शुक्रवार, 27 नवंबर 2009

चंदू खलीफा शटल्ली और मिट्ठू कान का मैल निकालने वाला


चंदू खलीफा शटल्ली और मिट्ठू कान का मैल निकालने वाला

मोहल्ले में उन दिनों अखाड़ेबाजी और पहलवानी का बड़ा जोर था। आधी छुट्टी में आगे पीछे की कक्षाओं के कुछ दोस्त आ जाते और बड़े रोचक किस्से सुनाते । उन दिनों खेड़ीपुरा और गोलापुरा मोहल्ले की तनातनी खूब चलती थी । मैं बड़े विस्मय से यह सब सुनता और घर गांव सब दूर सुनाता । चंदू खलीफा और हीरु भैया दो नाम अक्सर आते थे । पहलवानों में  सोहन मोहन पहलवान, दुर्गा पहलवान, जतन पहलवान और पुराने पहलवानों माखन उस्ताद, सखाराम पहलवान के रोमांचकारी किस्से भी कान दर कान होते हुए हम तक क्षेपकों रुपकों परिष्कार के साथ पहुंचते। दुष्मन पहलवानों में अक्सर प्रहलाद पहलवान का जिक्र आता था। ऐसे किस्से प्रायः रामकिशन और राजेश सुनार सुनाते। राजा नाई उसमें घीं डालता था। जब हम घर लौटते थे तो वह मुझे यह भी बताता था कि वह तो हीरु भैया के घर तक पहुंच रखता है। और जब खेड़ीपुरा गोलापुरा का झगड़ा होगा तो हीरु भैया के घर जाकर भाभी से एक चक्कू मांग लायेगा। मुझे अपनी दीनता और हीनता पर बड़ा दुख होता। राजा से ईर्ष्‍या भी। मुझे लगता था कि अब जीने के लिए चंदू भैया या हीरु पहलवान से जान पहचान होना बहुत जरुरी है। एक दिन मैंने पिताजी से पूछा भी कि क्या वे चंदू खलीफा को जानते हैं ? उन्होंने कहा हां उसके बाप रामकिशन सुनार के घर से ही अपने लिए सुनारी का काम होता है। चंदू खलीफा से सीधा परिचय नहीं होने के कारण मुझे तसल्ली नहीं हुई। मुझे अपने मोहल्ले और अपनी सुरक्षा खतरे में प्रतीत हुई। रामकिशन, नवा, राजा, राजेश, सतीश, राकेश, आदि मेरे पक्कम-पक्के गोंई थे । रामकिशन से हमेशा नूतन और रोचक जानकारी मिलती थी। देखा जाये तो स्कूल के हम बच्चों में रामकिशन की जाति बिरादरी के लड़कों की ही जम के चलती थी। उनके बोलने का बेलौस अंदाज , पहलवानों की तरह सीना तान कर चलना और निडर और निर्भय आचरण वीररस की रोमांचित करने वाली कथाएं सब बहुत आकर्षक लगती थी। हम ज्यादातर लड़के उनकी बोली की नकल करके वैसे ही दादा बनना चाहते थे। उनकी ही तरह मोहल्ले और कभी बाजार में दिखने बनने और प्रकट होने की कोशिश करते कभी कभी सफल होते कभी नहीं। रामकिशन , लल्लू , उत्तम, मानसिंग इनकी रंगदारी से मैं अच्छा खासा प्रभावित था। जब छुट्टियों में गांव जाता अपने गांव के दोस्तों को इनसे पक्की दोस्ती के किस्से सुनता वे सब दीनता से भर उठते। कई बार ठंडी सांस भी लेते। पर मैं उन्हें बेफिक्र करता डरना मत कभी हरदा आओ तो इनका नाम भर ले लेना कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता। रामकिशन से ही जाना कि जंगली सूअर को कैसे मारा जाता है कि शटल्ली के पास कैसे इतने सारे शिकारी कुत्ते हैं। सुअर मार गोले कैसे बनते हैं ? सूअर की चर्बी क्या होती है ? सुअर के बाल कैसे रखे जाते हैं ? कहां बिकते हैं ? महुए से कच्ची दारु कैसे बनती है ? पुलिस आती है तो कैसे नदी के पार तक भागा जाता है ? न जाने कितनी कितनी बातें ! मैं कभी कभी रामकिशन के घर भी जाता था। उसके मोहल्ले में चारों तरफ मोटी मोटी गायें घूमती थी और सर्वत्र महुए की गंध आती थी। जब जंगली सूअर शिकार करके कोई लाता था और उसका बंटवारा विक्रय होता था हम लोग उसको देखने जाते। रामकिशन बताता कि कक्का ने जब घड़ी वल्लम मारी तो सूअर खीस लेकर दौड़ा पन ....जे जा रया हे न कबरा कुत्ता जिनने उसकू पकड़ लिया फिर तो सब कुत्तों ने उसको पकड़ लिया । सूअर का शिकार करने वाले स्कूल के पास से ही जाते थे हाथों में वल्लम , बूच की रस्सियों से बंधे पंद्रह बीस देशी कुत्ते कुछ बिना रस्सी के भी। हम दूर तक उनके पीछे पीछे जाते थे फिर वे नहालखेड़ा रोड पर निकल जाते और हम लोग लौट आते। रामकिशन के मोहल्ले में ही हम दोस्तों को सबसे ज्यादा नई नई चीजों से परिचय होता था जो हमारे लोक संसार में कभी देखने को नहीं मिलती। उनमें एक मिट्ठू नामक आदमी था। वह अजीब वेश भूषा पहनता था और कान का मैल निकालने का काम करता था। उसकी कमर में एक पट्टा बंधा होता था। वह बड़े ओज में जीवंत गाथाएं सुनाता था। हम उसके पीछे पीछे घंटाघर तक चले जाते। (सतत ------)


धर्मेन्द्र पारे