गुरुवार, 5 नवंबर 2009

भौरे की जाली

भौरे की जाली
भौरा घुमाने के लिए जाली की जरुरत होती है । जाली शब्द जाल से बना है । जाल पहली गांव में ही बुने जाते थे । गांव के जाल ज्यादातर मछली मारने के काम आते थे । इन्हें गांव में मत्स्य आखेट करने वाले कहार केवट निषाद लोग ही बनाते थे । अब सब कुछ मषीनीकत हो चुका है । बाजार से बनकर आता है । गांव में कभी कभी कभार दूसरे जाल को भी लोग जानते हैं वह जाल पारदी लोगों के पास होता है वह अलग प्रकार का होता है उसे फंदा भी कहा जाता है । पारदी उनके जाल फंदे और जीवन के बारे में बाद में लिखूंगा मैं बात कर रहा था जाली के बारे में जाली प्रायः सूत के पतले धागों को भांजकर बनाई जाती थी । भांजना शब्द का आषय धागे पर बल देकर एक सुतली बराबर मोटी जाली बनाना । इसकी लम्बाई आमतौर पर चार फीट के बराबर होती है । इस जाली के एक सिरे पर गांठ लगाई जाती थी जो भौरे की गुंडी में फंसती थी दसरे सिरे पर लकड़ी का एक टुकड़ा बांधा जाता था इसे काटक्या कहते हैं । फिर चींटी अंगुली में काटक्या वाला सिरा फंसाकर भौरे पर जाॅली लपेटी जाती है , और अभ्यस्त हाथों से जोर से भौरे को फंेका जाता था भौंरा जोर की गुंजन और गती के साथ धरती पर घूमता था। अब गांव खेड़ों में भी यह खेल कम ही खेले जाते हैं । वैसे भौरों के भी कई प्रकार होते हैं जिनमें बिना गंुडी वाले, लंबी किन्तु छोटे आकार की भौरी आदि ।अब मन के भंवर और जाल तो और भी बढ़ गये हैं पर काठ का भौरा और सूत की जाली अतीत की बात बनती जा रही है ।
धर्मेन्द्र पारे