कर पानी पिलाता तो कोई जीभ को तालू से टकरा कर ओट ओट जैसी कोई ध्‍वनि निकालता । बैल पानी पी लेते तो फिर गाडी वाली जीभ और गाल की सम्म्लिलित उपयोग से कच कच चक चक जैसी ध्‍वनि निकालते । मुझे लगता है इन ध्‍वनियों को इस अंचल के सारे ढोर ढंगर भी समझते हैं इसका आशय है कि अब आगे बढो ,चलो । जिन गाड़ियों में कमजोर बैल जुते होते वे गाड़ियां गहाल के खाल का घाट चढ़ नहीं पाती । उन गाड़ियों के बैलों को खोला जाता और आगे से उन गाड़ियों के बैल लाये जाते जो घाट चढ़ चुकी होती। हर किसान के बैलों के भी नाम होते थे । कोई फट्टा कहलाता। कोई डूंडा, मोरिया, कोई लालू कोई डालू। किसी बैल का नाम कबरा किसी का धौला । किसी का मालापुर बाला। कोई पड़ेला। कोई नरिया। और न जाने कितने नाम होते थे। उन बैलों को दूसरी गाड़ियों में जोता जाता। कई सारे और गाड़ी वाले वहां। मदद करते। कोई कहता - चांक लेवऽ रे। और वह गाड़ी के चके को आगे की ओर धकाने का उपक्रम करता। कोई गाड़ी गेरने वाले से कहता - जरा जोर सऽ या नाटी खऽ आर लगा !! कोई तरह तरह की ध्वनि निकलाता ताकि भयभीत होकर तेजी से बैल घाट चढ़ जाये। कभी कभी बैल फिसल जाते। या गाड़ी का धुरा ही टूट जाता। गहाल गांव से किसी जान पहचान वाले की गाड़ी मांगकर लाते। उसमें सामान पुनः भरा जाता। काफिला फिर चल पड़ता। ऐसा सिर्फ कपास बेचने के समय ही नहीं होता। यह सब स्याले की बात है। उंढाले में तो एक नई समस्या और भी जुड़ जाती। गर्मी के कारण गाड़ियों का पाठा उतर जाता था। समझदार लोग बीच बीच में पाठे पर गोबर लीपते रहते थे। या पच्चर फंसाते रहते थे। कोई कोई पत्थर से भी ढोकते थे। इस बीच खूब बीड़ी पी जाती। तम्बाखू खाई जाती। एक दूसरे से कहते। लऽ जलई लऽ !! जरा मसजेऽ। जलई लऽ का मतलब बीड़ी जलाना और मसजे यानि तम्बाखू मलना। सारे गांवों में वर्षो का एक नियम था कि इस हिसाब से चला जाय कि दिन रहटा गांव की नदी पर निकले। रहटा गांव से रात में कोई भी ग्रामीण गुजरना नहीं चाहता था। वह पिंडारों का गांव था। आज से लगभग दो सौ वर्ष पूर्व इस क्षेत्र में बड़ी पिंडारगर्दी थी। इतिहास की वे तमाम कार्यवाहियां लोगों की पुरा स्मृति का हिस्सा थी। पीढ़ी दर पीढ़ी सुनते आये। पिंडारगर्दी तो खत्म हो गई। पर लूटपाट छीना झपटी के किस्से और कुछ वारदातें भी आगे के डेढ़ सौ वर्षो तक भी चलती रही। सारे गाड़ी वाले अल सुबह रहटा की नदी पर पहुंचते। रहटा की नदी पर उन दिनों कोई पुल नहीं था। गहाल के खाल को चढ़ना जितना कठिन था उससे कहीं ज्यादा कठिन रहटा की नदी को पार करना होता था। गाड़ियाॅ हरदा पहंुचती पुल पर से नहीं सीधे बैरागढ गांव से नदी पार कर जंतरा पड़ाव होते हुए अड्डों पर सेठों की अढ़त में जाती। जतरा पड़ाव में आज जहां मीट मार्केट है वहां कभी खले बने थे। उनमें किराये से गाड़ियों को छोड़ा जाता था। हमारी गाड़ी बाहर ही रुकती पिताजी मुझे उतारते और सीढ़ियां चढ़कर सरवन सेठ की होटल पटवा बाजार होते हुए खेड़ीपुरा के हमारे पैतृक घर ले जाते। उन दिनों वहां आजी अर्थात बाई और आजा दाजी जिन्हें हम भैयाजी कहते थे रहते थे। मैं उनके पास रहता। पिताजी कपास के अड्डे पर चले जाते। पहले मंडी को अड्डा कहा जाता था। कभी कभी मैं भी अड्डे पर जाता था। वहां कपास के बड़े बड़े ढेर लगे होते थे। हमारे गांव की ज्यादातर गाड़ियां वल्लभ सेठ तापड़िया की अढ़त में जाती थी। कपास बिकता और किसानों को रसीद स्वरुप जो कुछ मिलता उसे रुक्का कहा जाता था । किसान लोग सेठों के घर जाते थे लगभग मुनिमों के सामने गिड़गिड़ाते हुए रिकझिक करते । मुनीम लोग चैमासे मे लिए गये उधार का हिसाब करते । बहुत थोड़ी राशि देते और शेष रही रकम के लिए कम से कम एक डेढ़ महिने बाद आने का कहते । अधिकांश किसान लोग सबसे पहले घंटाघर के पास लाला हलवाई की दुकान पर जाते और छककर गुलाब जामुन खाते ,फिर किराना और कपड़ा बाजार में जाते । बच्चों के लिए परसाद अर्थात कुछ मिठाई खरीदते और गाड़ी इस हिसाब से जोतते कि रात होने से पहले रहटा पार कर जायें । लौटते समय तो लूटपाट का ज्यादा डर लगता था । क्योकि किसानों के पास कुछ नकद राषि भी होती थी । रहटा के आसपास से बैलों को ऐसा जोर से हांकते की वे पूंछ ऊपर उठाकर दमाक देते । बैल इसलिए भी दौड़ लगाते क्योंकि गाड़ी खाली होती थी । हॉंलाकि मुझे याद नहीं की कभी वहां लूट पाट हुई हो । बस किस्से सुने थे कि एक बखत की बात थी ....इंधारों हुई रो थो ...म्हारी गाड़ी ..ऐकली थी...कोई नऽ ..थोबना की कई ... पन भैया !! मनऽ भी जब घड़ी नरिया होन खऽ आर लगई नीऽ ..दारी का सीधा एक कोस बादई रुक्या ।गांव में ये किस्‍से स्‍फुरण और कौतूहल का संचार करते थे । सुनने वाला कह उठता फिर काई हुयो ।


धर्मेन्द्र पारे