गुरुवार, 10 दिसंबर 2009

कुत्ती के पिल्ले छोटली और मैं



कुत्ती के पिल्ले छोटली और मैं

छोटली नाम से ही सब उसको जानते थे। पर हरणे पंडीजी की हाजिरी में पुकारा जाता सुरेन्द्र कुमार रामेश्‍वर जाति ब्राह्मण। हरणे पंडीजी जाति का उच्‍चारण खूब जोर से करते थे । जैसे वह किसी कागज पर किसी इबारत को हाईलाईट कर रहे हों । छोटली मेरा दूर का रिश्‍तेदार भी था। राजा, नवा, शंकर, डिबरु, सुनील के अलावा मेरी दोस्ती का क्षेत्र ज्यादा व्यापक था। मेरे मुद्दे आधारित दोस्त भी थे। मुझे ठंड के दिनों में यह पता होता था कि आसपास की गली मोहल्लों टूटे पड़े मकानों, कोनो कचरों, आड़ ओट, सेंदरी गली में कौन सी कुत्ती ने बच्चे दिये हैं। वे अब कितने दिन के हो गये हैं। उनकी आंख खुली है या नहीं उसमें कितने कुत्ते और कितनी कुतिया है। बीस नख का है कि कम नख का। बड़े होने पर उसके कान खड़े रहेगें या नहीं। मैं और छोटली इसके विशेषज्ञ माने जाते थे। पिल्लों की मां खाने की तलाश में कब निकलती है इसपर हमारी पैनी निगाह लगी रहती। शुरु शुरु में वह गुर्राती भी थी । धीरे धीरे हम उससे दोस्ती कर लेते। अपने घरों से चुपके से दो रोटी जेब में रख लाते और उसको खिलाते। कभी कभी दूध भी चुरा लाते थे। दरअसल छोटली और मेरे घर हरदा में भी दुधारु गाय भैंस रहती थी। पिल्लों की मां धूप का आनंद लेती रहती हम उसके पिल्लों से खेलते रहते। उन्हें दूध पिलाने और रोटी खिलाने का अभ्यास करते रहते। जब पिल्ले हमारे आदेश मानने लगते , हमारे इशारों पर दौड़ने लगते , छू कहते  ही उछल कर हमारे निर्देशित लक्ष्य की ओर लपकते। हम कहते - पंजा दे ! तो वे हमारी हथेली पर पंजे रख देते। हम कहते स्याबास !! शेरु !! कबू ! भूरु। हमारे लिए वे दिन बड़ी बेचैनी , उदासी और दुख के होते जब नगरपालिका के सफाई कामगार आते और किसी कुतिया को जहर दे जाते। हम कातर निगाहों से देखते रह जाते । हम लोग भगवान से दुआ करते कि काश जहर देने वाले कर्मचारी की निगाह में आने से यह कुतिया बच जाये ! हम धीरे धीरे तिउ...तिउ की आवाज निकाल कर उसे दूसरी ओर भगाने की कोशिश भी करते । कभी कभार ही सफल हो पाते थे । हम कुत्ते कुत्तियों को मेरे घर के पीछे बनी कोठरियों मे छुपाने की भरसक कोशिश भी करते पर नगरपालिका के नियमित अभियान से हम शायद ही उन्हें बचा पाते। अगले दिन नगरपालिका की ट्राली आती और कुत्तों की मृत देह उठाकर ले जाती। उन ट्रालियों में ढेरों कुत्ते पड़े होते। हम उनमें से अपने शेरु , कबू, भूरु को पहचानने और आखिरी विदा देने चुपचाप खड़े रहते। ट्राली में मृत कुत्तो के ढेर में उन्हें पहचानने और निहारने के लिए गर्दन उचका उचका कर ऐड़ी पंजों के बल खड़े होकर देखने की कोशिश करते। ऐसे समय हम अपने क्षोभ गुस्से और घृणा का इजहार तो नहीं कर पाते पर उस दिन बहुत तेज दौड़ लगाते कभी दौड़ते दौड़ते डाक्टर कुंजीलाल के ओटले पर चढ़ जाते कभी छलांग लगाते और बात बात मे कहते - यार ! दिमाग मत खराब कर। छोटली कहता - मेने अब्बी देखी थी शेरु की आंख खुल्ली थी । मानो वह हमें दिलाशा देने की कोशिश कर रहा हो कि हमारा प्रिय कुत्‍ता मरा नहीं बल्कि जिंदा है और जिंदा रहेगा । राजेश कहता हां वो जिंदी हे । हम उम्मीद करते कि एक दिन हमारी प्रिय कुतिया और कुत्ते जीवित लौट आयेगें ! हम कुछ दिनों तक उनकी बहादुरी और वफादारी के किस्से सुनाते । इस बीच किसी कुत्ते के हड़काये हो जाने की खबर आती । हड़काये कुत्ते से हम भी डरते थे । हमने सुन रखा था कि हड़काये कुत्ते की पूंछ सीधी हो जाती है । हड़काये कुत्तों को हमने स्कूल के पास बड़ी निर्ममता पूर्वक लाठियों से खत्म करते देखा था । मैं अपने कुत्‍तों को बडा छुपाकर रखता था । यदि सिराली वाली मावसी को दिख जाता तो वे कहती - बाल ओख .... अदडी आ कंई न्‍हई हगज मूतज....... (जारी)

धर्मेन्द्र पारे