शनिवार, 28 नवंबर 2009

बकरियों की पत्तियां और ओऽ..ऽ बाई ऽ राख डाल दो ...




पांचवीं कक्षा में पहुंचने पर हमें कुछ और विद्यार्थी साथी मिले जो विगत वर्ष अपनी परीक्षा में फेल हो चुके थे। उनमें दो तीन सफाई कामगारों के लड़के थे। वे कभी स्कूल आते कभी नहीं। उन दिनों सिर पर मैला ढोने की कुप्रथा आम थी। वे छोटे छोटे बच्चे भी अपनी माताओं के साथ उस काम में हाथ बटाने लगे थे। वे एक विशेष टेर और लय के साथ घरों में आवाज लगाते - ओऽ..ऽ बाई ऽ राख डाल दो ...। या ग्रहण का दान मांगने आते। कभी हमारी उनसे आंख मिल जाती तो हम लोग आंख चुरा लेते। दोनों सामना नहीं करते। स्कूल में भी वे हमसे कटे कटे रहते। ऐसा कुछ और सहपाठियों के साथ भी होता था। जब कभी अपने परिवार के साथ पंगत जीमने धरमशाला में जाना होता , पंगत के बाद झूठी पत्तले और उनपर छोड़ी गई मिठाई , पूड़ी,सब्‍जी धरमशाला के बाहर फेंकी जाती कुछ बच्चे, देशी कुत्ते, कौऐ,देशी सूअर एक साथ उनपर झपट पड़ते । कौओ और सूअर को कुत्‍ते डराते कौए थोडा सा उपर उडते फिर झपट्टा मार के चोंच में टुकडा भर लेते। मोहल्‍ले में आम तौर पर कुत्‍तों के डर से तुरक तुरक भागने वाले सुअर यहॉ आकर ढीठ हो जाते थे । बस कुत्‍तों की कुत्‍ताई का अहंकार बना रहे ऐसा कुछ वे अभिनय करते और कुत्‍तों को लगातार यह अहसास कराते कि वे अब भी उनसे डरते हैं यानि कुत्‍ते उन्‍हें डराते तो वे थोडा भागने का अभिनय करते फिर वहीं आ जाते । कुत्‍तों सुअरों कौओ को  जो बच्‍चे खदेड्ने का काम करते थे  उनमें कुछके मेरे सहपाठी भी होते । मैंने कई बार उन्हें कातर स्वर में गिड़गिड़ाते और एक विशेष लगने वाली लय और चेहरे पर पूरी कातरता दीनता लाकर मांगते हुए सुना- ओ बाईऽ !! भूख लगी है । दे दे बाईऽ... । उनसे मेरी जब आंख मिलती हम दोनों की स्थिति बड़ी अजीब हो जाती !! जैसे हम दोनों इस यथार्थ को नकार देना चाहते हों !! जैसे पट्टी पर लिखी कोई इबारत को हम जल्द एक झटके से झपट कर मिटा देते थे !! कुछ वैसे ! मेरे ऐसे सहपाठी एक आध कक्षा ही पढ़ सके । उस कक्षा में भी वे कभार ही आते थे । काल के गाल में आगे वे कहां विलो गये कुछ पता नहीं । उनके चेहरे उनकी आंगिक भंगिमाएं उनके स्वर ..मेरी स्मृतियों में जब तब उभरते हैं । जब तब ...जब मैं अपने बचपन में खोया होता हूं ..समय के कुछ पन्ने कुछ दृश्‍य ही देखता हूं कि छोटली और कुत्ते, नवा और रामकिशन, चंदू भैया और हीरु पहलवान, कंचे, अंटी, भौरा, दो कोंड जैसे गड्मड होते कई दृश्‍यों के बीच वे भी अपनी पूरी रंगत के साथ सामने आ खड़े होते हैं और बोलते है बता हमारा जबाव कहां है !!....हमारे एक पंडीजी के घर आठ दस बकरियां थी वे रोज कुछ लड़कों को उनके लिए हरी पत्तियां लेने के लिए आधी छुट्टी में भेज देते थे। पत्तियां तो रोज आती गई पर वे ज्यादातर बच्चे आगामी कक्षाओं तक नहीं पहुंच सके। स्कूल काफी गरीब बच्चों से भरा था। उनके घरों में मृत जानवर उठाने, चमड़े पकाने , जूते सिलने पॉलिश करने, धानी फुटाने और राजगिरे के लड्डू बेचने, घरों में बर्तन मांजने, मछली मारने, नालियां और शौचालय साफ करने , झाड़ू बनाने, सब्जी बेचने, कुंडी बस्सी बर्तन बेचने , कच्ची दारु बनाने, कपड़े सिलने, दूध बेचने, मिट्ठू से भविष्यफल बताने , रुंई पींजने, मटके और ईंट बनाने,लुहारी और सुनारी काम होते थे। कई विद्यार्थियों को बार बार नदी जाना पड़ता था शौच के लिए। कई के चेहरे पीले पच्च थे। कुछ पूरे समय चुप्प घुप्प बैठे रहते थे । उनको बोलते हुए बहुत कम देखा जाता । खिजरे मास्टरों की हाथों वे बुरी तरह पिटते भी थे पर उनके रोने की आवाज भी बहुत धीमे आती थी जैसे वे तत्व ज्ञानी थे कि रोने से भी, बोलने से भी कुछ नहीं होना है। हमारे कुछ दोस्त प्राथमिक शाला के दिनों में ही इस संसार से चले गये। एक दिन खबर आती कि रमेश कहार कल मर गया। कभी पता चला कि गोकल पतली भी नहीं रहा। कभी पता चला कि गुप्‍तेश्‍वर मंदिर के कुए में हमारा कोई हमउम्र मरा हुआ मिला । हम दोस्त फिर आपस में बस चुपचाप रहते। उन दिनों शोक व्यक्त करने के लिए शब्दों का ज्ञान ही कहां था ? जैसे चुप्पी खामोशी ही सबसे सशक्त ज्ञान था। कई बार लगता है कि हमारे चुप रहने वाले सहपाठी इस ज्ञान को ज्यादा गहराई से जानते थे !! (सतत जारी...)
धर्मेन्द्र पारे