सोमवार, 23 नवंबर 2009

आना हरदा छूटना दूलिया का

आना हरदा छूटना दूलिया का


अपने बचपन की कुछ यादों में वह करुण याद भी है जो मुझे अब तक याद है । हुआ यह कि चैत करने के बाद पिताजी लाल तुअर बेचने हरदा आये थे । हरदा में अपने मामाजी श्री गोपीकिशन जोशी से मिले थे । श्री जोशी जी को बाद में शिक्षा के क्षेत्र का सर्वोच्च सम्मान राष्ट्रपति पुरस्कार भी मिला । जोशी जी ने पिताजी को कहा कि क्या अब लड़कियों को आगे नहीं पढ़ाओगे ? उस समय तक मेरी बड़ी बहन पांचवी पास करके पढ़ाई छोड़ चुकी थी। गांव में चैथी कक्षा तक ही स्कूल थी। यह स्कूल भी पिताजी की कोशिशों से ही खुल सका था और शुरु में हमारे मंदिर में ही लगता था। एक देशवाली गुरुजी सबसे पहले पढ़ाने आये थे। चौथी के बाद मोहनपुर पढ़ने जाना पड़ता था। यह गांव प्रसिद्ध सर्वोदयी और गांधीवादी दादाभाई नाईक का मालगुजारी गांव था। बड़ी बहन के बाद विछली बैण वहां पढ़ने जाने लगी थी। जोशीजी की प्रेरणा ही होगी कि पिताजी ने भविष्य की चिंता करते हुए एक दिन फैसला किया कि अब हरदा में ही पढ़ना रहना है। संभवतः यह सन् 1970 की बात है। असाढ़ में कपास और लाल तुअर की बौनी करवा कर हम हरदा आये थे। उन दिनों वर्षा लगते ही हमारे गांव से हरदा आने के सब रास्ते बंद हो जाते थे। ज्यादा वर्षा लगने के बाद तो पूरी तरह। बहुत मुश्किल से पहाड़ी रास्ते से रहटगांव पहुंचे थे। हमें रहटगांव तक छोड़ने के लिए मोहन पंडित और उसकी बाई भी आये थे। मोहन पंडित के पुरखे हमारे निजी मंदिर में पुजारी के रुप में गांव लाये गये थे। उनके और हमारे परिवार में बड़े आत्मीय रिश्‍ते थे। मोहन और मेरी उम्र के बीच में एक माह का ही अंतर है। वह मेरे बचपन का मि़त्र है। रहटगांव तक के सफर में मोहन और मैंने खूब मस्ती की और खंती खंती पानी पीने और खेलने की जिद करते रहे । खैर रहटगांव आ गया और मोहन की बाई और मेरी मॉं जिन्हें मैं काकी कहता था खूब रोई। हम बच्चे भी रोने लगे थे। बस जिसे तब हम मोटर कहते थे में बैठकर हरदा आये थे। हरदा आते ही हम सीधे अपनी नानी के घर पहुंचे थे नानी तो अपने गांव बिछौला में थी पर घर की चाबी किसी किरायेदार को दे गयी थी। बड़ा लंबा चौड़ा घर था। बारह चश्‍मे का। इसी घर में मेरा जन्म हुआ था। आगे लगभग चौंतीस पैंतीस बरस मैं इसी घर में रहा। आज भी रात में जब मुझे सपने आते हैं सपनों में मैं इसी घर में होता हूं । इस घर में मुझे सबसे अच्छा लगा जब अलमारी खोली तो उसमें नानी ने चिरौंजी रख गयी थी। मीठी मीठी चिरौंजी मैंने खूब खाई और उसकी बीजी जिसे अचार कहते थे फोड़कर खाई। घर के आसपास ज्यादातर घर नाईयों, धोबियों , सुतारों तथा तेलियों के थे। कुछ घर पिंजारों कुम्हारों के भी थे। कुछ दूर जाकर ब्राह्मणों की पट्टी शुरु हो जाती थी। घर में कुछ किरायेदार भी थे। एक तरफ रामोतार शर्मा दूसरी तरफ कानूनगो और आगे कोई दर्जी किरायेदार थे। तब तक नानी ने छह चश्‍में मकान और बनाना शुरु कर दिया था। घर के पीछे रामनाथ मुकद्दम का घर था। इनके पौत्र जगदीश जिन्हें बचपन में डिबरु पंडित कहते थे से मेरी जान पहचान हुई। फिर शंकर सुतार, राजा नाई, नवा तेली सहित कई और से भी मेरी दोस्ती हो गई। ये सारे लोग लगभग खड़ीबोली में बात करते थे । इस बोली की हमारे गांव के दोस्त खूब हंसी उड़ाते थे और इस बोली को वे ऐसा वैसा वाली बोली कहते थे। हरदा के दोस्त हमारी गांव की बोली को काई कुई वाली बोली कहते थे और मेरा खूब उपहास उड़ाते थे। हुआ यह कि उस समय पूरे मोहल्ले में सिर्फ शंकर सुतार के पिताजी के पास ही साइकिल थी । उसके पिताजी जब दोपहर में खाना खाने लौटते सब बच्चे मिलकर शंकर को कैंची साइकिल सिखाते। शंकर सहृदयता दिखाते हुए उसके पीछे पीछे साइकिल पकड़ने वाले दोस्तों कों भी कुछ देर सीखने का मौका देता था। एक दिन उसने मुझपर भी यह उपकार किया। जब मैं चलाने लगा तो मैंने दोस्तों से गांव की बोली में कहा - मखऽ मुट्ठो तो पकड़ना देवऽ !! सारे दोस्त खूब जोर से हंसे। दरअसल मुझे साइकिल का हैंडिल शब्द नहीं मालूम था। इस तरह के उपहास के कई अवसर आये बल्कि आज तक कभी कभी आ जाते हैं। मेरी मातृभाषा की हत्या की शुरुआत का यह पहला दिन था। संसार की तमाम मातृभाषओं को इसी तरह मारा जाता है । कोरकू जनजाति पर कार्य करते हुए मुझे यह और भी शिद्दत से प्रतीत हुआ। समुदाय कुछ अरसे बाद खुद ही अपनी भाषा और संस्कृति की हीनता को जीने लगता है। मुझे लगता है यही उपहास सारी भाषाओं बोलियों की हत्या करता है। धीरे धीरे मैं एक नकली भाषा में पारंगत होता गया। केवल कुछेक शब्द मेरी आत्मा के साथ बचे रहे। अब तो बहुत कम। पत्नी बच्चियों को वे गवारु और फूहड़ लगते हैं। वे उन्हें एक कॉलेज प्रोफेसर के लायक नहीं लगते। मुक्तिबोध ने पता नहीं किसे खोई हुई अभिव्यक्ति कहा था । मुझे तो मेरी वह बोली ही लगती है।

अब स्कूल जाने की बारी थी। मेरे आजा के घर के बाजू में एक हेडमास्टर पांडूलाल तिवारी और हमारे सजातीय गिरिजाशंकर नेगी खेड़ीपुरा स्कूल में पढ़ाते थे। वैसे यह स्कूल शहर का बदनामशुदा स्कूल था। उन दिनों शिक्षक लोग हंसी मजाक में या सचमुच में कहते थे कि जिस शिक्षक को शिक्षा विभाग सजा देता है उसे इस स्कूल में भेजा जाता है। दरअसल खेड़ीपुरा गरीबों का मोहल्ला था। उन दिनों लोगों की माली हालत बड़ी खराब रहा करती थी। स्कूल के आस पास चारों तरफ चमारों, मेहतरों, कंजरों, ढीमरों, बेलदारों के घर थे। बच्चे भी जाहिर तौर पर इन्हीं तबके के होते थे। गरीबी और बेवशी उनके परिधानों और किताब कापी के बस्तों पर तो होती थी पर जिंदादिली और मस्ती में उनका कोई मुकाबला नहीं था। पिताजी मुझे स्कूल ले गये। पांडुलाल तिवारी हेडमास्टर ने पूछा - केरे काई नाम लिख देवां थारो ? दूसरे शिक्षक ने लाड़ से कहा धरमिंदर ! तीसरा जो नाम दर्ज कर रहा था उसने लिख दिया नाम धर्मेन्द्र पिता का नाम रमेशचंद्र जाति ब्राह्मण। मुझे पूरे वर्ष भर यह पता ही नहीं चला कि मेरा नाम अनिल से धर्मेन्द्र हो चुका है। पांडुलाल तिवारी हेड मास्साब के चिरंजीव संजय तिवारी की उन दिनों स्कूल में जबरदस्त चलती थी । बड़े पंडीजी के पु़त्र जो ठहरे । उसी ने दूसरी कक्षा में बताया कि तेरा नाम जब हाजिरी में पुकारा जाता है तो जय हिन्द क्यों नहीं बोलता ? मैंने कहा मेरा तो नाम ही नहीं पुकारा जाता ? उसने पंडीजी से कन्फर्म कराया कि मेरा नाम तो धर्मेन्द्र हो चुका है । मेरे घर परिवार में कई वर्षो तक यह पता नहीं चला । यदि कोई दोस्त बाहर से आवाज देता तो घर वाले उसको बाहर से ही भगा देते न्हाऽ कोई धर्मेन्द्र नी रैयतो हंई ! मेंरी नानी, नानी की बहन जिन्हें हम सिराली वाली मावसी कहते थे,मेरी आजी,आजा दाजी अर्थात भैयाजी की बहन सामरधा वाली जिजीमाय, पिता की ताई जिन्हें हम गोपालपुरा वाली माय,पिताजी की चाची याने काकामाय, सोनतलाई वाली काकी और मेरी बडी मां याने बड़ी बाई सहित कई लोगों को यह पता नहीं चला कि मेरा नाम अनिल से धर्मेन्द्र हो चुका है। मेरी इन्हीं बड़ी बाई ने मेरा नाम अनिल रखा था। मेरे गांव दूलिया में तो अभी तक कई लोग - अरेऽ अनिल भैया ऽऽ... कहकर ही आवाज देते हैं। पहली कक्षा में मैं पूरे साल भर स्कूल नहीं गया । मुझे वहां अच्छा ही नहीं लगता । सुनील नाई राजा नाई के काका का लड़का था। वह हमसे दो तीन साल बड़ा था । जब हम अंटी घुपड़ते होते या दो कोंड खेलते होते वह स्कूल में पिटाई की हैरतअंगेज दास्तान सुनाता था । मेरी तो भीतर ही भीतर रुलाई फूट जाती थी। वह बताता था कि बेट्टा जब घड़ी लुहाना पंडिजी स्लेट पट्टी माथे पर फोड़ते हैं और बडे़ गुरजी मैंदी की सोंटी से ठोकते है....! तो बस्स उधेड़ देते हैं । मैं चुपचाप सुनता और मन ही मन तय कर लिया कि अब स्कूल कभी नहीं जाऊंगा। इधर मेरी बड़ी बहन का नाम काशीबाई कन्यापाठ शाला में लिखाया गया था वह भी किन्हीं गंगू बहनजी के हाथों की जाने वाली पिटाई को ब्यौरा देती । मैं रोज बहाने बनाता कभी पेट दुखने का कभी बुखार आने का । पर इस बीच एक अच्छी बात हुई कि पिताजी ने मुझे सौ तक गिनती और पूरी बारहखड़ी पढ़ना लिखना घर पर ही सिखा दी थी । उन दिनों खेड़ीपुरा स्कूल में यह बड़ी बात थी। गुरुजियों के लड़कों तक को भी इतना नहीं आता था । पर मैं स्कूल जाने में हमेशा आनाकानी करता था। कभी कभी मुझे पिताजी पकड़कर खींचकर भी स्कूल छोड़ते थे पर मैं जोर जोर से रोता। और स्कूल जाने से बच जाता । जिन दिनों पिताजी गांव गये होते मोहल्ले के बड़ी उम्र के लड़के मुझे पकड़कर स्कूल छोड़ने जाते। जब तक घर दिखता वे लाड़ प्यार दिखाते। आगे गाडरी मंदिर के पास वे सात आठ लोग मुझे चींपते चापते। कोई हाथ पकड़ता कोई टांग। दोनों पक्षों का शक्ति परीक्षण होता समूह के आगे अकेले की क्या बिसात ? वे बुरी तरह मुझे छूंदते नोचते मैं जोर जोर से मां बहन की गालियां ठन्नाता। पत्थर खींचकर मारता और रोता। ऐसा करने वाला मैं अकेला ही नहीं था। मेरी स्कूल के कई बच्चे इसी तरह स्कूल तक लाये जाते थे। मोहल्ले और स्कूल के आसपास ऐसे कई लड़के थे जो स्वयं तो स्कूल नहीं जाते थे पर उन्हें दूसरे छोटे बच्चों को खींचतान कर उठापटक कर स्कूल छोड़ने में आनंद आता था। न केवल स्कूल जाने वाले बल्कि उन बच्चों को भी वे खीचकर ‘बड़े पन्डीजी’ के पास ले जाते थे जो कुल्फी खाते हुए दिख जाते थे। इन बच्चों में ज्यादातर वे होते थे जिनके पास कुल्फी खाने के कभी पैसे नहीं आ पाते थे। मेरे कुछ सहपाठी शनिवार के दिन स्कूल नहीं आते थे । वे शनिवार के दिन डिब्बे में तेल और लोहे का शनि महाराज रखकर माथे पर छोटा सा टीका लगाकर भिक्षा मांगते थे। सोमवार के दिन उनके पास अच्छी खासी चिल्लर होती थी। हम बाकि दोस्त उन्हें अद्भुत आष्चर्य और लालच से देखते थे। मेरे कुछ दोस्त जूते चप्पल पर पॉलिश करके पैसे ले आते थे। उन दिनों वे सब सहपाठी बड़े धनी माने जाते थे। इन पैसों से वे आधी छुट्टी में उबली बेर , गुड़पट्टी खाते थे । कभी कभी मीठा पान भी । कुछ बच्चे स्कूल के शिक्षकों को भी पान बनवा कर दे आते थे । एक गुरुजी को कैंची कैंवडर सिगरेट भी पिला देते थे। हम बाकि के जेब प्रायः खाली होते थे। मुझे पिताजी सुबह और शाम को पांच पैसे देते थे। जिनसे मैं फुटाने, नीबू की गोली या तोता के ठेले से गुड़पट्टी या ऊबली हुई बेर खरीदकर खाता था। पंद्रह पैसे हो जाने पर सिंधी के ठेले पर से आलू की गुलाब जामुन भी कभी कभी मिल जाती थी। कभी कभी बंबई की मिठाई या बुड्डी के बाल भी खरीदे जाते थे । इससे ज्यादा पैसे कभी कभार ही जेब में आ पाते थे। सिराली वाली मावसी मुझे खूब लाड़ करती थी। वह जहां भी जाती मुझे ले साथ ही ले जाती थी। उन्हें लड़कियों से घृणा की हद तक वितृष्णा थी। वे बाल विधवा थी। गणगौर के दिनों में वही सेवामाय बन जाती थी। वह कभी कभी पीतल की पीली पीली अन्नी जो प्रायः बीस या दस पैसों की होती थी देती थी। यह मेरे लिए बड़ी राशि होती थी। वैसे भुजरिये और दशहरे पर भी मुझे कुछ जगह से पैसे मिलते थे। कोई कोई एक रुपया तक देता था। इनका मैं एक मुश्‍त प्रयोग करता था। पटवा बाजार या सांई की दुकान से भौंरा, कंचे या टुन्नी घुपड़ने का अंटा खरीदकर लाता था। राजा और नवा कच्चे या पक्के अंटे के पारखी होते थे। हमारे मोहल्ले में उन दिनों जितने भी गोली बिस्किट चूरन किराने के टप होते थे उन सबके मालिकों को हम सांई कहकर ही पुकारते थे। उनमें केवल दो टप के मालिक सिंधी थे। पर दूसरे सब भी सांई ही कहे जाते थे;;;;;;;; (सतत जारी;;;)



धर्मेन्द्र पारे