मंगलवार, 3 नवंबर 2009

भौंरा मन का भी और काठ का भी






लोकजीवन में भौंरे का अपना स्थान हुआ करता था । न तो अब लोक रहा न वैसा जीवन । भौंरे को कहीं कहीं लट्टू भी कहा जाता है । हमारे निमाड़ भुआणा और मालवा मंे तो इसे भौरा ही कहा जाता है । भौरा सफेदे या हलदू की लकड़ी से बनता है । इसे सुतार अर्थाता काष्ठषिल्पी खराद नामक अपने उपकरण पर ढालते थे । आजकर बिजली से चलने वाली खराद मषीने आ गई हैं । पहले ये मषीने पतली रस्सी से घुमाई या खीची जाती थी । इन्हीं मषीनों पर ढोलक, मूसल रंई और खूंटी बनाई जाती थी । इस क्रिया को उताना भी कहा जाता है । अभी ढोलक तो बजती दिखती है पर वैसे बजाने वाले कम हुए हैं जो गांवों में कभी हुआ करते थे । मूसल तो किसी किसी आदिवासी के घर ही देखने को मिलते हैं । और उक्खल तो मैं भूल ही गया । उक्खल बेचने बनाने वाले पत्थर टिक्का कहलाते थे । ये लोग घट्टी टांकने का काम भी करते हैं । हाॅं मेरे तस्वीर संग्रहों में इन पत्थर टिक्का लोगों की तस्वीरें होंगी मिलने पर इस ब्लाग पर डाल दूंगा । विषयान्तर हुआ ? पर सचमुच क्या यह विषयान्तर है? क्या एक पूरी परंपरा एक पूरी जीवन शैली एक पूरी की पूरी सभ्यता का मिटते जाना मा़त्र विषयान्तर कहकर खारिज किया जा सकता है ?आज की उन्नत विकसित तथा कथित ष्सभ्य जीवनषैली क्या सचमुच उसका विकल्प हो सकती है ?हाॅं मैं भौंरे की बात कर रहा था । भौंरा शब्द भॅंवर से बना है । वैसे भौंरा एक प्रकार का गुंजन करके उड़ने वाला छोटा सा पतंगा होता है । यह गहरे काले रंग का होता है जिसका सिर पीला होता है इसलिए कृष्ण भक्ति के कई पदों में कृष्ण को भी भंवरा कहा गया है रुप रंग और प्रवृत्ति गत साम्य के कारण ! हमारे लोक जीवन में बच्चों के खेलने का भौंरा भी इसी भौंरा नामक पतंगे से प्रवृत्तिगत साम्य के कारण भौंरा कहलाया लकड़ी का भौंरा या लट्टू भी तेज गंुजन के साथ तीव्र भंवर के साथ धूरी पर घूमता है ! इस भौंरे को पतली रस्सी जिसे जाली कहा जाता है से लपेट कर जोर से फेंका जाता है इसे हर कोई नहीं फेंक सकता न भौंरा घुमा सकता । जाली बनाने के तरीकों पर बाद में लिखूंगा । भौंरे के नीचे लगी कील आर कहालाती है । भौंरे के सिर पर उठी जरा सी लकडी गंुडी कहलाती है । भौंरे के सिद्धहस्त खिलाड़ी दो और एक कोंड नामक खेल खेलते हैं । और बड़े खिलाड़ी भौरे को कलात्मक तरीके से हाथ पर ही घुमा लेते हैं बिना जमीन पर गिराये।लोक जीवन में खेल खिलौने बिना लागत या न के बराबर लागत के ही होते हैं । आज के मॅंहगे और एकाकी बनाने वाले खेल खिलौनों की तुलना में वे ज्यादा सामाजिक और सामूहिक होते हैं ।