बुधवार, 2 दिसंबर 2009

गुडडु के आतंक से मुक्ति , मोहल्ले का कुआ ,काब्जे, और सुनील के जलवे

गुडडु के आतंक से मुक्ति , मोहल्ले का कुआ ,काब्जे, और सुनील के जलवे

पांचवी कक्षा में आते ही मैंने भी पटवा बाजार से प्लास्टिक का नारंगी रंग का तीन धारी वाला कमर पट्टा खरीद लिया था । लड़ाई झगड़े में पत्थरों और गालियों के बाद वही मुख्य हथियार हुआ करता था। गुड्डु धोबी मुझे रोज मारता था। उसकी हिम्मत यहां तक बढ़ गई थी कि जब मैं अपने घर के कोट पर चढ़ा होता तब भी मारकर भाग जाता। दरअसल स्कूल और मोहल्ले में यदि किसी की चलती थी तो पहले नम्बर पर रामकिशन और उसके रिश्‍तेदारों की जिनका नाम ही काफी हुआ करता था। स्कूल परिसर के बाहर भी इनका ही रंग हुआ करता था। सारे बच्चे इनकी बोली वाणी पहनावा लहजा चाल ढाल का अनुसरण करना चाहते थे । मानों वे मानक हो मानों वे आदर्श हों। स्कूल परिसर में मास्टरों के लड़कों की भी अच्छी चलती थी। संजय तिवारी हेडमास्टर का लड़का था, सतीश कुरेशिया पंडीजी का और रतनदीप चंद्रवंशी गुरुजी का। स्कूल के बाहर कहार मोहल्ले में ब्रह्मा विष्णु महेश की भी अच्‍छी धाक बन रही थी। पर बस उसी धानी फुटाने वाली गली में उनका नाम ज्यादा था। शेष मोहल्ले के किंग तो दूसरे ही हुआ करते थे। दरअसल गुड्डु ,ब्रह्मा विष्णु महेश की गली में रहने आ गया था । उसको संरक्षण की गलतफहमी हो गई थी। एक दिन गुड्डु ने नेड़गुड़ की बड़ी बड़ी सोंटी लगभग लट्ठ नुमा लेकर मुझे तिगड्डे पर मिलाया और मारने दौड़ा। पता नहीं साथ देने या दर्शक के रुप में दो चार और भी लड़के साथ में थे । मुझे लगा मौत साक्षात सामने है त्वरित मेधा से मैंने पहले धूल उठाया गुड्डु की ओर फेंका । निशाना सही लगा युद्ध का नायक परास्त होने जा रहा था वह भी अपनी ही गली में । अपने ही सरदारों के साथ -सामने। गुड्डु की आंख में कचरा जा चुका था। मौके का फायदा पूरा उठाया गया ! गुड्डु से सोंटी छीन ली गई । उसी सोंटी से उसको भयानक रौद्र रुप में सूता गया। बिल्कल उधेड़ दिया । गुड्डु रो रहा था। गुड्डु के सरदार मेरी तरफ हो चुके थे वही जो कुछ देर पहले गुड्डु को उकसा रहे थे! रण जीत लिया था। मैं रामकिशन, उत्तम ,लल्लू और मानसिंग की तरह सीना तान कर चल रहा था। घर पहुंचा गुडडु की बाई झगड़ा करने आई मैंने उनको भी गालियां ठननाई। गुड्डु के काका सुरेश को न जाने मैं क्यों मैं अपने एरिया का सबसे बड़ा दादा मानता था। सुरेश लंगोट लेकर रोज चौकी अखाड़े जाता था शायद इसलिए। पर सुरेश सेहत से बहुत कमजोर छोटा सा और दुबला पतला था । सुरेश उन दिनों शाम को कुए की पाली पर बैठता था। कुआ गली में, तेलियों के मकान जो अब राठौर धर्मशाला में बदल गये है के पास था। वह गुलाबी चौड़ी वेल वाटम पहनता था बालों को सिनेमा के हीरो की तरह घुमाता था। उसकी जेब में हमेशा एक कंघी रहती थी। जब तब जिससे वह बाल संवारता रहता था। शाम को उसके पास सप्पु पहलवान भी आकर बैठता था। सुरेश स्कूल तो नहीं जाता था पर दिन भर सिनेमा के गाने जोर जोर से गाता था और चौकी अखाड़े के पहलवानों की स्टाइल में चलने की एक्‍शन करता था। उन दिनों मुझसे बड़े कुछ लड़कों की जेब में बटन वाला चाकू भी हुआ करता था। मैंने बटन वाला पीतल और लोहे का चाकू पहली बाद पदम पहलवान के पास देखा था। राजा मुझसे अक्सर कहता था कि जब भी गोलापुरा वालों से झगड़ा होगा मैं तो हीरु भैया के घर से चाकू ले आऊंगा। नवा कहता था उसके घर तो पहले से ही है। शंकर अपने रिश्‍ते सीधे सीधे चंदू खलीफा से बताता था। मुझे अपनी असहायता पर बहुत दुख होता था। ऐसे मौको पर मुझसे कुछ बोलते नहीं बनता था। बोलने की कोशिश करता तो खिसिया कर रह जाता। मुझे लगता मैं बहुत दरिद्र हूं। ऐसे समय मुझसे पढ़ने और खेल कूद में बहुत कमजोर और पीछे रहने वाले राजा और नवा के चेहरे पूरे खिले होते। हालांकि कंचे खेलने में मेरा निशाना गजब का था। खूब सारे कंचे जीतकर मैं उन्हें हीरा सांई के टप पर सस्ते में बेच भी आता था। यह मेरी कभी कभार की आय का जरिया भी था। भौरा मैं ऐसे घुमाता था कि जमीन पर गिराये बिना सीधे हथेली पर ले लेता था । पर सोचता इससे क्या होता है ? आखिर मेरे पास बटन वाला चाकू तो उपलब्ध नहीं है ?शंकर सुतार, डिबरु पंडित, खालिक,दयाल, कमल आदि रहते तो हमारे घर के आसपास पर ये लोग राजा नवा और मुझसे अपने को इसलिए बेहतर मानते थे क्योंकि ये खेड़ीपुरा स्कूल जैसी थर्ड क्लास स्कूल में नहीं पढ़ते थे। उन दिनों ये लोग अन्नापुरा, मानपुरा, शुक्रवारा स्कूल में पढ़ने जाते थे। इनके घर परिवार के लोग कहते भी थे कि खेड़ीपुरा स्कूल में पढ़ने से बच्चे बिगड़ जाते हैं।


कुए में दो बड़े बड़े काब्जे थे। मस्जिद के पास रहने वाले लड़के जब तब समूह में आते और अपने गल से उन्हें पकड़ने की कोशिश्‍ करते थे । मुझे ऐसे समय बहुत बुरा लगता था और मैं सोचता था कि गुड्डु का काका सुरेश ऐसे बुरे समय में जरुर आयेगा और इन लड़कों को भगा देगा । पर कुछ दिनों बाद मेरा इस विश्‍वास से मोहभंग हुआ जब उन लड़कों ने सुरेश को मेरे सामने ही घर जाकर चमका दिया । सुरेश मेरी निगाह में अब छोटा हो चुका था । मानों उसकी पोल खुल कई । पॉलिश उतर गया । जब नल नहीं आते थे तो पूरे मोहल्ले की औरते कुए पर ही कपड़े धोती थी। और जिन लड़कों को तैरना आता था वे ऊपर से कूदकर नहाते थे। सुरेश धोबी और सुनील नाई का नम्बर उसमें सबसे ऊपर था। मुझे उस कुए में नहाने की कतई इजाजत नहीं थी। हांलाकि मैं अपने गांव की नदी में सुतार घाट पर उससे भी कहीं ज्यादा ऊंचाई से कूदकर नहाता था। एक दिन रात को राजा की नई वाली बाई ने उसमें छलांग लगा दी। दरअसल राजा कि मां बचपन में ही नहीं रही थी। उसके पिताजी जिन्हें हम लच्छू मामा कहते थे की यह तीसरी शादी थी। राजा की नई बाई का कुए में कूदना था कि पूरे मोहल्ले की भीड़ वहां लग गई। कोई रस्सी लेकर दौड़ा तो कोई दिया लेकर। तेलन माय ने चिमनी को उल्टा ही कर दिया उजाला तो नहीं हुआ पर चिमनी भभक गई और उनको चटका लग गया। उन्होंने चिमनी कुए में ही टपका दी। पर जितनी देर भी उजाला हुआ उतने में सबने देख लिया कि राजा की बाई सकुशल है। वे कुए में आड़े लगे एक डंडे पर खड़ी हो चुकी थी। नायन माय ने बाद में बताया कि वह तो नर्मदा की तैराक रही है। दूसरी औरतों ने इसके पहले भी इस कुए में कूदने वाली औरतों के बारे में जिक्र किया और बताया कि पर देव बाबा का कुछ ऐसा परताप है कि इसमें कोई मरता नहीं है। कुए के प्रति मेरे मन में बड़ी श्रद्धा उत्पन्न हो गई। पर पूरे मोहल्ले में यह माना जाता है कि गढ़ीपुरा में घुसने के लिए मोरे के पास जो सेंदरी है उसमें भूत है । रात में वहीं से ढोलक और घुंघरु की आवाज आती है। बावजूद इसके ठंड के दिनों में नवा, राजा,शंकर और नवा का भाई माणक आदि हमलोग मिलकर रात में कहीं न कहीं से साइकिल के टायर, लकड़ी के छिलपे और कभी कभी कहीं से कंडे भी चुराकर आग जलाते और तापते हुए बहुत देर तक भूत की बात करते पर उस सेंदरी की तरफ देखते भी नहीं। सुनील आता तो विद्रोही भाषा में बात करता। तब तक वह घर से दो तीन बार भाग भी चुका था। यूं कई लड़के उन दिनों घर से भाग जाते थे। पर सुनील की बात कुछ और थी। वह कई कई दिनों और महीनों बाद आता था। वह बताता था कि इस बार वह बंबई जेल में बद रहा तो कभी बताता कि वह नाशिक जेल में बंद रहा। हकीकत में उसकी भुआ के लड़के मनोहर भैया उसको एक बार तो इंदौर से पकड़कर लाये थे। वह अपने काकाजी की पहलवानी के किस्से सुनाता था और बताता था कि वे जवानी के दिनों में जब रियाज करते थे तो जब वे एक पांव पर खड़े होते थे तो धरती एक तरफ झुक जाती थी । पर सुनील की उसके काकाजी से पटती नहीं थी। ऐसे और भी लड़के थे जिनकी अपने बापों से नहीं पटती थी। वे मुझे घर से बुलाते और कहते जरा हमारे घर देखकर आओ वो मेरा मादर....बाबू तो नहीं आ गया ? दरअसल उस बेचारे की मां कैंसर से मर चुकी थी और बाबू ने अपनी शिष्‍या को ब्याह लाये थे। मुझे नहीं याद है कि आठवीं कक्षा तक हम दोस्तों ने कभी घर पर किसी प्रकार का होमवर्क किया हो। बस्ता स्कूल में ही खुलता था। बाकि समय घर की खूंटी पर मौन टंगा आराम कर रहा होता। घर में खूटियों और आलों की कोई कमी नहीं थी। कुछ आले चिमनी जलने के कारण काले पड़ चुके थे। घर कच्चा था। मिट्टी से छबा हुआ। कभी कभी उसके पोपड़े निकलते थे। जो कुछ पढ़ना वह स्कूल में ही। बाहर तो बस खेल ही खेल। रात में इंदरराज दाजी से कहानी सुनना।(सतत जारी ;;;;)

धर्मेन्द्र पारे