शनिवार, 14 नवंबर 2009

जिंदगी है कि एक अफसोस का रह जाना


जिंदगी है कि एक अफसोस का रह जाना

श्रीमती लक्ष्मीबाई जलखरे का जाना
आज होशंगाबाद गर्ल्‍स कॉलेज की एक शोध संगोष्ठी में भाग लेने जा रहा था। गाड़ी में मेरे साथ प्रो.अनिल मिश्रा, प्रो. चरणजीतसिंह और श्री व्ही. के. विछौतिया भी थे। हम होशंगाबाद से से कुछ दूर ही थे कि हरदा से हरिहर लभानिया का फोन आया लक्ष्मी बाई नहीं रही ! कुछ देर बाद उनकी अत्येष्टि होना है। अगले ही पल ज्ञानेश चौबे ने मोबाईल से सूचित किया कि वे बड़े मंदिर पर हैं और कुछ ही देर बाद लक्ष्मीबाई की अत्येष्टि होना है। जिंदगी की आपाधापी कई बार बहुत कीमती पल छीन लेती है। जब श्री महेशदत्त मिश्र का निधन हुआ उन दिनों भी मैं अपने पैत़क गांव दूलि‍या में था। जब मैं शाम को लौटा और दीपक दीक्षित उर्फ ‘लाईट’की दुकान पहुंचा तब पता चला कि हरदा के गांधी श्री महेशदत्त मिश्र इस दुनिया में नहीं रहे। कुछ ही दिन पहले उन्होंने मुझे बुलाया था । ज्ञानेश चौबे और मैं जब उनसे मिलने घर पहुंचे उन्होंने कहा- अपने कैमरे से मेरी तस्वीर निकालो !! कुछ देर बाद खुद ही रुक गये और बोले आज नहीं कल आना । हम उनकी इस बात को समझ नहीं पाये। अगले दिन जब पहुंचे वे बिल्कुल चिकनी और क्लीन सेव में तरोताजा बैठे थे बोले अब फोटो निकालो। फोटो निकालने के बाद बोले मेरी फोटो हर आकार में बनवा कर लाना। मैंने वैसा ही किया। सोचा नहीं था कि वह उनकी आखिरी तस्वीर होगी । उनके बाद अखबार के मित्रों को वही फोटो संदर्भ के रुप में काम आई । इसी तरह के कुछ अफसोस संभवतः जीवन पर्यंत मेरे साथ बने रहेगें। उनमें एक अफसोस है जब मैं सिवनी मालवा के कुसुम महाविद्यालय में था मेरे मित्र श्री हरि जोषी जो उन दिनों अनिल सद्गोपाल के साथ काम कर रहे थे, का सुझाव था कि मुझे हरिशंकर परसाई और भवानीप्रसाद मिश्र के बहुत पुराने मित्र चतरखेड़ा निवासी श्री रामचरण पाठक से कुछ अनछुए संस्मरणों को संकलित करना चाहिए। अप डाउन की भागमभाग में मैं एक दो बार ही श्री पाठकजी से उनके गृह ग्राम चतरखेड़ा और बनापुरा में मिल सका पर जो कुछ कहना और करना था वह नहीं कर सका। इसी तरह श्री अजातशत्रु का सुझाव था कि मुझे रंगकर्मी श्री देवेन्द्र दुआ के पिताजी से भारत पाक विस्थापन की त्रासदी को सुनकर रिकार्ड करना चाहिए। श्री देवेन्द्र दुआ के पिताजी बीमारी से स्वस्थ हो चुके थे। मेरी उनसे बातचीत और भी आसान हो गई थी क्योंकि खेड़ीपुरा का मकान छोड़कर बाहेती कॉलोनी में आ चुका था। बाहेती कॉलोनी से बिल्कुल सटा हुआ मकान श्री देवेन्द्र दुआ का है। किन्तु नियति को शायद यह भी मंजूर नहीं था अचानक श्री दुआ भी एक दिन चले गये अपने साथ भारत पाक विभाजन की त्रासदी लिये हुए !! अफसोस के सिलसिले लंबे हैं .... आज स्थिति ऐसी हो गई कि अपने संसार से जा चुके लोगों की फेहरिस्त दिन व दिन बढ़ती जा रही। जान पहचान के बहुत से लोग स्मृति लोक में दाखिल हो चुके हैं। जहॉ सिर्फ स्मृतियों से संवाद और संवाद और संवाद शेष रह जाता है। सब कुछ एक तरफा। आवाज हमारी ही गूंजती है दूर तक और डूब जाती है दूसरी ओर से कोई उत्तर नहीं आता !!!
श्रीमती लक्ष्मीबाई से मेरा परिचय बहुत बाद में हो सका। लगभग पैंतीस छत्तीस साल पहले जब मैं अपने पैतृक गांव से हरदा पढ़ने के लिए आया था । मेरा नाम खेडीपुरा स्कूल में दर्ज करवाया गया। हमारे नेगी ‘पंडीजी’ अर्थात स्व. गिरिजाशंकर नेगी की शाम की बैठक जलखरेजी की दुकान पर ही हुआ करती थी। उन दिनों हरदा में घंटाघर चौक पर पुस्तकों की दो दुकाने बड़ी चर्चित थी। दोनों पंडितजी की दुकाने कहलाती थी। एक मुन्नालालजी जैन पंडित जी की। दूसरी जलखरे पंडित जी अर्थात श्री रामकिशन परसराम जलखरे की। पाठ्यपुस्तकों , स्लेट कलम के अलावा इन दुकानों पर उन दिनों अखबार और पत्र पत्रिकाओं की बड़ी संख्या उपलब्ध हुआ करती थी। शाम के समय इन दुकानों पर खेड़ीपुरा, अन्नापुरा, मानपुरा और मिडिल स्कूल के शि‍क्षकों की बैठक या कहिए जमावड़ा हुआ करता था। श्री रामकिशन परसराम जलखरे अपने समय के प्रसिद्ध स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और गांधीवादी थे। लक्ष्मीबाई से विवाह के तुरंत बाद वे जेल चले गये थे। लक्ष्मीबाई उनकी दूसरी पत्नी थी। पहली का निधन हो चुका था। स्वराज संस्थान की स्वाधीनता फेलोशि‍प मिलने से मुझे हरदा अंचल में स्वाधीनता के लिए चले संघर्ष खासकर 1857 से 1947 के बीच के कई ज्ञात अज्ञात स्वातंत्र्य वीरों के बारे में जानने का सौभाग्य मिला । अभी सिर्फ श्रीमती लक्ष्मीबाई जलखरे के विषय में बात करना चाहूंगा - उनका जन्म 29 अप्रैल 1926 को ग्राम डुमलाय में हुआ था। पिता श्री रामरतन रामरतन थे। लक्ष्मीबाई डुमलाय में दो साल की उम्र तक ही रही। उनके पिता छह भाइयों में सबसे बड़े थे। लक्ष्मी बाई जब दो साल की थी उनकी छोटी बहन का घर में आगमन हो गया था। इधर उनकी आजी के बीमार होने के कारण वे अपनी मॉं के साथ नानी के घर हरदा आ गई। उन्होंने हरदा की महिला आंदोलनकारियों श्रीमती लीला शाह ,श्रीमती गोदावरी बाई, श्रीमती विद्यावती वाजपेयी सुश्री जस्सी शाह, पुत्री श्री जमना प्रसाद शाह, सुश्री विमला एवं कमला सोकल के साथ काम किया था। प्रसिद्ध गांधीवादी स्वर्गीय दादाभाई , महेषदत्त मिश्र और चंपालाल सोकल उनके प्रेरणा स्रोत थे। श्रीमती जलखरे हरदा में स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की अंतिम कड़ियों में एक थी । वे जेल गई। घर के बर्तन तक नीलाम हुए । देश के लिए करते करते वे घर परिवार ठीक से नहीं जोड़ सकी। जीवन की सांध्य बेला में भी जर्जर तन पर बुलंद मन से वे कर्तव्य पथ पर डटी रही। उनका घर और जीवन बेहद दुरावस्था में था। इस उम्र में भी वे चूल्हा जलाकर भोजन बनाती थी। उनके स्वयं के दो सगे पुत्र हैं। दोनो वैवाहिक बंधनों में नहीं बांधे जा सके। घर के पीछे आंगन में मौन रखा चरखा अपने अतीत की दास्तान सुनाता रहता था। घर की भीतों पर ,छत पर , याने पूरे दरो दीवार पर गांधीवाद के लिए किये गये संघर्ष और आस्था के निशान आज भी देखे जा सकते हैं। वह घर भीतर ही भीतर मिट रहा था। लक्ष्मी बाई और भारत की तमाम इस तरह की महिला पुरुषों को हमारे समाज ने बदले में यही दिया था। कभी कभी छब्बीस जनवरी और पंद्रह अगस्त को स्कूली बच्चों के कार्यक्रम में उन्हें याद कर लिया जाता था। मुझे लगता है हमारा देश गांधी के सपनों का देश अब कैसे कहॉं और कितना रहा है ? क्या यह बड़ा झूठ नहीं है ? जो हम एक रटे रटाये रुप में एक दूसरे से बोलते हैं । मुझे लगता है अब हमारा देश मल्टीनेशनल कंपनियों , पूंजी के बादशाहों की क्रूर आकांक्षाओं और उम्मीदों से भरा देश है। यह देश अब उनके ही सपनों को सर्वत्र पूरा कर रहा है। गांधी के विचार, गांधी को मानने वाले अब कहॉ। गांधी के सपने ये तो नहीं थे । मेरे साथियों से मैंने पूछा आप लक्ष्मीबाई को जानते हैं उन्होंने वर्षो चरखा चलाया है , सूत काता है। जेल गई हैं । अंग्रेज अफसरों को चूड़ियॉं पहनाई है। और ...और ....बदले में समय और समाज से उन्हें जो कुछ मिला है उसपर भी उन्हें कतई कहीं कोई अफसोस नहीं ...!! वे सचमुच नही जानते थे लक्ष्मी बाई कौन थी। एक बहुत छोटे से कस्बे नुमा शहर हरदा की पारिवारिकता की कई बातें उन्होंने बताई थी। आज हरदा न कस्बा रहा न वह पारिवारिकता। हरदा की पारिवारिकता का जिक्र तो सरला बहनजी अर्थात सरला सोकल भी करती रही हैं । उनकी बातों में भी वह कसक झलकती है । स्वर्ग के वैभव और शक्ति सम्पन्नता को मात देने वाले बहुतेरे लोग अब यहॉं निवास करते हैं पर वे सब अपने और अपनी सुविधा से प्यार करते हैं । पूंजी उनकी दुनिया का ध्येय वाक्य है। वे कैसा समाज निर्मित करेगें। जहॉं हम लक्ष्मीबाई को नहीं जानेगें। दादाभाई नाईक को भी नहीं । महेशदत्त मिश्र को भी नहीं । चंपालाल सोकल को भी नहीं। लच्‍छू कप्‍तान को भी नही । किसी को नहीं। अभी आठ तारीख को ही खिड़किया कॉलेज में जिला युवा उत्सव का प्रारंभ था। गांधी की पुस्तक हिन्दी स्वराज पर एक परिचर्चा थी । विद्यार्थियों शि‍क्षकों से गांधीवाद पर बात करते करते पता नहीं किस अज्ञात प्रेरणा से मैं श्रीमती लक्ष्मीबाई जलखरे के विषय में बताता चला गया। विगत 13 नवम्बर 2008 को मेरे साथ ईशान जैन, श्रीमती सुनीता जैन और मनोज जैन थे । हमने उनका एक लंबा साक्षात्कार लिया था । उसकी आडियो और वीडियो सी. डी. उपलब्ध है। बहुत से सवालों के जवाब उन्होंने दिये थे । और जाने अनजाने बहुत गंभीर अघोष सवाल मेरे आपके लिए छोड दिये थे। हरदा के बच्चों को आजादी के संघर्ष से परिचित कराया जाना बहुत जरुरी है। मुझसे बेहतर आप जानते हैं कि अब हम उन्हें किन चीजों से ज्यादा परिचित करा रहे हैं ? विरासत को न जानकर हम अपना कैसा भविष्य रचेगें ? श्रीमती लक्ष्मीबाई जलखरे को मेरा शत शत नमन ।
धर्मेन्द्र पारे,हरदा