सोमवार, 30 नवंबर 2009

टी.बी. का अच्छा होना और डाक्टर की पिटाई

टी.बी. का अच्छा होना और डाक्टर की पिटाई

हमारी स्कूल हरदा भर में बदनाम थी। हम बच्चों को दूसरी स्कूल के शिक्षक भी अच्‍छी नजर से नहीं देखते थे। जब टूर्नामेंट होते तो हमारी स्कूल के बच्चे ही सबसे ज्यादा ईनाम पाते थे। अकरम , उत्तम , मानसिंग को कुश्‍ती में , जान मोहम्मद मिनी व्हालीबाल और कबड्डी में, मैं ऊंची कूद, लम्बी कूद, तिरतंगी दौड़, सौ मीटर, दो सौ मीटर दौड़ खो खो में हमेशा आगे रहता। खेड़ीपुरा स्कूल में मैंने आठवीं कक्षा तक पढ़ाई की। लगभग पूरे समय मैं ही स्कूल में ड्रिल और स्काऊट का कैप्टन रहा। चैथी पांचवी कक्षा के दौरान मुझे बार बार बुखार आता था। पिताजी को किसी डाक्टर ने बता दिया कि मुझे टी.बी. हो गई है। मुझे रामप्रसाद डाक्टर जो हरदा के चिकित्सा इतिहास की सबसे बड़ी तोप माने जाते थे को दिखाया गया। उन्होंने इंदौर के अकबरअली और किसी मुखर्जी डाक्टर की ओर रिकमंड कर दिया। मैं घर का अकेला चिराग था। बुझने का खतरा था। मां रात रात भर मुझे गोदी में सुलाये रहती। पिताजी बहुत चिंतित रहने लगे । मेरा टी.बी. का ईलाज शुरु हो गया। मुझे जबरन इंजेक्‍शन और गोली दवाई दी जाने लगी। मेरा खाना पीना छूट गया। मां मुझे तरह तरह से चिरौरी करती पटाती कि मैं एक रोटी दूध के साथ खा लूं । पर मेरी भूख मर चुकी थी। बरसात के दिन थे। बरसात में किसान बुरी तरह कड़की में होते थे। पूरी तरह आढ़तियों पर निर्भर। उन दिनों पिताजी और उनके बड़े भाई के बीच जमीन जायदाद को लेकर खूब विवाद चल रहा था। कोर्ट कचहरी भी। पिताजी ने दादी के पास अपने हिस्से की पायगा की म्याल मांगी ताकि उसको बेचकर मेरा इलाज करवाया जा सके। पर विवाद के चलते उन्हें वह नहीं मिली। आखिर सकुचाते झेपते पिताजी जीवन में पहली बार वल्लभ सेठ तापड़िया के घर गये। उनको उदास खामोश देख वल्लभ सेठ ने कारण पूछा। पिताजी ने कातर स्वर में समस्या बताई। वल्लभ सेठ ने पिताजी को बहुत ढांढस बंधाया और कहा कि मेरे पैसे भी सब आपके ही हैं यह कहते हुए पांच सौ रुपये उन्हें दे दिये। मेरे बुजुर्ग पिताजी से यह कथा आज भी ऋण भाव से सुनी जा सकती है । हालांकि अब न पिताजी खेती करते न वल्‍लभ सेठ इस दुनिया में रहे । न उनकी अढत रही । पिताजी अपने चचेरे भाई जो परिवार में काफी होशियार माने जाते थे, जिन्हें बंबई कलकत्ता घूमने रेस लगाने मयकशी करने का काफी अनुभव था,जिन्होंने मालगुजारी दौर में बंदूक चलाने , लड़ाई झगड़े करने और नर्तकियों को नचाने जैसे काम भी किये थे को साथ चलने के लिए तैयार किया। मुझे मोटर में बैठने का सुख कम ही मिल पाता था। मोटर में घूमने की बड़ी तमन्ना रहती थी। गजानंद बस से हम इंदौर चले। एक बस ने हमें हंडिया उतार दिया। उन दिनों नर्मदा का पुल नहीं बना था। हंडिया से हम नाव में बैठकर नेमावर पहुंचे वहां गजानंद बस सर्विस की ही दूसरी गाड़ी खड़ी रहती थी उसी में बैठकर हम इंदौर चले। एक लॉज में रुके। पहली बार इंदौर देखा। पहली बार चाकलेटी चाय पी। पहली बार अमानुष फिल्म देखी। पहली बार एक पंडत के घर रांई डली तुअर दाल चखी। वहीं पहली बार हरदा के बाहर के किसी बच्चे को पीटा। मुझे अकबरअली डाक्टर को दिखाया। मेरे खून और पेषाब की जांच हुई। डाक्टर ने ठीक अलसी के दानों जैसी कोई दवाई दी जिसकी मुझे बहुत बदबू आती थी खाने के नाम से ही मैं उल्टी कर देता था। हरदा लौटे तो पिताजी मुझे इंदौरीलाल डाक्टर के पास इंजेक्‍शन लगवाने ले गये। मैंने आव देखा न ताव और इंदौरीलाल डाक्टर के पुट्ठे पर जूते भरी एक लात जोर से मारी और फुर्र से भाग खड़ा हुआ। कोई कुछ समझ पाता तब तक घटना घटित हो चुकी थी। फिर क्या था कई लोगों ने मुझे पकड़ा जोर जोर से चीपा। मेरी पैंट उतारी और इंजेक्‍शन लगाया गया। ऐसा आगे भी हुआ। एक बार इंदौर में ब्लड टेस्ट करने वाली एक नर्स को भी मैं मारकर भाग खड़ा हुआ था। आगे से पिताजी ने बहुत ही ऐहतियात बरती। मुझे आठ दिन में एक बार इंजेक्‍शन लगवाने का हुक्म था। कई लोगों की मदद से मुझे इंजेक्‍शन लगाना संभव हो पाता था। एक तो मैं दौड़ने भागने में बहुत तेज था अच्छे अच्छों के हाथ नहीं आता था।दूसरा धारा प्रवाह गाली बकने का अभ्यास था। पत्थर अच्छे से सन्ना सकता था। यानि कई कबिलियत एक साथ थी। घर पर जितने भी मिलने जानने वाले आते अपनी कोई न कोई दवाई जरुर बता जाते । ऐसे जैसे इसके लेते ही मैं चंगा हो जाऊंगा । कोई किसी पीर फकीर का पता देता कोई देव धामी गंडे ताबीज का । एक दिन हरदा की मशहूर रईस सावित्री बाई पटलन को देखने कोई बड़ा डाक्टर इंदौर से हरदा आया था । मेरे बड़े पंडीजी पांडुलाल तिवारी के माध्यम से मुझे भी वहां ले जाया गया । भला हो उस डाक्टर का जिसने मुझे एक बड़ी यातना से बचाया। डाक्टर ने मुझे देखा परखा मेरी एक्टिविटिज अर्थात कूंदने फांदने दौड़ने के किस्से खुद हेडमास्टर से जाने और पिताजी को आश्‍वस्त किया कि अब सारी दवाई बंद कर दें मुझे कोई टी.बी.बी.बी. नहीं है । और सचमुच मैं बहुत अच्छा हो गया ।(सतत जारी...)

धर्मेन्द्र पार