रविवार, 15 नवंबर 2009

...उन्हें खिलौने देने की नहीं उनके खिलौनों को बचाने की जरुरत है

...उन्हें खिलौने देने की नहीं उनके खिलौनों को बचाने की जरुरत है
पता नहीं किस बात पर मनोज भाई से बात चल रही थी। बातों ही बातों में उन्होंने अपना कोई आईडिया शेयर करना चाहा। उनके आईडिया के पहले बता दूं मुझे जीवन में सबसे ज्यादा आइडिया दो लोगों से ही सुनने को मिले हैं- एक अपने मालवीय जी अर्थात राजेन्द्र मालवीय जो इन दिनों भोपाल निवासी हैं दूसरे हेलेश्‍वरसिंह चंद्रौसा। इन महाशय कि मुझे कोई सूचना नहीं है सुना है छत्तीसगढ़ में कहीं रहते है। मोबाईल की चार सिम के धारक हैं पर चालू एक भी नहीं। इन आइडिया के अजस्र स्रोतों उद्गमों के बारे में भी एक दिन लिखना है। अभी बात मनोज भाई की। मनोज भाई यानि श्री मनोज जैन। हॉं याद आया उनसे बात चल रही थी 1857 के दौरान सीहोर में हुए सिपाही विद्रोह पर। बात पहुंची उन दिनों के परिधानों पर। बात पहुंच गई ... इस समय के खेल खिलौनो और लोकसमाज में प्रचलित खेलो और खिलौंनों पर । उनका कहना था कि एक आयोजन में हाथ से बने खिलौने तैयार करवाये जायें और उन्हें जनजातीय बच्चों को भेंट किया जाये। हॉ और याद आया बात वन ग्रामों में कपड़ों पर भी चली थी। मेरी राय थोड़ी भिन्न थी। मुझे लग रहा है कि आज के हमारे दौर में बाजार में बच्चों के लिए जो खेल और खिलौनें उपलब्ध हैं उनमें पैसा बहुत महत्वपूर्ण हो गया है। जिसके बाप के पास जितने पैसे उसके पास उतने मॅंहगे खिलौने। फिर ये खिलौने हमारी परंपरा और भारतीयता से कम ही निकले हैं। ये भौतिकतावादी दुनिया की देन है। इनमें हिंसा , आक्रमण, दंभ ,छल का विकास होता है , न कि प्यार इंसानियत और साझा करने के भावों का। बाजार में या तो तरह तरह की मोटर कारें, बंदूके पिस्तौल तलवारे छूरे हैं या बैटरी चलित ‘बजित’गुड्डा गुड्डन। अब परिवार बहुत एकल हो रहे हैं। बच्चे या फिर एक ही होते हैं। यदि माता पिता दोनों नौकरी पेषा हैं या अपने टी. व्हीं. सैट के सामने घंटो बैठने के रुचि अभ्यासी हैं तो बच्चा किससे खेलेगा ? किससे वाद विवाद और संवाद बनायेगा ? दीवारों से छतों से बंद दरवाजों से खिड़कियों की झिरियों से ? या टी.व्ही. पर सन्नाते सीरियलों से ? पता नहीं मैं बहुत गहरे से महसूस करता हूँ हमारे समय के बच्चे बेहद एकाकी और मौन हो रहे हैं। उनकी दुनिया बहुत रंगहीन और निरंतर सूनी होती जा रही है। उनके बदन पर बहुत कीमती कपड़े हैं , वे मोटर वाइकों और कारों पर रेस भी लगाते है। मोबाईल उनके शरीर और आत्मा में प्रत्यारोपित किया गया अनिवार्य अंग है। आप उनकी सुविधाओं में हुई वृद्धि की बात कर सकते हैं। अपने जमाने के घोर अभावों की भी। पर उनमें रचनात्मकता छीजती जा रही है। उनकी कल्पना शक्ति का विकास अवरुद्ध सा हो रहा है । वे हमारे तथाकथित ‘सपनों’ ‘लक्ष्यों ’‘आदर्षो’ के वाहक और बोझा ढोने वाले बनते और बनाये जा रहे हैं। एक भयानक अंधी दौड़ चल रही है। चारों ओर अंधेरा है आगत में भी विगत में भी । प्रेक्षागृह में भी और नेपथ्य में भी सब तरफ एक ही मंचन है एक ही ...एक ..ही कि दौड़ो ...दौड़ो ...और ...और..दौड़ो ..और तेज ..पीछे छूट जाओगे बंदे ! रुको मत किसी के लिए भी !! उसके लिए भी मत जो तुम्हारा साथी है ! तुम्हारा सखा है तुम्हारा बंधु है !! बस गुजर जाओ उसके ऊपर से। मत सुनों उसकी रुंधी हुई आवाज और कराह। कहॉं जा रहे है भाई हम ? यह रास्ता कहॉं जा रहा है ? सुनो भंते !! सुनो सखा !! रुको रुको यह रास्ता कहीं नहीं जा रहा है ! यह अंतहीन है । हम अपनी पीढ़ियों को कितना और कैसा वैभव देना चाह रहे हैं क्या केवल पूंजी का ? केवल रुतबे का ? क्या उसमें इंसानियत का भाईचारे का कोई राग नहीं देगें ? जिन स्कूलों में हम उन्हें भेज रहे हैं वे फैक्ट्रियॉं है ,धंधे की जगह है । आज शब्द भी अपने सरोकार बताने लगे है । धीरे धीरे हमारे जीवन में कैसे प्रवेश कर गये ..जैसा कहा जाने लगा है ‘शि‍क्षा उद्योग ’ ‘ चिकित्सा व्यवसाय ’ ‘सूचना माध्यम’ मेरा प्रश्‍न है कि क्या सचमुच शि‍क्षा को उद्योग चिकित्सा को व्यवसाय और सूचना को माध्यम होना चाहिए ? दोस्तों जिस दिन या पूरा सच हो जायेगा हमारी दुनिया बड़ी भयावह हो जायेगी ? बात लोक समाजों और जनजातीय समाजों में प्रचलित खेल खिलौनों की की चल रही थी । मुझे लगता है कि उन खेल खिलौनों में पैसा अर्थात पूंजी अर्थात हिंसा, एकाकीपन, अरचनात्मकता और एक्कलकौडे़पन जनित रुग्णताऍं नहीं हैं। उनमें सामूहिकता, मिल बांट कर आनंदित होने का भाव , और बराबरी की चीजें ज्यादा हैं। उनमें अमीर गरीब का भेद भाव निर्मित नहीं हो सकता । बच्चे उन खेल खिलौनों के खुद अविष्कारक निर्माता और मौलिक डिजायनर होते हैं । उनकी सामग्री अपने आस पास के पर्यावरण से ही प्राप्त हो जाती है । उनकी कल्पनाशीलता ,रचनात्मकता का इससे विकास भी होता है । खाकरे के पत्तों, घास के तिनको, बांस की चिम्मालियों,ज्वार मक्का के ठठेरों , तुअर की तुरसाटियों, आम की गुईयॉं,खपरैल के टुकडों, फूटी हुई शीशि‍यों के ढक्कनों, नारियल की नट्टियों , नदी के दोंगलों , सीपों, नीबू और आम की पत्तियों, सनी हुई मिट्टी , कागज , धागा से न जाने कितने कितने खेल खिलौने तैयार होते थे । आज के बच्चे इन्हें नहीं जानते इसलिए बहुत सारा और भी नहीं जानते। फिर मनोज भाई से निष्कर्षतः विचार बना कि हमें ही जनजातीय और लोक समाज के बच्चों से अब सीखना होगा। एक ऐसा आयोजन करना होगा जिनमें बहुत से वनग्रामों, देहातों के बच्चे शरीक हों और उनकी दुनिया में या जन स्मृतियों में बचे खिलौनों को फिर बनवाया जाये। उन्हें प्रचारित प्रदशिर्‍त किया जाये। उनका परिष्कार किया जाये। उनकी कार्यशाला हो।...उन्हें खिलौने देने की नहीं उनके खिलौनों को बचाने सहेजने संरक्षित करने की जरुरत है ।
धर्मेन्द्र पारे